यह तो सच है कि जब हम गिल्टी होते हैं तो बहुत ही भावुक हो जाते है और आदर्शवादी नागरिक, या नेचर फ्रेंडली या फिर कहे तो पेट फ्रेंडली भी हो जाते हैं कभी कभी। अपने से छोटे या बड़ों के लिए बहुत ही आदर्शवादी व्यवहार में तब्दील हो जाती हैं हमारी सोच। कुछ ही पलों में हम थोड़ा या ज्यादा ही बहाव में बह जाते हें।
हमें लगने लगता है कि हम स्वभाव से सख्त हो रहे हैं, हमारी सोच कहाँ चली जा रही है। अगर कहीं गलती से कभी हमने काम समय पर नहीं किया या आलस में ही कहिए डाल दिया, तो फिर पछताने के लिए अपने को आलसी कहना और कामचोर कहना वगैरह–वगैरह. लेकिन इन सबके बीच में यह बात तो तय है कि इंसान को गलतियां करने का हक तो जरूर होना चाहिए। तभी तो गिल्टी फील करेगा जब गलती होगी तभी गलतियों का एहसास भी होगा और गलती नहीं होगी तो गिल्टी कैसे, अपनी गलती का एहसास कैसे होगा? फिर उसको सुधारने का क्या? ऐसा मेरा सोचना है, हो सकता है आपकी और मेरी सोच अलग अलग हो। क्यों सही फरमाया न!
गलतियों का सफर तो चलता ही रहना चाहिए न जीवन में, उसमें कभी कम कभी ज़्यादा। कभी बहाव में हम ज़्यादा बह जाते हैं,और बहुत दूर निकल जाते हैं, क्योंकि हमें अपने लोग जिनसे हम थोड़ा झगड़ा कर रहे थे या कभी थोड़ा झूठ बोल दिया हो या कोई भी झगड़े वाली बात. किसी से भी, हसबैंड, वाइफ, बच्चे कोई भी रिश्तेदार या जहां आप काम करते हों या फिर आप समझ लीजिए कि अगर हम सड़क में भी कभी किसी दुकानदार से या किसी से जरा सा भी ऊंची आवाज़ में बोले फिर हमें इस बात का एहसास बाद में होता है, तब हम सोचना शुरु कर देते हें। “अरे नहीं वो तो बड़े हैं, कोई बात नहीं उन्होंने अगर थोड़ा ज्यादा ही मुझे डांट दिया, मेरी भी गलती थी, मुझे थोड़ी देर रुक जाना चाहिए था, उनकी बात सुन लेनी चाहिए थी।” या फिर “कोई बात नहीं , अरे बच्चा है वो तो अभी।“ आप ऐसे सोचने लगते हैं। और फिर आप गिल्टी ट्रिप में चले जाते हैं। आपकी आंखें और भीगी पलकें कागज पर ज़ुल्म कर जाती हँ .अरे, भाई इतना तो अपको ख्याल रखना पड़ेगा। आखिर कागज है जिस पर आप अपने खयालात डालते जा रहे हो।
होता है ना अक्सर कि अगला आपकी बात समझ नहीं रहा या फिर समझना नहीं चाह रहा है। है छोटी सी बात बहुत बड़ी बन जाती है और फिर जब हम अकेले मे एकांत में बैठते हैं तब हमें सिर्फ अपनी ही गलती नजर आती है और हम अपने को ही गुनाहगार ठहराते हैं। लेकिन एक बात ये भी है कि, जब हम उनके सामने होते हैं तब हमारे अंदर का रावण तो राम बनने को तैयार ही नहीं होता, शांत बनकर भोलेनाथ बनने को तैयार ही नहीं। क्यों हम उनकी बात माने, वो कभी हमे नहीं समझेंगे। बस ऐसे ही दिमाग में ख्याल आते रहते हैं ।
यही जरा सा जो टर्निंग प्वाइंट है ये जो थोड़ा सा है, अहं और बर्दाश्त करने की सीमा है उनके बीच की बहुत थोड़ी सी एक लकीर होती है। बस वह थोड़ा सा सफर इस पार या उस पार। कुछ पल शांत रहकर किसी की बात को अगर समझ लें तो वह बाद में गिल्टी पछतावा या फिर बात बिगड़ने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, जनाब। लेकिन उस वक्त तो हम पर जो गुरूर का भूत सवार रहता है उसको कैसे भगाये, फिर बाद में पछतवा। भावनाओं की गहराइयों का एहसास होने लगता है। पर उससे फायदा क्या आपकी आंखों के नीचे का काजल तो अब तक बह चुका होता है जहां तक मोहतरमाओं का सवाल है, बहुत ही भावुक होती हें। फिर यही कहूंगी कि ये मेरा सोचना है आपकी सोच अलग हो सकती है। बस उसी वक्त जब एहसास होने लगता है कई बार ऐसा एहसास होता है कि आप मदद करना चाहते भी हैं, पर आपके हाथ बंधे होते हें। कई बार पछतावा इतना गहरा हो जाता है कि आप कुछ मदद नहीं कर पाते।
