देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
देहधारी इस मनुष्य शरीर में जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है। ऐसे ही देहान्तर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता। गीता का यह श्लोक तो आप सभी ने सुना ही होगा। पर शायद यह हमारी सिनेमा इंडस्ट्री को शायद खूब भाता है। इसलिए ही तो ‘मेरा नाम जोकर’ में राज कपूर कहते हैं।
ये सर्कस है
और सर्कस है शो तीन घंटे का
पहला घण्टा बचपन
दूसरा जवानी
तीसरा बुढापा।
इस तरह भारतीय सिनेमा में अब तक हर रंग रूप से हमें रूबरू करवा दिया है। जिसमें बच्चों युवाओं, बुजुगों, प्रेमियों, नवविवाहितों तलाकशुदा सभी के लिए कुछ न कुछ जरूर है। और इन सभी में फलों के राजा आम की तरह व्रत के महाराज हैं ‘करवा चौथ’। जिसमें पत्नियाँ अपने-अपने पति की लंबी उम्र की कामना करते हुए निर्जला रहती हैं।
फिल्मों में इस त्यौहार की बात करें तो प्राचीन, पुरातन परम्परा से निकले इस यौहार में यूँ तो सबसे पहले ‘साहिर लुधियानवी’ के लिखे गीत ‘आज है करवा चौथ’ को ‘आशा भोसले’ की आवाज में हमने 70 एम एम के स्क्रीन पर देखा था। वह साल था 1965 जब ‘टी प्रकाश राव’ निर्देशित बहु-बेटी फिल्म में हमने करवा चौथ के बहुरंगी दर्शन किए।
इसके बहुत बाद साल 1995 में आई ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे।’ जिसमें आदित्य चोपड़ा के निर्देशन में तैयार हुई राज और सिमरन की जोड़ी। इस जोड़ी ने देश के लिए और कुछ भले किया हो या नहीं लेकिन एक तो हजारों नाम के राज और सिमरन पैदा कर दिए। दूसरा प्रेमियों की एक अलग जमात भी पैदा की। और सुहागिनों के इस सबसे बड़े त्यौहार करवा चौथ का आज दिन है तो लाजमी है ऐसे में उन बॉलीवुड फिल्मों का जिक्र होना जिन्होंने इसे लोक और समाज की गलियों से निकालकर देश-विदेश के हर कोने तक पसंदीदा बना दिया।
यूँ भी हमारा भारत तीज-त्यौहारों से लदा-फदा देश है। अक्टूबर-नवम्बर पूरे दो महीने तो खास करके इस आनंद को दो गुना-चार गुना कर देते हैं। ये फ़िल्मी पर्दे पर ‘करवा चौथ’ मनाने के मामले में सलमान खान और ऐश्वर्या राय भी पीछे नहीं रहे। टाइगर और बॉलीवुड के ‘सुलतान’ ने असल जिंदगी में भले किसी के लिए व्रत रखा हो या नहीं रखा हो। परन्तु ‘हम दिल दे चुके सनम’ में उन्होंने इसे बखूबी निभाया है। पति-पत्नी के बीच प्रेम को बढ़ाने वाले इस दिन ने आज के तथाकथित प्रेमी प्रेमिकाओं को भी अपने आकर्षण की आगोश में लिया है। ‘जय कृष्ण राय तुषार’ ने ‘करवा चौथ’ पर लिखा था कहीं
आज करवा चौथ का दिन है
आज हम तुमको संवारेंगे देख लेना
तुम गगन का चाँद
मगर हम तुमको निहारेंगे।
इसी का भरपूर फायदा उठाते हुए साल 2003 में निर्देशक ‘केन घोष’ ने ‘इश्क़-विश्क’ में ‘अमृता राव’ और ‘शाहिद कपूर’को साथ में लेकर लव-रोमांस और करवा चौथ को दिखाया था। जिसने युवाओं को खासा प्रभावित भी किया।
