कोई भी हारने के लिए मैदान में नहीं उतरता। जीत सभी को अच्छी लगती है और हार भीतर तक निराशा से भर देती है। विशेष तौर पर वह पराजय, जहाँ आप कल्पना भी नहीं कर सकते! अतः अयोध्या में अप्रत्याशित हार पर, संबंधित दल के समर्थकों में तिलमिलाहट होना तो स्वाभाविक है पर उनकी बदली हुई भाषा और अपशब्दों से भरी टिप्पणियाँ देखकर दुख होता है। ‘धोखा, विश्वासघात, भुगतेंगे, ये इसी लायक हैं, खुदगर्ज़ कहीं के, धिक्कार है!’ जैसे वाक्यांशों से सोशल मीडिया पटा पड़ा है। और इस बार नेता तो फिर भी चुप हैं, आम समर्थक जैसे बौरा ही गए हैं।
लिखने वालों की प्रतिक्रिया ऐसी है जैसे कि वहाँ किसी विदेशी या देश के दुश्मन ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया हो और अब इस देश को कोई नहीं बचा सकता! क्या है ये सब? अब अयोध्या अपनी नहीं रही? एक ही झटके में अयोध्यावासियों को पराया कर दिया? और कारण? क्योंकि आपका प्रिय उम्मीदवार वहाँ पराजित हो गया! इतनी नकारात्मकता! वह भी प्रभु श्रीराम की नगरी के प्रति?
क्या हम नहीं समझते कि जो हुआ वह लोकतांत्रिक चुनावी रणभूमि की सामान्य प्रक्रिया है कि एक हारा, एक जीता! एक भारतीय ने दूसरे भारतीय को हराकर वह सीट जीत ली। इसमें नया क्या है? पता है, ‘नया’ वह दंभ है जो कुछ लोगों की निम्न मानसिकता का पर्दाफाश कर रहा है। उन्हें लगता है कि चूँकि वहाँ राम मंदिर बना तो अब वह स्थान किसी की जागीर ही हो गया और वहाँ के निवासी सदैव उसके ऋणी! क़माल है एक तरफ़ तो गुलामी से निकलने की बात करते हैं और दूसरी तरफ़ खुद किसी शहर की जनता को अपना गुलाम समझने की सोच दबाए बैठे हैं। जैसे राम सबके आराध्य हैं, ठीक वैसे ही राम मंदिर, सबका है। हार गए तो लगे अयोध्यावासियों पर बरसने! अपनी भाषा तो संयमित रखिए।
कुछ माह पहले जहाँ पूरा देश जाने को मचल रहा था और जहाँ के निवासियों ने उनके आतिथ्य भाव में कोई कमी न आने दी, पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ मूर्ति स्थापना में अपना योगदान दिया, वही अयोध्या निवासी अचानक दुश्मन हो गए? क्या ही ग़ज़ब सोच है भई! कि अब वहाँ के लोगों के आर्थिक बहिष्कार के लिए धड़ाधड़ पोस्ट लिखीं जा रहीं। क्या अयोध्या मंदिर निर्माण एक राजनीतिक मुद्दा था? उसका हमारी संस्कृति से कोई सरोकार नहीं? कल तक जहाँ का जयघोष हुआ करता था, अब वहीं के व्यापारियों को हानि पहुंचाने की बातें होने लगीं। यह सोच ही दर्शाती है कि कुछ लोगों की आस्था महज एक दिखावा है!