रोने के लिए हर बार कंधा नहीं चाहिए, किसी का हाथ रखना भी कई बार बहुत कुछ मदद करता है तनाव के समय में।
गलती हम सब से कभी ना कभी होती है। एक बात और इंसान को दिमाग में रखनी चाहिए कि कभी भी कोई भी खास इंसान जो हमें पसंद नहीं है तो हम उससे नाराज़ नहीं हो सकते। सिर्फ इसलिये कि हमें वो पसंद नही हम ऐसे लोगों को इग्नोर कर सक्ते हें लेकिन झगड़ नहीं सकते। हम सिर्फ इतना कर सकते हैं कि जब किसी से गलतफहमी होती है, हमसे बड़ा है या छोटा हमें पसंद है या नहीं, समय रहते उससे रिश्ते सुधार लें, बात कह कर सुलझाई जा सकती है।
तो जनाब सिर्फ एक हद तक समझाने या समझने के लिए अपनी बात को कहना तो जरूरी है ना। एक दूसरे से बात तो करनी ही पड़ेगी। चाहे आप किसी की बात से परेशान है या दूसरा आपकी बात से। आज के दौर में हम इतनी गहरी सोच या जज़्बात रखते ही नहीं शायद। या कह लीजिये वो संबंध आज रहे ही नहीं। न ही वह अहसास और न ही वो चोट पहुंचाने पर गिल्टी फील करने का पछतावा। कभी किसी बड़े ने ठीक ही कहा है कि मन को संभाल कर रखो, मन तो है ही चंचल। मन से उतरते देर नहीं लगती।
दरअसल रिश्तों की डोर होती ही है बहुत नाजुक, जिसे कसकर तो पकड़ा ही नहीं जा सकता, और हम सम्बन्ध छूट ना जाये इस डर के मारे डोर को कस के पकड़े रखते हें। कहीं ढील दे दी तो हमेशा के लिए रिश्ते से हाथ ना धो बैठें। बस इन्सान की सोच इन्हीं सब में उलझी रहती है।
लाज़मी सी बात है हर इंसान प्यार का भूखा होता है। कौन रिश्ते नहीं चाहता और कौन प्यार नहीं चाहता। पर क्या करें, बस थोड़ा सा अहंकार और थोड़ा सा स्वार्थ कभी–कभी हम पर भारी पड़ जाता है। बस वहीं हम मात खा जाते हैं और जब हमें एहसास होता है उस वक़्त तक डोर हमारे हाथ से छूट चुकी होती है। बस तब हमारी गिल्टी फीलिंग की जर्नी शुरु होती है, क्योंकि जिनसे हमारे रिश्ते थे उसने तो दूसरी यात्रा शुरू कर दी मतलब साफ है दोस्त, कि उसने नया रुख अपना लिया यानी कि अब आप दोनों के रास्ते अलग हो चुके हैं।
देखिए भगवान की बनाई गई हमारी खूबसूरत दुनिया में तरह तरह के लोग है और हम ये भी जानते हैं कि हर इंसान में कोई ना कोई खासियत होगी। उसी तरह हर इन्सान का स्वभाव भी अलग है, कोई जल्दी नाराज होता है तो कोई झट से मान जाता है अलग अलग स्वभाव अलग–अलग चेहरे। तो फिर अलग बुराइयां भी तो होगी ही। तो बस हमें ये बात दिमाग में रखनी चाहिए। पर क्या करें हमारा दिमाग है कि इधर उधर ही भागता रहता है।
