“मोको कहाँ ढूंढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में / ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में / ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काशी कैलाश में / खोजी होए तुरत मिल जाऊं एक पल की ही तलाश में / कहे कबीर सुनो भाई साधो, मैं तो हूँ विशवास में”
कबीर दास जी के अनुसार ईश्वर किसी नियत स्थान पर ही नहीं रहता, वह तो सृष्टि के कण-कण मे व्याप्त है। कबीर दास जी के भगवान कहते हैं– ऐ मेरे भक्तों! तुम मुझे ढूँढ़ने के लिए कहाँ कहाँ भटक रहे हो। मैं तुम्हें किसी देवाल (मंदिर) या मस्जिद में नहीं मिलूँगा। ना ही तथाकथित काबा या कैलास जैसे तीर्थ-स्थलों में ही मुझे ढूंढ पाओगे। मैं तुम्हें आडंबरों या दिखावों से कभी प्राप्त नहीं होऊँगा। यदि मुझे खोजने वाला हो और सच्चे मन एवं पवित्र भाव से खोजे तो मैं उसे पल भर में मिल जाऊँगा क्योंकि मैं कहीं बाहर नहीं बल्कि तुम्हरे अन्दर ही मौज़ूद हूँ। कबीर कहते हैं– हे साधुजनों! ऐ अल्लाह के बन्दों ईश्वर हमारी साँसों में समाया हुआ है। अत: अपनी आत्मा में ढूँढ़ो। अपनी आत्मा को जान लिए तो ईश्वर को जान जाओगे।
भारत का आध्यात्मिक परिदृश्य सदियों से समृद्ध रहा है, जिसमें असंख्य संतों और ऋषियों ने इसके आध्यात्मिक और नैतिक ढांचे को मजबूत किया है। परंपरागत रूप से, ये आध्यात्मिक गुरु सादा जीवन व्यतीत करते थे, ध्यान, साधना और समाज के कल्याण के लिए स्वयं को समर्पित कर देते थे। हालांकि, आधुनिक युग में गुरुओं की उपस्थिति में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है।
20वीं और 21वीं सदी में स्वयंभू बाबाओं की संख्या में नाटकीय रूप से वृद्धि देखी गई है। ये व्यक्ति, जो अक्सर भगवा वस्त्र धारण करते हैं और करिश्माई व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं, अलौकिक शक्तियों का दावा करते हैं और चमत्कारी उपचार से लेकर तत्काल समृद्धि तक सब कुछ प्रदान करने का वादा करते हैं। उनका आकर्षण बलशाली है और समाज के सभी वर्गों से लाखों अनुयायियों को अपनी ओर खींचता है।
भले ही कई प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु सामाजिक क्षेत्र में सकारात्मक योगदान देना जारी रखते हैं, धर्मगुरु वेशधारी धोखेबाजों के उदय ने संपूर्ण आध्यात्मिक समुदाय की प्रतिष्ठा को धूमिल किया है। ये पाखंडी व्यक्तिगत लाभ के लिए लोगों की आस्था और संवेदनशीलता का शिकार करते हैं। वित्तीय घोटालों, यौन शोषण और ऐसे ही व्यक्तियों से जुड़ी अन्य आपराधिक गतिविधियों के बारे में खबरें चिंताजनक रूप से आम हैं।
इनमें से एक सर्वाधिक कुख्यात मामला गुरमीत राम रहीम सिंह का था, जो डेरा सच्चा सौदा संप्रदाय के प्रमुख थे। बलात्कार और हत्या के आरोप में दोषी सिद्ध होने पर उनके मामले ने इन तथाकथित आध्यात्मिक संगठनों के घिनौने यथार्थ को उजागर कर दिया। इसी प्रकार, कभी पूजनीय माने जाने वाले आसाराम बापू को यौन उत्पीड़न का दोषी ठहराया गया, जिसने आध्यात्मिक आड़ में किए जाने वाले शोषण की व्यापकता को सामने ला दिया।
