कांतारा का मतलब है ‘रहस्यमयी, भयानक जंगल’ और इसी के मुताबिक ही इस फिल्म की कहानी भी है। कर्नाटक का एक इलाका जहां के लोगों का मानना है कि जंगल पर पहला हक तो उन्हीं का है-चाहे ज़मीन हो, लकड़ी या पौधे-पत्ते इत्यादि। कन्नड़ भाषा में रिलीज़ होने के बाद दो हफ्ते में दर्शकों की डिमांड पर हिन्दी में डब होकर आने वाली किसी फिल्म की यह पहली जीती जागती मिसाल है। ज़ाहिर है इसमें दम था इसीलिए दर्शक इसकी तरफ खिंचे चले आये।
जंगल के देवता को कर्नाटक में कांतारे कहा जाता है। कर्नाटक में जंगल के इस देवता की बहुत मान्यता है और इनकी वेषभूषा में लोकनर्तक अपना नृत्य पेश करते हैं। ऋषभ शेट्टी ने इसी कांतारा पर एक ऐसी फिल्म बनायी है जो कन्नड के अलावा दूसरी भाषाओं में भी चर्चा का विषय बनी। 30 सितंबर को कन्नड़ में और उसके बाद 14 अक्टूबर को हिन्दी में रिलीज होने वाली इस फिल्म को लेकर दर्शकों और आलोचकों में ऐसा उत्साह रहा कि 30 सितंबर को रिलीज हुई कांतारा को अब तक आईएमबीडी पर सबसे ज्यादा 9.4 रेटिंग मिली है। लम्बे समय बाद पिछले 60 दिनों से सिनेमाघरों में टिकी रहने वाली, 400 करोड़ से ऊपर की कमाई करने वाली फिल्म बनी है।
ऐसे में कांतारा के संगीत से लेकर उसकी अदाकारी, निर्देशन, कहानी, सब पर बात हो रही है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि एक के बाद एक फ्लॉप फिल्में देने वाले हिंदी फिल्म उद्योग को किसी और भाषा में बनी फिल्म का सिर्फ हिंदी संवादों के साथ आने पर सफल हो जाना तो हजम ही नहीं होगा। साथ ही फिल्म के शहरी अभिजात्य वर्ग को ‘कल्चर शॉक’ भी लगा होगा। इसीलिए बहुतेरे समीक्षकों ने इसे लाउड फिल्म भी कहा।
फिल्म नायक और दूसरे कलाकारों पर देव के आने के जिन दृश्यों को दिखाती है, उनमें चीखने की आवाजें भी हैं। जिसमें कुछ विदेशी वाद्य यंत्रों का भी ‘अजनीश लोकनाथ’ ने बेहतरीन प्रयोग किया है। वहीं दूसरी ओर जब बाकी चरित्रों पर नजर जाती है तो वो ग्रामीण लोग और फिल्म के कई हिस्सों में नायिका का बिना मेकअप के दिखना, इसकी लोकेशन, कैमरा एंगल, प्रोडक्शन डिज़ाइनिंग, सिनेमैटोग्राफी सब इसे उस मुकाम पर ले जाने में कामयाब हुए हैं जिसकी यह हकदार थी। फिल्म का हिंदी वर्जन में गीत-संगीत औसत है लेकिन बैकग्राउंड म्यूज़िक बेहतरीन है जो दर्शकों को इस रहस्यमयी, भयानक जंगल से बाहर नहीं आने देता।
यही वजह है कि छोटे शहरों तक के सिनेमाघरों में इस फिल्म का लगना और अच्छा प्रदर्शन करना कहीं न कहीं इस बात को भी दर्शाता है कि मनोज कुमार वाली फिल्मों के दौर में जो दिखता था, वह दौर अभी पूरी तरह गया नहीं है। एक बात तो इस फिल्म को देखने के बाद तय है कि आखिर दर्शक क्या देखना चाहते हैं लेकिन उसे पहचानने में हिंदी फ़िल्म बनाने वालों से भूल हो रही है। फिल्म जिस धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं के साथ असली भारत को जीती है, शायद उसे देखने की एक नयी दृष्टि भी इसके बाद मिलेगी।
कांतारा के निर्देशक ‘ऋषभ शेट्टी’ ने एक समय बॉलीवुड के द्वारा नजरअंदाज किये जाने के बाद इस फिल्म के कलाकारों खुद ऋषभ शेट्टी, किशोर, अच्युत कुमार, सप्तमी गौड़ा, प्रमोद शेट्टी और मानसी सुधीर के साथ यह फिल्म बनाई है उससे बॉलीवुड वालों को भी अब पछतावा हो रहा होगा। इस फिल्म का निर्माण होम्बाले फिल्म्स ने किया है जिन्होंने केजीएफ बनाई थी। फिल्म में एक्शन, रोमांच, विश्वास और पौराणिक कथाएं एक साथ दिखती हैं। यह हाल के समय में किसी भारतीय फिल्ममेकर द्वारा की गई बेहतरीन कोशिशों में से एक है। ऐसा अक्सर कहा, सुना जाता रहा है कि भारतीय सिनेमा अपनी जड़ें भूलता जा रहा है क्योंकि इतनी विविधिताओं वाले देश में कहानियों का खजाना छुपा है। इसलिए भी ‘कांतारा’ में एक अच्छा कहानीकार फिल्म निर्माण के ज्ञान और तकनीकी कौशल के साथ जमीन से जुड़ी कहानी को बताता है।