उसने ऐसा कह दिया तो हम रूठ गए हमने ऐसा कह दिया तो उसने मुंह फुला लिया। ऐसे कैसे काम चलेगा और फिर उसके बाद मनाने का कार्यक्रम शुरू, नहीं तो फिर अंदर ही अंदर सोच विचार की क्रिया प्रक्रिया चालू। पर हम सभी जानते हैं कि यहीं पर एक छोटा सा शब्द काम आता है जो सारे रिश्तो को जोड़ने में मदद का या पुल का काम करता है। नहीं नहीं मैं ये नहीं कह रही कि हर बार सफलता ही मिलती है, पर कोशिश करने में क्या जाता है। हम ऐसे ही समय में एक छोटा सा शब्द सॉरी इस्तेमाल कर सकते हैं। आपको पूरी कथा थोड़ी ही लिखनी है बस एक छोटा सा शब्द है। और आजकल के जमाने में तो ये और भी आसान हो गया है आप मैसेज करिए बस अगला कितना भी नाराज होगा पर बातचीत तो आगे बढ़ेगी आपके एहसास को जज्बातों को समझाने के लिए पहला कदम तो लेना ही पड़ेगा। कई बार ऐसा भी होता है कि गलती आपकी नहीं होती है और आप इसी उधेड़बुन में लगे होते हो कि गलती तो मेरी है ही नहीं मैं क्यों सॉरी बोलूं ,पर जनाब अगला भी तो यही सोच रहा है। बस यही मौका है आप बड़े बन जाइए। देखिए, जनाब रिश्ता तो मीठे का शौकीन होता है, उसमें थोड़ी मिठास तो डालनी ही पड़ेगी। वह बात अलग है कि ज्यादा मीठा में कीड़े भी लग जाते हैं, पर बस अब बहुत ही ज्यादा खींचातानी हो गई क्योंकि सफर तो दोनों को ही तय करना है ना। जब मंजिल एक ही है तो थोड़ा इधर थोड़ा उधर कभी खुशी कभी गम तो चला ही करता है, तो फिर बस उसके बाद बिंदास बिना किसी negative सोच के आगे बढ जाईये। कोशिश करते जाइये, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार तो होती ही नही। हिम्मत कीजिए, अपराध बोध से तो अच्छा इंसान बात कर ले।vसोचने समझने का दिमाग तो भगवान ने हर इंसान को दिया ही है। एक दिमाग है जो पागल कर देता है जीवन भर के लिए सोच सोच कर,और दूसरा दिमाग है जो कहता है कि जो किया बहुत बढ़िया किया।
परंतु कई बार एक छोटा सा अपराध बोध का एहसास भी किसी किसी को इस हद तक दुखी कर देता है कि वो जीवन भर उससे बाहर ही नहीं आ पाता,और उसकी गलती भी नहीं होती है। दोनों में से किसी की भी गलती नहीं होती है या फिर दोनों की ही गलती होती है और अनबन। आजकल की भाषा में कहें तो ब्रेकअप हो जाता है। अक्सर बात छोटी सी होती है, गलत–फहमी ज्यादा हो जाती है, और किसी का दिल टूट जाता है। कोई बात दिल पर ले लेता है और कोई मस्त घूमता रहता है। इसलिए जनाब मस्त रहिए, स्वस्थ रहिए।
ना ज्यादा सोचिये और ना खुद को परेशान करिये। ना ही ज्यादा खाने का और ना ज्यादा वर्जिश करने का, है ना मस्त आइडिया, स्वस्थ रहिये दुरुस्त रहिये हँसते रहिये, दिमाग पर ज्यादा लोड नही लेने का। चलिए यह सब मजाक की बात है, लेकिन यहां पर मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना है कि, जिंदगी को बहुत ही ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। बहुत अधिक भावुक होकर जीवन जीना मुश्किल हो जाता है कई बार जीवन सज़ा लगने लगता है, स्वयं के और दूसरों के लिए भी।
ऐसा अक्सर तब देखा गया है जब हम दूसरों से बहुत ज्यादा उम्मीद करते हैं और फिर थोड़ी सी बात हमारे दिल को दुखा देती है। दूसरों को हमारी वजह से दुख पहुंचा, ऐसा भी बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है। बस बीच का रास्ता निकालिए, बात कीजिए और हर पल को जीने की कोशिश कीजिए। यही एक रास्ता है जीने का। आज का दिन निकला झगड़ा हुआ, वहीं बात खत्म कीजिए और नए सवेरे से नई जिंदगी शुरू कीजिए। इसके सिवा कुछ दूसरा चारा है ही नहीं। किसी ने कहा है ना “ये जीवन है, इस जीवन में थोड़ी खुशियां हैं थोड़े गम हैं।”
इसी तरह से थोड़ी खुशियां और थोड़े गमों के मिले–जुले, खट्टे मीठे पलों से ही ये जीवन चलता था, चलता रहा है और चलता रहेगा।