निजी संकट, बीमारी या आर्थिक चुनौतियों का सामना करते समय, व्यक्ति अक्सर आध्यात्मिक मार्गदर्शन की ओर रुख करते हैं। ऐसे समय में, धोखेबाज बाबा त्वरित समाधान और चमत्कारी हस्तक्षेप का वादा करके फायदा उठाते हैं। उनके करिश्माई व्यक्तित्व और आशा जगाने की क्षमता के कारण उन्हें अनुयायी बनाने में आसानी होती है।
हालांकि, समस्या यहीं खत्म नहीं होती। ये तथाकथित आध्यात्मिक गुरु एक मजबूत सामुदायिक भाव स्थापित करते हैं, जो अनुयायियों को अपने नेता पर सवाल उठाने से हतोत्साहित करता है। यही अंधभक्ति शोषण और दुरुपयोग का कारण बनती है, क्योंकि भक्त अपने गुरु के किसी भी गलत काम को नजरअंदाज कर देते हैं, या उसे तर्कसंगत ठहराने का प्रयास करते हैं।
लोग पूजा-पाठ के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च अथवा अन्य धार्मिक स्थानों पर जाते हैं। उनकी इसी आस्था के कारण जगह-जगह पर अनेक धार्मिक स्थल मिल जाएंगे। चाहे कई-कई कोस तक कोई अस्पताल या स्कूल न हो, लेकिन कोई न कोई देवालय अवश्य ही मिल जाएगा। चाहे घर छोटा ही क्यों न हो, श्रद्धालु लोग अपने छोटे-छोटे घरों में भी कोई एक कोना पूजा-पाठ के लिए नियत कर लेते हैं। मूर्तियों को रखने के लिए जगह की कमी हो, तो एक दीवार पर कैलेंडर टांग कर उसी से मंदिर का काम ले लेते हैं।
कुछ अमीर लोग घर के अहाते में अलग से पूरा मंदिर बनवाते हैं और उसमें सुंदर मूर्तियां भी स्थापित करवाते हैं। अपने देश में तो कई सरकारी कार्यालयों के परिसर में भी मंदिर बने देखे जा सकते हैं, जहां विशेष अवसरों पर भजन-कीर्तन और भंडारे का आयोजन होता है। बड़े-बड़े शहरों और महानगरों के उपासना-गृहों के तो क्या कहने! एक से बढ़ कर एक विशाल एवं भव्य भवन तथा कीमती पत्थरों से निर्मित व हीरे-मोतियों से जड़ित नयनाभिराम मूर्तियां।
प्रश्न उठता है कि क्या पूजा-पाठ अथवा इबादत के लिए विशाल भव्य मंदिर व आकर्षक मूर्तियां अथवा अन्य पूजा-स्थल जरूरी हैं? मंदिर एक पावन स्थल माना जाता है, इसमें संदेह नहीं। लेकिन मंदिर को यह पावनता कौन प्रदान करता है? यह श्रद्धालुओं की भावना ही तो है, जो किसी पूजा-स्थल अथवा इबादतगाह को पवित्रता का दर्जा देती है।
यदि भावना शुद्ध हो तो ईंट-पत्थरों से बने निर्जीव ढांचे की क्या जरूरत है? वास्तव में कोई व्यक्ति शुद्ध भावना से जहां भी रहेगा, वही स्थल मंदिर की तरह हो जाएगा। जिस घर में सभी सदस्य शुद्ध भावना से निवास करेंगे, वह घर मंदिर सदृश हो जाएगा। मंदिर अथवा पूजा स्थल साधन हैं शुद्ध भावना विकसित करने के, साध्य नहीं।
गृह, मकान, सदन, निकेत, भवन, प्रासाद, मंदिर आदि सभी शब्द घर के पर्यायवाची हैं। ये सभी शब्द कमोबेश मंदिर या पूजा-स्थल के भी पर्यायवाची हैं। हमारा घर किसी मंदिर से कम नहीं होता, लेकिन ईंट-गारे अथवा संगमरमर से निर्मित कोई मकान अथवा भव्य प्रासाद भी वास्तव में घर नहीं कहला सकता, जब तक कि उस स्थान पर रहने वालों के बीच सामंजस्य न हो। इस सामंजस्य का निर्माण कौन करता है?
