गीत (संगीत) मानव जीवन का अभिन्न अंग है। वैदिककाल से ही हमें इसके दर्शन होने लगते हैं। सामवेद जिसे साम भी कहते इसका अर्थ ही गान है। प्राचीनकाल मनुष्य अपने श्रम को दूर करने और मनोरंजन के लिए इसका सहारा लेता था। साहित्य में तो विरह के समय नायक-नायिका द्वारा गीत संगीत को अंगीकार करने का वर्णन खूब मिलता है। ‘गीत’ शब्द गै धातु में क्त प्रत्यय लगाकर बना है किसका अर्थ है गाया हुआ या अलापा हुआ।
गीत का लक्षण देते हुए प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी अपने ‘अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम् 3/15’ में लिखते है – तदेवान्त्यानुप्रास ध्रुवकान्वितं गीतम् – अर्थात् अन्त्यानुप्रास अलङ्कार ही ध्रुवक सेअन्वित होने पर गीत कहा जाता है। यथा ‘तदेवगगनं सैव धरा।’
पद्मश्री प्रो.अभिराज राजेन्द्र मिश्रगीत को प्रकीर्ण काव्य के अन्तर्गत मानते हैं (उन्होंने प्रकीर्ण काव्य को तीन भागों में विभाजित किया है -1.गीत 2.गलज्जलिका 3.छन्दोंमुक्त रचनाएँ)। उनका कहना है कि गीति, गेय, गीत और गान ये परस्पर पर्याय हैं। मात्र प्रत्यय की भिन्नता से इनके स्वरूप में भिन्नता है। धातु से ही इन सबका निर्माण हुआ है-
गीतिर्गीतञ्च गेयञ्च गानमेतन्मिथस्समम्।
प्रत्ययाच्छब्दवैभिन्नयं न पुनर्धातुयोगतः।। अभिराजयशोभूषणम् 5/9
गीत काव्य के दो भेद हैं- रागकाव्य तथा लोकगीत।
(क) रागकाव्य
यह सङ्गीतशास्त्र सम्मत राग-समूह होता है। रागकाव्य के प्रमुख उदाहरण हैं- जयदेव प्रणीत गीतगोविन्दम्, गीतगिरीशम्, गीतगौरीशम्, गीतपीतवसनम्, गीतगङ्गाधरम्, गीतरामगोविन्दम् इत्यादि।
(ख) लोकगीत
लोक सम्मत रागों से समन्वित गीत लोकगीत कहलाते हैं। मिश्र जी ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है-
लोकेन सङ्गीतशास्त्रज्ञानविरहितेन प्राकृतजनेन गीतं लोकगीतम्। यद्वालोकानां ग्रामग्रामटिकाग्रहराणां गीतं लोकगीतम्।’
विभिन्न क्षेत्रों के अपने लोकगीत होते हैं, यथा- रसिक (ब्रजक्षेत्र में), बाउलगीत (बङ्गाल में), पाण्डवानी (छत्तीसगढ़ में) तथा रागिणी इत्यादि। संस्कृतकवियों ने कतिपय लोकगीतों को आधार बनाकर संस्कृत में रचनाएँकी हैं। प्रो.मिश्र जी ने अपने ग्रन्थ ‘अभिराजयशोभूषणम्’ में इनके उदाहरण दिए हैं। यथा-
1.कजरी गीत-राजेन्द्र मिश्र कृत वाग्वधूटी में, 2.रसिक गीत-हरिदत्त शर्मा तथा बाबूराम अवस्थी के रसिक गीतलिखे हैं, 3.फाल्गुनिक- चतुस्ताल फाल्गुनिक भी गाए जाते हैं,प्रो.अभिराज राजेन्द्र मिश्र कृत मृद्वीका में, 4.चैत्रक- प्रो.मिश्र कृत वाग्वधूटी में, 5.सूतगृहगीत (सोहर)- प्रो.मिश्र कृत वाग्वधूटी में, 6.बटुक गीत (बरुआ)-बाबूराम अवस्थी के गीत, 7.प्रचरण (पचरा), 8. नक्तक, 9.उत्थापन, 10. स्कन्धहारीय (कहरवा) वाग्वधूटी में, 11.औष्ट्रहारिक (ऊँटहारागीत), 12.श्रावणिक, 13. गाङ्गेय।
अन्तर्मन की अनकही बातों को कहना या मनोभावों को पिरोकर कागज पर अभिव्यक्त करना कोई आसान काम नहीं है। इस काम को वही अंजाम दे सकता है जिसे लिखने का शौक या जूनून हो। ऐसे ही जुनूनी कवि हैं बनवारी लाल जिन्दल सूईं वाला महाविद्यालय के संस्कृत विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर हिन्दी और संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि और नाटककार डॉ.जोगेन्द्र कुमार। डॉ.जोगेन्द्र कुमार की यह 9 वीं पुस्तक है। डॉ.जोगेन्द्र कुमार की हर पुस्तक अपने आप में अपने पाठकों के समक्ष एक नयापन लिए हुए प्रकट होती है। ‘गूँजे मेरे गीत’ गीत संग्रह में भी यह नवीनता दृष्टिगोचर होती है। इस संग्रह में भक्ति परक गीत, राष्ट्रगीत, युगचेतना के गीत, श्रृंगार रस के दोनों भेद संयोग और वियोग इत्यादि एक साथ संवलित हुए है।
