‘કાશ્મીર નિર્ગમન’
कार्यक्रम -पुस्तक लोकार्पण
*उपेंद्रनाथ रैणा लिखित कविताओं का साधना अरुण भट्ट द्वारा सर्जनात्मक अनुवाद ।
29 जनवरी 2023, शाम 4:00 बजे आकाशवाणी अहमदाबाद की पूर्व निर्देशक ,कवयित्री, लेखिका एवं बहुमुखी प्रतिभा की धनी आदरणीया साधना भट्ट जी द्वारा हिंदी के सुविख्यात कवि श्री उपेंद्र नाथ रैणा जी द्वारा कश्मीर की त्रासदियां एवं विस्थापन की पीड़ा पर लिखित कविताओं के गुजराती भाषा में अनुवादित पुस्तक के लोकार्पण समारोह का आयोजन अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ के गांधी संशोधन हॉल में किया गया।
भारत के कश्मीर घाटी के मूल निवासी यानी कश्मीरी हिंदुओं की सबसे बड़ी जाति है कश्मीरी पंडित। सन 1990 के दशक में आतंकवाद के उभार के दौरान कट्टरपंथी एवं आतंकवादियों द्वारा उत्पीड़न और धमकियों के बाद पंडित अधिक संख्या में कश्मीर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। हम रेडियो ,टेलीविजन, समाचार पत्रों एवं फिल्मों के द्वारा तीन दशक से भी ज्यादा समय से कश्मीरी पंडितों की एवं उनके विस्थापन की पीड़ा को केवल देख रहे हैं, सुन रहे हैं। कल पहली बार एक विस्थापित व्यक्ति को रूबरू सुना और उनकी पीड़ा को महसूस किया। विस्थापन की पीड़ा को झेल रहे कवि का नाम है श्री उपेंद्रनाथ रैणा। वे आकाशवाणी दिल्ली के निवृत्त अफसर, एक रंगकर्मी, रंग निर्देशक, अभिनेता, अनुवादक मीडिया कर्मी एवं विस्थापन और निर्वासन के अच्छे कवि और कलम के सिपाही हैं। उनका जन्म एवं शिक्षण कश्मीर में हुआ है।
उपेंद्रनाथ रैणा जी भी विस्थापित कश्मीरी पंडित परिवार से है। कैसे हालात में उन्हें अपनी जन्मभूमि को सपरिवार छोड़ना पड़ा और आज भी वह एवं उनके परिवार जन फिर से वहां बसने के लिए कितने आतुर हैं, इस दर्द भरी दास्तां को उन्होंने हमारे समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने अपनी कुछ कविताएं हिंदी भाषा में सुनाई जिनका अनुवाद साधना जी ने ‘કાશ્મીર નિર્ગમન ‘में किया है। हालांकि मैंने उपेंद्र नाथ जी की पुस्तक पढ़ी नहीं है फिर भी साधना जी द्वारा गुजराती भाषा में अनूदित कविताओं के माध्यम से इतना जरूर कह सकती हूं कि यह कविताएं हमारे भीतर झंझावात पैदा कर देती हैं। दर्द की कलम से आँसू की स्याही में डुबो कर लिखी गई कविताओं में तड़प है, आग है, पीड़ा है ,छोड़ी गई जमीन की खोज और ना जाने क्या-क्या है! मन एक चीत्कार से भर उठा जब रैणा जी ने कहा कि पंडितों को आदेश दिया गया कि वे तुरंत कश्मीर छोड़ दें या धर्म परिवर्तन के लिए राजी हो जाए। अगर वे कश्मीर छोड़ना चाहते हैं तो वह अपने घर की स्त्रियों को यहीं पर छोड़ जाए। कितने घर जलाए गए और कई औरतों के साथ क्रूरतापूर्वक दुर्व्यवहार हुआ। अपने वक्तव्य में अपनी पीड़ा को उड़ेलते हुए रैणा जी कहते हैं वह छोड़ी गई केवल जमीन ही नहीं पूरी संस्कृति है, ‘मां ‘है। उनकी माताजी थोड़े थोड़े दिनों में जब कश्मीर जाने की जिद करती तब उन्होंने एक कविता लिखी,”मां घर छोड़ते वक्त तुम भूल आईं थोड़ी सी आग शायद बुझी नहीं होगी अभी।”
कार्यक्रम में अतिथि विशेष के रूप में वरिष्ठ लेखक श्री वासुदेव पाठक जी, सुश्री मालती दुबे जी, डॉ दक्षा जोशी जी एवं श्री सरस्वतीचंद्र आचार्य जी उपस्थित रहे। अनुवाद के विषय में उनके वक्तव्य जानकारी पूर्ण रहे। किसी भी कृति का महज शब्दश: अनुवाद ना होकर भावानुवाद होना चाहिए। स्वतंत्र कृति की रचना करना जितना सरल है उतना ही कठिन कार्य अनुवाद का है। अनुवाद के लिए उस कृति को उचित न्याय देने के लिए परकाया प्रवेश करना पड़ता है। वास्तव में बंगाली भाषी साधना जी ने हिंदी उपरांत अन्य भाषा (गुजराती )में इस पुस्तक का अनुवाद कर विस्थापितों की पीड़ा को गुजराती भाषी यों तक पहुंचाने का सार्थक प्रयास किया है। ‘हेलो गुजरात पब्लिकेशन’ द्वारा इस सुंदर पुस्तक का प्रकाशन श्री सरस्वतीचंद्र आचार्य जी ने किया है।
सुंदर पुस्तक के आवरण पृष्ठ एवं भीतर के कुछ पन्नों पर सुविख्यात चित्रकार श्री रवि धर जी ने अपने चित्रों को प्रस्तुत करने की सहर्ष अनुमति दी है। एक कश्मीरी पंडित होने के नाते वह भी ब्रश से कैनवास पर कश्मीरी पंडितों के इतिहास एवं उनके दर्द को चित्रित कर रहे हैं।
इस कार्यक्रम का सुंदर संचालन आकाशवाणी की भूतपूर्व उद्घोषिका सुश्री मेधाविनी जानी ने किया एवं सरस्वती चंद्र आचार्य जी ने आभार प्रदर्शित करते हुए कार्यक्रम के समापन की घोषणा की। साधना जी ने अतिथियों के लिए कस्तूरबा उपहार गृह में हल्के-फुल्के नाश्ते का आयोजन भी किया था। विस्थापितों की पीड़ा सुनकर मन कश्मीर की वादियों में जाकर भीतर से भीग ही रहा था तो बाहर हो रही बेमौसम बारिश ने सबके तन को भी भिगा ही दिया।