इस सामंजस्य का निर्माण करती है घर में रहने वाले सदस्यों की भावना, उनका प्रेम। साथ रहने वालों में सहयोग की भावना, उनका निश्छल प्रेम। एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव सिर्फ आलीशान कोठियों को ही नहीं, झोंपडि़यों को भी घर बनाए रखता है। ऐसे ही किसी भी घर को मंदिर बनाया जा सकता है।
जब ईंट-गारे अथवा संगमरमर से निर्मित कोई मकान अथवा भवन घर नहीं हो सकता, तो मंदिर भी नहीं हो सकता। सात्विक भावों की सृष्टि ही किसी भवन को घर अथवा मंदिर या पूजा-स्थल बनाती है। कुछ लोग घर पर असहाय बूढ़े-बीमार माता-पिता को अकेला छोड़ कर पूजा-पाठ, सत्संग-साधना और तीर्थ-यात्रा में लग जाते हैं। ऐसी पूजा, सत्संग और तीर्थ यात्रा मात्र आडंबर है, अधार्मिकता है।
उस घर से बड़ा कोई मंदिर नहीं, जहां संबंधों की गरिमा को महत्व दिया जाता हो। वास्तविक धर्म का पालन चार धाम की यात्रा में नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य के पालन तथा घर को मंदिर सदृश बनाने में ही है। और घर को यदि सचमुच मंदिर बनाना हो तो पहले मन को मंदिर बनाना होगा।
मन को मंदिर बनाने का अर्थ है उसे मंदिर की तरह पवित्र बनाना, उसे विकारों से रहित करना। मन मंदिर बनने के बाद किसी स्थूल मंदिर की आवश्यकता ही नहीं रहती, क्योंकि जिसका मन मंदिर हो गया, उसके लिए यह सारा ब्रह्मांड एक मंदिर हो जाता है। और इस में उपस्थित प्राणियों की सेवा व उनसे प्रेम करना उसका धर्म।
आज की गतिशील, भौतिकवादी दुनिया में कबीर की शिक्षाएं पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। बाह्य उपलब्धियों और भौतिक संपदाओं के पीछे निरंतर दौड़ भाग करने से अक्सर निराशा और मोहभंग ही हाथ लगता है। कबीर का संदेश हमें स्मरण कराता है कि सच्ची प्रसन्नता और आध्यात्मिक पूर्णता आंतरिक जगत से ही प्राप्त होती है। उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करने से व्यक्ति आंतरिक शांति और दिव्य शक्ति के साथ गहन संबंध स्थापित कर सकता है, जो जीवन को अधिक सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बनाता है।
कबीर का यह कालातीत संदेश कि ईश्वर हमारे अंतर में विद्यमान है, हमारे दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का आह्वान करता है। यह हमें बाहरी आडंबरों और मतों से परे जाने और आत्म-अन्वेषण एवं आध्यात्मिक जागरण की आंतरिक यात्रा आरंभ करने के लिए प्रेरित करता है। अपने भीतर दिव्य सत्ता को स्वीकार करने से हम एकता, प्रेम और पूर्णता की गहिर अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं। कबीर की शिक्षाएं सत्य की खोज करने वालों को निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करती हैं, यह हमें स्मरण कराती हैं कि हम जिन उत्तरों को खोज रहे हैं वे हमारे बाहर नहीं अपितु हमारे अपने हृदय और आत्मा के भीतर विद्यमान हैं।