यह मानसिकता और व्यवहार इस ओर भी इंगित कर रहा कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों और मूल्यों से इनका कोई सरोकार ही न रहा या शायद कभी भी नहीं था। क्योंकि बुरा लिखने-बोलने वालों के वक्तव्यों में घृणा ही नज़र आती है। वहाँ न धैर्य है, न संयम और न ही भाषा की मर्यादा कहीं परिलक्षित होती है, शालीनता की अपेक्षा करना तो खैर निरर्थक ही है। राम भक्त ऐसे तो नहीं हो सकते कि हार होते ही ‘जय श्रीराम’ बोलना भूल जाएं और लगें बड़बड़ाने! राम के आदर्श तो यह क़तई नहीं सिखाते! उनकी जिस मनमोहक मुस्कान ने जग जीत लिया, वह उनके भक्तों के मुखमंडल से कहाँ विलुप्त हो चुकी है? राम की आराधना तो सहृदयता सिखाती है, उसमें कठोरता का कोई स्थान ही नहीं। राम को पूजने वाले, इतने निर्मम शब्द कैसे लिख सकते हैं? या फिर उनकी भक्ति महज चुनावी थी? परिणाम प्रतिकूल आया तो बौखला गए!
कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो हम देश के विकास और साथ चलने की बात करते हैं और दूसरी तरफ़ एक असफलता भी नहीं पचा पाते और भीतर का सारा ज़हर उगल परस्पर विद्वेष भाव रखते हैं। निष्ठा देश और समाज के प्रति होनी चाहिए न कि व्यक्तिपरक। धर्मांधता ही हमें एक दूसरे का शत्रु बना देती है। अभी तक हिंदू-मुसलमान की चर्चा होती थी, इस बार हिंदू ही अन्य हिंदुओं को कोस रहे!
हमें हमारे रोल मॉडल चुनते समय यह तथ्य मस्तिष्क में भीतर तक बिठा लेना चाहिए कि आत्ममुग्धता, अहंकार, अति आत्मविश्वास में डूबा व्यक्ति कभी सत्य को सहजता से स्वीकार नहीं कर सकता! वह केवल दोषारोपण और विध्वंस की बात ही करेगा। जब तक हम मानवता का पाठ नहीं सीख पाते, राम के आदर्शों को आत्मसात नहीं कर पाते, तब तक राम राज्य की कल्पना भी बेमानी लगती है। जो लोग मर्यादा छोड़ देंगे, मर्यादा पुरुषोत्तम उनका साथ कैसे देंगे? राममय होने की पहली शर्त ही सहनशील, धैर्यवान होना है।
तात्पर्य यह कि पहले मनुष्य, मनुष्य से प्रेम करना तो सीख जाए, अपनी प्राथमिकता और व्यावहारिक शिष्टता तो निर्धारित करे, स्वयं एक उत्तम उदाहरण तो प्रस्तुत करे, उसके पश्चात ही वह दूसरे पक्ष पर प्रश्नचिह्न उठाए! श्रीराम तो सदा ही कृपालु रहे हैं, पर इस कृपादृष्टि के योग्य भी तो बनना होगा जो कि उनके स्थापित मूल्यों और संस्कारों की अवहेलना कर तो कभी नहीं बना जा सकता!
अयोध्या वालों को क्रोध में फैज़ाबादी पुकारना और उनके प्रति अपशब्द का प्रयोग भी यही बताता है कि युग बदले; पर कुछ लोगों की मानसिकता रत्ती भर भी नहीं बदली! इन्हें चुनावी दलदल में कूदकर केवल कीचड़ उछालना ही आता है। काव्य रचे जा रहे कि ‘राम दोबारा मत आना!’ अरे, आप होते कौन हैं, यह तय करने वाले? वह राम जो हमारी संस्कृति के कण कण में विद्यमान हैं, जो युगों से जनमानस में रचे बसे हैं आप निर्लज्जता से अब उन्हें, उस परम पिता परमेश्वर को भी सलाह देंगे कि मत आना? मतलब कि अब ईश्वर को भी आपके हिसाब से चलना होगा?
कुछ लोग क्यों नहीं समझते कि राम में आस्था और उनके नाम पर राजनीति दो पृथक् बातें हैं। अब प्रभु राम ही से प्रार्थना है कि इन्हें सद्बुद्धि दें और इनकी सोच परिष्कृत करे। राम विशाल हृदय के स्वामी हैं, उन्हें क्षमा करना भी आता है।