आम और रोहू के लिए प्रसिद्ध शहर अमरोहा में एक ऐसे शायर का जन्म होता है जिसने बहुत साधारण लेकिन तीखी तराशी हुई ज़बान में गहरी बात कही। शायरी की दुनिया में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले शायरों में से एक है। जॉन एलिया का मूल नाम सय्यद हुसैन जौन असग़र था। लेकिन उन्होंने शायरी करने के लिए जॉन एलिया नाम चुना। इनका जन्म 4 दिसंबर1931 में हुआ। जॉन एलिया ने पहले से चली आ रही परंपरा को तोड़कर शायरी को एक नई दिशा दी। उनके कहन का तरीका अपने पूर्ववर्ती शायरों से बिलकुल अलग है। उन्होंने रूमानी शायरी से दामन बचाते हुए, ताज़ा बयानी के साथ दिलों में उतर जाने वाली इश्क़िया शायरी की। शायरी का लहजा इतना नर्म और गीतात्मक है कि उनके अशआर में मीर तक़ी मीर के नश्तरों की तरह सीधे दिल में उतर जाता है।
अहमद नदीम क़ासमी के अनुसार, “जौन एलिया अपने समकालीनों से बहुत अलग और अनोखे शायर हैं। उनकी शायरी पर यक़ीनन उर्दू, फ़ारसी, अरबी शायरी की छूट पड़ रही है मगर वो उनकी परम्पराओं का इस्तेमाल भी इतने अनोखे और रसीले अंदाज़ में करते हैं किबीसवीं सदी के उत्तरार्ध में होने वाली शायरी में उनकी आवाज़ निहायत आसानी से अलग पहचानी जाती है।” शायर के अलावा वे पत्रकार, विचारक, अनुवादक, गद्यकार भी थे।
जौन एलिया के बचपन और लड़कपन के वाक़ियात जौन एलिया के शब्दों में हैं, जैसे-“अपनी पैदाइश के थोड़ी देर बाद छत को घूरते हुए मैं अजीब तरह हंस पड़ा, जब मेरी ख़ालाओं ने ये देखा तो डर कर कमरे से बाहर निकल गईं। इस बेमहल हंसी के बाद मैं आज तक खुल कर नहीं हंस सका।” या “आठ बरस की उम्र में मैंने पहला इश्क़ किया और पहला शेर कहा।”
जॉन एलिया की प्रारंभिक शिक्षा अमरोहा के मदरसे में हुए। उन्होंने उर्दू, फ़ारसी और फ़लसफ़ा में एम. ए. की डिग्री हासिल की। इसके अलावा वेअंग्रेज़ी, पहलवी, इबरानी, संस्कृत और फ़्रांसीसी ज़बानें भी जानते थे। भारत विभाजन के बाद 1956 में ना चाहते हुए भी उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। जॉन एलिया को पाकिस्तान जाने का दुख हमेशा रहा और वे भारत और अमरोहा को हमेशा याद करते रहें। वे इस दर्द को शायरी के माध्यम से व्यक्त करते हैं-
क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िराँ
हिन्दोस्ताँ में आए हैं हिन्दोस्तान के थे
जॉन एलिया का रचना फलक बहुत व्यापक है। उनका लहजा ही उनके शायरी की पहचान है। इसी लहजे के कारण वे आसानी से पाठक और श्रोता के दिल में अपनी पहचान बना लेते हैं। उनके एक शेर का बानगी देखिए-
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त वर्ना
कुछ लज़्ज़त-ए-हयात नहीं
क्या इजाज़त है एक बात कहूँ
वो मगर ख़ैर कोई बात नहीं
जॉन एलिया स्व-घोषित नकारात्मकवादी हैं। उनका यह व्यक्तित्व उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभव के आधार पर है। बारह बरस की उम्र में वो एक ख़्याली महबूबा सोफ़िया को ख़ुतूत भी लिखते रहे। फिर नौजवानी में एक लड़की फ़ारहा से इश्क़ किया जिसे वो ज़िंदगीभर याद करते रहे, लेकिन उससे कभी इज़हार-ए-इश्क़ नहीं किया। जॉन एलिया की शादी 1970 में अफ़साना निगार ज़ाहिदा हिना से हुई। ज़ाहिदा हिना ने उनकी बहुत अच्छी तरह देख-भाल की और वो उनके साथ ख़ुश भी रहे लेकिन दोनों के मिज़ाजों के फ़र्क़ ने धीरे धीरे अपना रंग दिखाया। धीरे धीरे उनके बीच टकराव हुआ और आख़िर तीन बच्चों की पैदाइश के बाद दोनों की तलाक़ हो गई। ज़ाहिदा हिना से अलगाव जौन के लिए बड़ा सदमा था। अरसा तक वो नीम-तारीक कमरे में तन्हा बैठे रहते। सिगरट और शराब की अधिकता ने उनकी सेहत बहुत ख़राब कर दी, उनके दोनों फेफड़े बेकार हो गए। वो ख़ून थूकते रहे लेकिन शराबनोशी से बाज़ नहीं आए। अपनी हालात पर वे शेर कहते हैं –
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