इस व्रत के मामले में पर्दे पर हमारी सदी के महानायक ‘अमिताभ बच्चन’ को ‘बाबुल’ फिल्म में सलमान खान के साथ और अपनी-अपनी बीवियों के साथ बैठकर सरगी खाते हुए भी देखा गया। तो वहीं ‘कभी खुशी कभी गम’, ‘बागबान’, “यस बॉस’, ‘मांग भरो’, ‘भरी बीवी नंबर 1’ , ‘जुदाई’ , ‘जहर’ , ‘सजना’ , ‘बीवी हो तो ऐसी’ जैसी पुरानी फिल्मों में करवा चौथ दिखा तो वहीं कुछ समय पहले ही आई रिलीज ‘कपिल शर्मा’ की फिल्म ‘किस किस को प्यार करूँ’ में भी एक लड़के के लिए तीन-तीन औरतें करवा चौथ का व्रत रखते हुए दिखाई दी।
यूँ अगर देखा अपने जीवन साथी की लम्बी उम्र और बेहतर स्वास्थ्य के लिए पूरे दिन भूखी प्यासी रहने वाली औरतों की औसत उम्र पुरुषों से कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है। यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह महिलाओं के लिए ही स्वास्थ्यकारी और फायदेमंद हुआ। लेकिन भारतीय फिल्मों में खास करके डी.डी.एल.जे. ने इस युवा पीढ़ी को इतना प्रभावित किया कि कुछ-कुछ लड़कों ने भी करवा चौथ रखने शुरू किए। इस अकेली फिल्म ने 41 वें और 43 वें दोनों नेशनल फिल्म अवार्ड को अपने नाम किया था। साथ ही इसने भारतीयों को एक विस्तृत बाजार भी दिया। इस बाजार को रीतिकालीन साहित्य में इस प्रकार केशवदास ने व्याख्यायित किया कि वह आज भी नायिकाओं और साहित्य पर भी बखूबी फिट बैठता है।
जदपि सुजाति सुलच्छनी सुवरन सरस सुवृत।
भूषण बिनु न बिराजई कविता बनिता मित्त ॥
वैसे भी करवा चौथ है तो फ़िल्म हिट है। जैसी मानसिकता और फ़िल्मी फार्मूले और भी कई तरह के देखने को मिलते हैं सिनेमा में। मसलन देश भक्ति ही ले लीजिए या आज के समय में बॉयोपिक का बढ़ता चलन। ये मानसिकताएं जितनी फिल्म बनाने वालों की रही हैं। उतनी ही उसे देखने वालों की भी। सजी-धजी महिलाएं नव-ब्याहताएँ, बहुएं हँसी-ठठोली गाना, पूजा मेकअप और न जाने क्या-क्या लक दक।
करवा चौथ विवाहित महिलाओं का राष्ट्रीय पर्व है तो ठीक वैसे ही ‘वैलेंटाइन डे’ कुंवारों की आखातीज के समान कही जाती है हमारे भारतीय समाज में। यही असर है भारतीय फिल्मों का कि जहाँ कहीं यह त्यौहार नहीं बनाया जाता था वहाँ भी मनाया जाने लगा। अब यह लोक परम्परा के पिंजरे तोड़ युवा पीढ़ी के लिए फैशन और स्टेट्स सिम्बल बन गया है। आलम यह है कि इसके लिए प्री मेकअप, एडवांस बुकिंग आदि न जाने क्या-क्या तमाशे होने लगे हैं। परम्पराओं में नवीनता का मसाला मिला दिया जाए तो तैयार होती है ये आधुनिकताएँ। मगर ऐसा होने से इसके साथ ही संवेदनहीनता होने का भय भी उतना ही बना रहता है। इस भय और जुगुप्सा से निकली एक कविता है।
ए चाँद तुम जल्दी से आ जाना
भूखी प्यासी में दिनभर की बेकरार
छलनी से करूंगी साजन का दीदार
पिया मिलन में देर न लगा जाना।