ऐ मेरे वतन के लोगों! जरा आँख में भर लो पानी/ जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी। ये वो बोल हैं जिन्हें सुनकर शहीदों की कुर्बानी का अहसास हृदय की गहराई में उतर जाता है और बरबस आँखों से आंसू बहने लगते हैं। हिन्दी फिल्मों के निराले एवं देशभक्ति के अमर गीतकार कवि प्रदीप की कलम की कशिश और आकर्षण कुछ ऐसा ही है। आम जन ही नहीं बल्कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इस गीत को सुनकर भाव-विभोर हो गए थे और अपने आंसू नहीं रोक पाए थे। कवि प्रदीप ने प्रेम के हर रूप और हर रस को अपने गीतों में पिरोया है, लेकिन देशप्रेम की भावना के गीतों के लिए उन्हें विशेष रूप से याद किया जाता हैं।
प्रति वर्ष स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्रता दिवस और गांधी जयंती पर तो उन्हीं के गीतों की बहार छाई होती है। इन गीतों की विशेषता यह है कि इन्हें जितना सुने हर बार नया आनंद देते हैं और मन के तारों को तरंगित कर देते हैं। इसका मूल कारण है कि कवि प्रदीप ने अपने लिखे और अपने ही लिखे गानों को जिस अंदाज़ में गाया है उनमें राष्ट्रीयता, आध्यात्मिकता, मानवीयता और वैचारिकता का ऐसा बखान सुनने को मिलता है कि वह बोल सीधे मन में उतर जाते हैं और स्वतः वाह के भाव पैदा हो जाते है।
मध्यप्रदेश के बड़नगर में फरवरी, 1915 को जन्मे प्रदीप का नाम रामचंद्र द्विवेदी रखा गया। प्राथमिक शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई। स्नातक की डिग्री लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त करने के बाद अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में प्रवेश किया। विद्यार्थी जीवन में ही काव्य ने उन्हें आकर्षित किया और वे काव्य-रचना व वाचन में विशेष दिलचस्पी लेने लगे। कवि सम्मेलनों में कविताएं सुनाते हुए उन्हें श्रोताओं की खूब दाद मिलती थी। रामचंद्र द्विवेदी की कविता केवल समय बिताने का साधन नहीं थी, वह उनकी सांस-सांस में बसी थी और जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। इसीलिए अध्यापन छोड़कर वे कविता रचना में जुट गए। कवि सम्मेलनों में उन्होंने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसी विभूतियों को भी प्रभावित किया। उन्हीं के आशीर्वाद से रामचंद्र ‘प्रदीप’ कहलाने लगे। बाद में वे मायानगरी मुंबई चले गए। उस जमाने में अभिनेता प्रदीप कुमार बहुत लोकप्रिय थे और अक्सर आम लोग प्रदीप कहे जाने वाले रामचंद्र द्विवेदी की जगह प्रदीप कुमार के बारे में सोचने-समझने लगते थे। ऐसी स्थिति से बचने के लिए रामचंद्र ने अपना उपनाम ‘कवि प्रदीप’ रख लिया, ताकि अभिनेता प्रदीप कुमार और गीतकार प्रदीप में अंतर हो सके।
कवि प्रदीप अपनी रचनाएं गाकर ही सुनाते थे। उनकी शैली से प्रभावित हुए बाम्बे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने उनको कंगन फिल्म के लिए अनुबंधित किया। कवि प्रदीप ने इस फिल्म के लिए चार गाने लिखे। उनमें से तीन गाने स्वयं गाये और सभी गाने अत्यंत लोकप्रिय हुए।
उनके लिखे कुछ गीतों की बानगी को देखिये “ ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी, “दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना मशाल “साबरमति के संत तूने कर दिया कमाल’ “ पिंजरे के पंछी रे, तेरा दर्द न जाने कोए” और “ देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गयी भगवान कितना बदल गया इंसान “ इत्यादि ऐसे हिट गाने हैं जिनमें जीवन दर्शन और व्यक्तित्व दर्शन को कवि ने बहुत सरल शब्दों में बड़ी संजीदगी से लिखा और गाया है।