मंगलाचरण चरण की प्राचीन परम्परा का निर्वाह भी डॉ.जोगेन्द्र कुमार ने किया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही इन्होंने अपने काव्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए भगवान गणेश की वन्दना की है।
गौरीशंकर लाडले, हे गणपति गणराज
दु:ख हरण मंगल करण, पूर्ण करो सब काज।।
आज की युवा पीढ़ी किसी-न किसी-कारण को लेकर अवसादग्रस्त है। युवाओं को प्रेरित करते हुए डॉ .जोगेन्द्र कुमार लिखते है -नहीं असंभव कुछ जीवन में/मनचाहा हासिल कर लो/चलो निरन्तर नित श्रम पथ पर /खुद को यूँ काबिल कर लो।
डॉ.जोगेन्द्र कुमार का प्रकृति-चित्रण अत्यन्त ही उच्चकोटि का है।हरी-भरी ये धरा कराती’ में बसंत ऋतु का वर्णन है –हुआ प्रेममय मन मुदित आज/देख सुखद मधुमास सखी री/ हरी भरी ये धरा कराती/ यौवन का अहसास सखी री।
देशप्रेम की भी कई गीत है जैसे-भारत देश हमारा, मेरे देश के नौजवानों से, बलिदानों की पुण्य भूमि को, भारत मां के वीर सपूतों, भीड़ लगी दीवानों की आदि।
‘ढूढ़ रहे हैं हवस पुजारी’ कविता में धार्मिक स्थलों पर हो रहे अनाचार दुराचार की ओर कवि ने इशारा किया है -ढूढ़ रहे हैं हवस पुजारी/किसी अकेली औरत को/ सारी मर्यादा को भूले/औ भूले सब गैरत को।
शीर्षक गीत ‘गूँजे मेरे गीत’ में कवि की सर्वधर्म सद्भाव की भावना नजर आती है –मन में भर कर भाव खुशी के सबसे कर लो प्रीत/ पुण्य धरा के पावन पथ पर गूँजे मेरे गीत।
‘संबल हो विश्वास का’(रिश्ते बनाते तभी सुखद जब/संबल हो विश्वास का/शक से रिश्ता टूट बनेगा/स्वयं पात्र उपहास का),थक मत जाना चलो मुसाफिर, छोड़कर बातें अधूरी,जिस दिन अन्त:तमस मिटेगा, मंजिल हमें पुकार रही है। (आओ मिलकर कदम बढ़ाएँ मंजिल हमें पुकार रही है) । राहगीर बढ़े चलो, मन में भर विश्वास और ‘अँधियारा निश्चित हारेगा’। मन में भर विश्वास सतत चल पृष्ठ 121। अँधियारा निश्चित हारेगा/अन्तस ज्योति जलाए जा आदि इस संग्रह प्रेरक गीत हैं ।
गुरू की जिस महिमा का बखान कबीर ने किया है वही भाव अपने गीत में लाने का प्रयास कविवर डॉ.जोगेन्द्र कुमार ने किया है। शिक्षक के महिमा का गुणगान करते हुए वे कहते हैं –जीवन रूपी सुन्दर भू पर, बीज चरित के बोता है/दोष से हटाकर गुण भर देता, शिक्षक ऐसा होता है।
‘नित्य प्रकृति प्रतिकूल चले जो’ कविता में कवि ने पर्यावरण संरक्षण पर भी बात की है –नित्य प्रकृति प्रतिकूल चले जो,कष्ट सदा नर पाता है/निज अन्तस की सुनने वाला, कभी नहीं पछताता है।
सम्बन्धों की डोर न टूटे, नीर नयन से झरते मेरे (नीर नयन से झरते मेरे/झड़ी लगी ज्यों सावन की/हर पल प्रियवर सता रही है/विरह वेदना सावन की), छोड़ दिया मात-पिता को,बढ़ा पाप है, चीर धरा को हम बोते है,मर्यादा, विश्वास सदा ही मरता है, पोषण, जीवन भर पछताता है, आदि गीतों में कवि ने जिन्दगी के विभिन्न पहलुओं को समेटने की सार्थक कोशिश की है। अग्रज कविवर डॉ.जोगेन्द्र कुमार जी को इस नवीन गीत संग्रह के लिए हार्दिक बधाई। आप इसी प्रकार अपनी लेखनी से माँ भारती की सेवा करते रहें। साहित्य जगत को आपसे बड़ी अपेक्षाएँ हैं।