कांतारा’ की कहानी एक छोटे से गांव की है जिसमें कर्नाटक के तटीय इलाकों की संस्कृति और पौराणिक कथाओं को सहजता और सरलता के साथ बुना गया है। फिल्म की कहानी दक्षिण कर्नाटक के एक गांव की है जहां एक राजा ने 150 साल पहले गांव वालों को जमीन दी थी। फिर आता है साल 1990, जहां फिल्म की कहानी सेट है। एक ईमानदार वन अधिकारी (किशोर) उस जमीन में पेड़ों की कटाई और शिकार को रोकने की कोशिश कर रहा है जो अब एक रिजर्व जंगल है। मामला तब मुश्किल भरा हो जाता है क्योंकि ग्रामीणों का मानना है कि जंगल उनके देवी देवताओं से वरदान के रूप में मिला है। जंगल के देवता रक्षक हैं इसलिए वह बाहरी व्यक्ति की बात सुनने के मूड में नहीं हैं। इसके खिलाफ गांव का ताकतवर शिव (ऋषभ शेट्टी) खड़ा होता है। उसे राजा के वंशज गांव के साहब (अच्युत कुमार) का समर्थन प्राप्त है। फिल्म में सरकार की तरफ का भी एक नजरिया है जिसमें एक पुलिस इंस्पेक्टर मुरली का किरदार है जो शुरू में भ्रष्ट इंस्पेक्टर दिखता है। गाँव वालों पर अपनी धौंस जमाने की कोशिश करता है।
फिल्म में अरविंद कश्यप की खूबसूरत सिनेमैटोग्राफी है। उन्होंने जिस तरह से अपने लेंस से ‘कांतारा’ में लोककथाओं को जीवंत किया है उससे किसी भी स्टोरीटेलर को सीखना चाहिए। फिल्म में बैकग्राउंड स्कोर और म्यूजिक का कैमरा वर्क से इतना सही तालमेल बैठता है कि वो तारीफ के काबिल बन जाता है। शिव के रूप में ऋषभ के अभिनय की जितनी तारीफ की जाए कम है। उनका डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले स्क्रीन पर जादुई रंग बिखेरता है। करीब ढाई घंटे की फिल्म कभी भी कमजोर पड़ती नहीं दिखती। फिल्म में स्थानीय उत्सव और रीति-रिवाजों को रंगीन, ग्लैमरस तरीके से पर्दे पर उतारा गया है। क्लाइमेक्स, पूरी तरह से मसाला भारतीय फिल्म की पेशकश होने के साथ-साथ फिल्म को दूसरे स्तर पर ले जाता है।
अभिनेता-फिल्म निर्माता ऋषभ शेट्टी का तटीय कर्नाटक की संस्कृति और परंपराओं का प्रतिनिधित्व, विशेष रूप से देवताओं के प्रति श्रद्धा रखने की प्रथा, दुनिया भर में अपने आधिकारिक कन्नड़ संस्करण (अंग्रेजी उपशीर्षक के साथ) में रिलीज होने के बाद से बॉक्स ऑफिस पर जो आग लगाई है वह लम्बे समय तक जेहन में टिकने वाली है। कन्नड़ सिनेमा को सबसे पहले हिंदी में अपनी ताकत का एहसास फिल्म ‘केजीएफ’ से हुआ। वहीं इसी साल रिलीज हुई ‘केजीएफ-2’ 400 करोड़ से ज्यादा की कमाई कर कोरोना के बाद हिंदी में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन गई है। लेकिन कन्नड़ से हिंदी में डब की गई फिल्मों की सफलता यहाँ आकर रुकी नहीं है।
फिल्म के एक्शन सीक्वेंस बहुत खूबसूरत हैं और दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके विक्रम मोर ने इसे कोरियोग्राफ किया है। बहुत समृद्ध संस्कृति और विरासत को दर्शाया गया है। जिसमें रंगीन क्लोज-अप हैं और एक अद्भुत दृश्य का अनुभव प्रदान करने की हिम्मत। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं, जिनमें रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इंटरवल के बाद कहानी में दिलचस्प मोड़ आता है और क्लाइमेक्स आपको हैरान करता है। इसी के साथ फिल्म के अंत में सीक्वल की गुंजाइश भी बनी, बची है।
जाते जाते बताते चलूँ कि हिंदी साहित्य में तुलसीदास ने भी विनयपत्रिका में कांतार के विषय में विस्तार से लिखा है। जो भारत की बहुप्रचलित दंत कथाओं में से एक है और यह फिल्म भी उन्हीं दंत कथाओं से निकलकर आई है। उन्हीं दंत कथाओं में से फिल्म में ‘भूता कोला’ प्रथा दिखाई गई है। फिल्म की कहानी में भी ऐसे ही एक देवता है जिनका नाम पंजुरली है जो एक जंगली सूंअर का रुप है। इस रुप को विष्णु के वारह अवतार से भी जोड़ा जाता है। इस फिल्म की कहानी में इतना सब है कि इसमें से कई कहानी को मोड़ कर निकाला जा सकता है यही कारण है कि इसकी कहानी में विस्तार है और गहराई भी।
यही वजह है कि फिल्म ‘कांतारा’ के जंगल के भयानक संसार को देखते रहने की इच्छा बनी रहती है साथ ही बतौर एक्टर, डायरेक्टर ऋषभ के लिए एक सबसे सटीक शब्द देती है – अद्भुत!