भारतीय सिनेमा में ऐसे गीतकार और गायक बिरले हैं जिन्होंने अपने लिखे को स्वयं गा कर अपार ख्याति पायी हो। कवि प्रदीप के गानों मे ओज पूर्ण भाव, खोते हुए मानवीय मूल्यों और आध्यात्मिकता की अदम्य शक्ति के दर्शन होते हैं। सातवें दशक मे फिल्म “शोले” की हिमालयी सफलता के सम्मुख उस समय प्रदर्शित हो रही सभी फिल्में उसकी तूफानी सफलत के सामने घुटने टेक रही थीं तब एक ही फिल्म थी जिसने “शोले” को जम कर टक्कर दी वह है “जय संतोषी माता“। यह फिल्म जम कर बंपर हिट हुई इसका एक कारण इसके लिखे कवि प्रदीप के सभी गीत थे। इस फिल्म की आरती “ मैं तो आरती उतारूं रे संतोषी माता की “ के सिनेमा हाल के पर्दे पर आते ही सारे दर्शक आस्था भाव से झुम उठते और सिक्कों की चढावे के रूप में बारिश करने लगते फिल्म प्रदर्शन के 45 वर्ष बाद आज भी इस आरती को बडे भक्ति भाव से सुना जाता है। इसके रचनाकार कवि प्रदीप थे जिसे गायिका उषा मंगेशकर ने स्वर दिया और सी अर्जुन ने संगीत में पिरोया।
वास्तव में कवि प्रदीप के लिखे गीतें में वही खरी सच्चाई भी सुनने को मिलती है, जो आम तौर पर इंसानी कमजोरियों को उजागर करती हैं। उनकी काव्य शैली में वह ज़बर्दस्त प्रवाह समाया होता जिसमें वह सौ टके की सही बात को चुटकियों में कह डालते थे, जो मनो मंथन के लिये विवश कर दिया करते। “ इसका उदाहरण है “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान “ (फिल्म नास्तिक ) को सुना जा सकता है। इसी तरह “हमने जग की अजब तस्वीर देखी एक हँसता है, दस रोते हैं “ ( फिल्म शंकर सीता अनसूया) “पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय “ (फिल्म : नागमणि) और “मुखडा देख ले प्राणी ज़रा दर्पण मे कितना पुण्य है कितना पाप है तेरे जीवन में “ ( फिल्म : दो बहनें ) इत्यादि ऐसे गीतों ने श्रोताओं के अंतर्मन को झकझोरते हैं ।
कवि प्रदीप के लिखे भजन अब भी श्रवणीय बने हुए हैं इन भजनों में भक्ति रस का माधुर्य सुनने को मिलता है मिसाल देखिये “ दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले तेरे दुख दूर करेंगे राम“ (फिल्म दशहरा ) “तेरे द्वार खड़ा भगवान भगत भर ले रे झोली (फिल्म वामन अवतार ) “सुख दुख दोनों रहते जिसमें जीवन है वह गांव /कभी धूप कभी छांव “ ( फिल्म : कभी धूप कभी छांव ) “मदद करो संतोषी माता “(फिल्म \\जय संतोषी मां )आदि इन भजनों के आस्था भावों ने श्रोताओं को भक्ति भाव नये आयाम दिये जिससे उनकी लोकप्रियता अब भी बनी हुई है। फिल्म “जय संतोषी भी मे 3 गीत थे जो सभी हिट हुए इसका श्रेय कवि प्रदीप की आराधना पूर्ण शैली को है। वास्तव में कवि प्रदीप ने अपनी रचनाओं से जो संसार रच वह संगीतमयी धरोहर बन गया है।
घटना चालीस के दशक के अंत की है, युवा कवि रामचंद्र नारायण द्विवेदी मुंबई में एक कवि सम्मेलन में अपना काव्य पाठ कर तालियों की आवाज़ के बीच मंच से उतर रहे थे तभी उस समय के यशस्वी फिल्मकार और बांबे टाकीज के प्रधान हिमांशु राय ने कवि प्रदीप को उनकी साहित्यिक विद्वता को देख फिल्मों में गीत लिखने के लिये रु 200 के मासिक वेतन पर बांबे टॉकीज में काम दे दिया। यद्यपि उनकी अभिलाषा शिक्षक बनने की थी। हिमांशु राय ने ही उनका नाम कवि प्रदीप रखा और वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चले गये। सन 1943 की सबसे बड़ी हिट फिल्म “किस्मत” में इस गीतकार के लिखे गाने “ आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है “ गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि उस समय की अंग्रेजी हुकूमत में इसे सुन उनके होशो हवास उड गये। बताते हैं कि ब्रिटिश अधिकारियों ने वारंट जारी करके कवि प्रदीप की तलाश शुरू कर दी। जब उनके कुछ मित्रों को पता चला कि ब्रिटिश शासक कब प्रदीप को पकड़कर कड़ी सजा देना चाहते हैं। मित्रों और शुभचिंतकों के अनुरोध पर कवि प्रदीप भूमिगत हो गए। लेकिन यह गाना वतन के मतवालों में नई ऊर्जा का संचार कर गया।लोगों ने भी इस गीत की खूब सराहना की। गीत को सुनकर दर्शकों में उत्साह जागृत होता।