जॉन खुद को बर्बादी की हद तक ले जाने में भी कोई गुरेज नहीं रखते है। वे लिखते हैं –
एक ही तो हवस रही है हमें
अपनी हालत तबाह की जाए
जब इंसान जीवन में दुःखी होता है तो वह मोहब्बत की तरफ देखता है। उसे लगता है इश्क़ करने से उसका जीवन बेहतर हो सकता है। जॉन एलिया जीवन से इतने निराश और परेशान हैं कि उनका दिल इश्क़ में भी नहीं लगता है। वे लिखते हैं –
ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में
जॉन एलिया परंपरा को तोड़ते दिखाई देते हैं। वह अपने समय के बुराइयों पर भी लिखते है। एक तरह जहां किसी की चापलूसी करके लोग आगे जाने की सोचते है वहीं दूसरी तरफ जॉन किसी के आगे नतमस्तक होकर जीना पसंद नहीं करते हैं। वे लिखते हैं –
एक ही फ़न तो हम ने सीखा है
जिस से मिलिए उसे ख़फ़ा कीजे
जॉन के बारे में अहमद नदीम कासमी लिखते हैं “जॉन एलिया अपने समकालीनों से बहुत अलग और अनोखे शायर हैं । उनकी शायरी पर यकीनन उर्दू, फारसी, अरबी शायरी की छाप पड़ रही है मगर वो उनकी परंपराओं का इस्तेमाल इतने अनोखे और रसीले अंदाज़ में करते हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में होने वाली शायरी में उनकी आवाज़ निहायत आसानी से अलग पहचानी जाती है।” एक शेर देखिए –
शर्म दहशत झिझक परेशानी
नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं
आप वो जी मगर ये सब क्या है
तुम मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं
जॉन एलिया के शायरी में दर्शन भी दिखाई देता है। वह जीवन को खुलकर जीने की बात करते हैं। जिंदगी जीने का हुनर सबको सीखने की जरूरत है। जीवन सिर्फ जिए जाते रहने का नाम नहीं है। जीवन को जीने का सलीका भी आना चाहिए। वे लिखते हैं-
ज़िंदगी एक फन है लम्हों को
अपने अंदाज़ से गँवाने का
अक्सर प्रेमी जब प्रेम में होता है तो वह अपने को अमर मान लेता है। जॉन एलिया प्रेम करते हुए सच को स्वीकार करते हैं और उन्हें पता है एक दिन सबको मरना ही है। ऐसी ही शायरी जॉन एलिया को परंपरा से अलग बनाती है। एक शेर देखिए –
कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे
जॉन एलिया उन शायरों में नहीं है जो बैठे रहें, उनके भीतर कुछ ना कुछ चलता रहता है। वह सिर्फ जिंदा रहने को जीवन नहीं मानते हैं। वे लिखते हैं –
बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे
सिर्फ़ ज़िंदा रहे हम तो मर जाएँगे
अक्सर जब इंसान किसी से जलन करता है तो उसे स्वीकार नहीं करता है पर जॉन एलिया उन शायरों से बिल्कुल अलग है। जॉन एलिया पर कभी-कभी उनका दुख हावी होने लगता है और उनका मन उखड़ जाता है। वह खुश रहने वालों से जलन की भावना रखने लगते हैं।वह अपने शेर में इसे स्वीकार करते हुए लिखते हैं-
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं
जॉन एलिया के पास गुज़ारी ना जा सकने वाले दुखों का पहाड़ हैं, न समझे जाने की टीस है, मुहब्बत में उचटा हुआ दिल है। उनके शायरियों में तन्हाई आती है। वे लिखते हैं –
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है
या वे लिखते हैं –
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि जॉन एलिया पुरानी हो चुकी परंपरा को तोड़कर उर्दू अदब को, उर्दू जबान को एक नई दुनिया से परिचित कराया। उन्होंने जीवन के हर पहलू पर शायरी की। जीवन के फलसफों को बहुत साधारण तरीके से अपनी शायरी में कहा जिससे उनकी शायरी सीधे दिलों को छू लेती है। मोहब्बत के नए रुपों से उनकी शायरी से परिचित होते हैं। मीर की तासीर की शायरी बरसों बाद जॉन एलिया के यहां नज़र हैं। बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब के हवाले से कहें तो- ‘शाइर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है’। इस बदनाम, जिंदादिल शायर का 18 नवंबर 2002 को निधन हो गया।