कवि प्रदीप के राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत गानों ने चारों ओर लोकप्रियता के शिखर को छूआ आज भी वह अपनी ख्याति को जस का तस बनाये हुए हैं उदाहरण के लिये( फिल्म “जागृति“) मे लिखे उनके इस गीत को देखें “हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के” इसी फिल्म के एक और गीत पर गौर फरमाएं “ आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की “ इसी फिल्म के एक और गीत को भी देखिये “ दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल “ यह देश भक्ति हो पांच दशक पूर्व लिखे और गाये गाने हैं जिनका माधुर्य दिनों दिन बढ़ रहा है।
यह कविता की अद्भुत शक्ति का प्रमाण भी है जिसे कवि प्रदीप ने रचा उनके लिखे एक और भावुक और रोंगटे खडे कर देने वाले गीत को देखिये जो सन 1962 में भारत चीन युद्ध के बाद अमर हुए जवानों की याद में लिखा गया “ ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो उनको।
घटना प्रसिद्ध है इस गीत को पहली बार देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम मे लता मंगेशकर के स्वर में सुना तो उनकी आंखें भर आयी और उन्होंने इसके रचयिता कवि प्रदीप को राष्ट्रकवि की उपाधि दे दी। दरअसल काव्यकार कवि प्रदीप ने अपने समय में समयातीत गीतों की रचना की उनका लिखा भजन (फिल्म : हरि दर्शन ) “जय–जय नारायण-नारायण-हरि–हरि तेरी लीला सबसे न्यारी-न्यारी” को भला कौन भुला सकता है। इसी तरह अगर उनके लिखे हुए गानों का अध्ययन किया जाए तो उस समय के गानों के परिदृश्य के साथ-साथ यह भी स्पष्ट होता है कि उनका हिंदी के प्रति कितना अटूट लगाव था।
कवि प्रदीप ने 71 फिल्मों के लिए सैकड़ों गीत लिखे। उनके लिखे कुल गीतों की संख्या 17सौ के करीब है। निदा फ़ाजली के अनुसार ‘प्रदीप जी ने बहुत ही अच्छे राष्ट्रीय गीत लिखे हैं। यूँ समझिए कि उन्होंने सिनेमा को जरिया बनाकर आम लोगों के लिए लिखा।’ वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश चौकसे भी कवि प्रदीप के सादे व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हैं। उनके अनुसार, “उन्होंने बहुत ज्यादा साहित्य का अध्ययन नहीं किया था, वो जन्मजात कवि थे।
अपने रचनात्मक जीवन से गीतों को अनुभूति श्रद्धा से आप्लावित किया। वह ‘भाव’ इतिहास से लेते थे और ‘शैली’ अपने युग से, अतः उनके शब्दों में मानो भविष्य बोल रहा था तभी तो उनके लिखे राष्ट्रीय, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और वैचारिक गाने अमर बन गये हैं। उनका हर फिल्मी-गैर फिल्मी गीत अर्थपूर्ण होता था और जीवन का कोई न कोई दर्शन समझा जाता था।
सन 1997 में उन्हें उनके स्वर्णिम योगदान के लिए दादा साहेब फ़ालके अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। दिसंबर 1998 को इस महान गीत शिल्पी ने संसार को अलविदा कहा। उनके लिखे और गाए गीत हमारी अमूल्य धरोहर हैं जिसे सदियों तक ज़माना सुनता गाता और गुनगुनाता रहेगा और उनके गीतों के जरिये वे हमें जीवन का संदेश सदैव मिलता रहेगा।