लगभग डेढ़-दो हजार साल पहले “नीतिशतक” में महाराजा भर्तृहरि ने लिखा था कि “राजनीति वेश्या की तरह है। वह बहुरुपधरा है। वह जमकर खर्च करती है और उसमें नित्य धन बरसता रहता है।”
……….कुछ ही दशक पूर्व की ही तो बात है जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री किसी महत्वपूर्ण सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे और उनका कुर्ता कहीं से जरा सा फटा हुआ था, जब उनका इस बात की तरफ ध्यान आकृष्ट कराया गया, तो बड़ी ही सहजता से उस प्रधानमंत्री ने उत्तर दिया “जिस देश की जनता भूखी हो, गरीब हो; उस देश के प्रधानमंत्री को महंगे लिबास पहनने का कोई भी नैतिक दायित्व नहीं होता है। मैं गरीब पृष्ठभूमि से आया हूँ और गरीबी की बेबसी को समाझता हूँ।”
अर्जुन सेन गुप्ता आयोग के अनुसार 84 करोड़ लोगों को प्रतिदिन 20 रुपए भी नहीं मिलते। 34 करोड़ लोगों को दो दिन में एक बार खाना नसीब होता है। जगमोहन का कहना है कि ”आज भी देश में दुनिया के सबसे अधिक गरीब, अशिक्षित और कुपोषित लोग रहते हैं। कम क्रय-शक्ति के कारण 25 करोड़ लोग हर दिन भूखे पेट सोते हैं। हर तीसरी महिला शारीरिक रूप से कमजोर है। 5 वर्ष से कम आयु में कम वजन के बच्चों में 40 प्रतिशत भारतीय हैं। यदि इसे प्रतिशत में देखा जाए तो यह इथियोपिया से भी अधिक है। विश्व में स्कूल न जाने वाले कुल 15 करोड़ बच्चों में से 13 करोड़ भारतीय हैं। लगभग कुल आबादी की 10% नागरिक पीने के स्वच्छ पानी से वंचित हैं। एक चौथाई लोगों को स्वास्थ्य की सामान्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।
देश आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ कुर्बान कर देने वाले महात्मा गांधी की बातें और यादें और उनका जीवन एक तरह से पाठ है। उनकी जीवन गाथा सिर्फ यह बताती है कि कैसे जीवन को सही तरीके से जिया जा सकता है। एक सूती धोती तन पर लपेटे और हाथ में एक लाठी उनकी पहचान बन गई। विदेश से वकालत पढ़ कर आये महात्मा गांधी चाहते तो अपना भविष्य संवार सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। भारतीयों को गुलामी की जंजीर से आजाद कराने की खातिर विलासिता की जिंदगी को त्याग दिया। उन्होंने अपने आशियाने के लिए एक आश्रम को चुना। हर किसी को स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में शामिल करने के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया।
अगर धन दौलत और वैभव की बात करें तो ये तय है कि मोहम्मद अली जिन्ना अपने जमाने के भारतीय नेताओं से बहुत आगे थे। भले ही नेहरू के लंदन प्रवास के बारे में जितनी भी बातें की जाती हों लेकिन जिन्ना के तड़क भड़क और लग्जरी लाइफ स्टाइल के मामले में वो बहुत पीछे थे। कहा जाता है कि सिल्क की एक टाई को पहनने के बाद वो दोबारा कभी उसको नहीं पहनते थे। उनके वार्डरोब में 200 से ज्यादा सूट थे, जिन्हें मुंबई और लंदन के सबसे महंगे टेलर सिला करते थे। उस जमाने में दो ही भारतीयों को वेल ड्रेस्ड माना जाता था। उसमें एक जिन्ना थे और दूसरे मोतीलाल नेहरू।
कहने को तो राजनीति को समाज तथा राष्ट्र सेवा का माध्यम समझा जाता है। राजनीति में सक्रिय किसी भी व्यक्ति का पहला धर्म यही होता है कि वह इसके माध्यम से आम लोगों की सेवा करे। समाज व देश के चहुंमुखी विकास की राह प्रशस्त करे। ऐसी नीतियां बनाए जिससे समाज के प्रत्येक वर्ग का विकास हो, कल्याण हो। आम लोगों को सभी मूलभूत सुविधाएं मिल सकें। रोजगार,शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जरूरतें सभी को हासिल हो सकें।
राजनीति के किसी भी नैतिक अध्याय में इस बात का कहीं कोई जिक्र नहीं है कि राजनीति में सक्रिय रहने वाला कोई व्यक्ति इस पेशे के माध्यम से अकूत धन-संपत्ति इकट्ठा करे। नेता अपनी बेरोजगारी दूर कर सके। अपनी आने वाली नस्लों के लिए धन-संपत्ति का संग्रह कर सके। अपनी राजनीति को अपने परिवार में हस्तांतरित करता रहे तथा राजनीति को सेवा के बजाए लूट, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, भेदभाव, कट्टरता, जातिवाद, गुंडागर्दी का पर्याय समझने लग जाए। परंतु हमारे देश में कम से कम राजनीति का चेहरा कुछ ऐसा ही बदनुमा सा होता जा रहा है।
हमारे देश का इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहां का वोट देने वाला आम मतदाता दिन प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है, जबकि गरीब वोटरों के वोटों से जीतने वाला जनप्रतिनिधि तेजी से अमीर बनता जा रहा है। लोकतंत्र में संसद और विधानसभा देश की जनता का आईना होती हैं। अब राजनीति सेवा नहीं पैसा कमाने का जरिया बन गई है। आज लाभ के इस धंधे में नेता करोड़पति बन रहे हैं। राजनीति में यह समृद्धि यूं ही नहीं आई है, इसके पीछे किसी न किसी का शोषण और कहीं न कहीं बेईमानी जरूर होती है।
हर चुनाव के साथ गरीबी हटाने का नारा सुनाई देता है। चुनावी मौसम में नेता गरीबों के घरों में खाना खाते नजर आते हैं। फोटो खिंचवाने और उन्हें गले लगाने में भी वो पीछे नहीं हटते। हमारे नेता गरीबों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन क्या वे वाकई में गरीबों का प्रतिनिधित्व करते हैं?
यदि देश की अधिकांश आबादी गरीब और तंगहाल है तो हमारे ज्यादातर सांसद और विधायक भी गरीब होने चाहिए, ताकि वे आम आदमी का दर्द महसूस कर उसके कल्याण के लिए सही ढंग से कानून, नियम कायदे बना पाएंगे। जब चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपयों की दरकार हो तब चुनाव में आम आदमी की भूमिका केवल वोट देने तक सिमट जाती है। वह चुनाव लड़ने की तो कल्पना भी नहीं कर सकता। राजनीति करने वाले राजनेता जिनको बहुत अधिक वेतन नहीं मिलता है वो किस बूते बड़े शहरों में करोड़ो रूपयो वाले महलनुमा आलिशान बंगलो में रहते हैं तथा लाखों-करोड़ो की गाड़ियों में घूमते हैं?
2004 से 2019 तक चुने गए सांसदों की कुल संपत्ति (कुल संपत्ति और देनदारियों के बीच का अंतर) को आंका और पाया कि नेताओं की संपत्ति काफी हद तक बढ़ गई। 14वीं लोक सभा (2004-2009) के सांसदों की औसत संपत्ति मात्र 1.9 करोड़ रूपए थी जो 15वीं लोक सभा में बढ़कर 5.06 करोड़ हो गई. यह संख्या 16वीं लोक सभा (2014-19) में बढ़कर 13 करोड़ पहुंच गई और 17वीं लोक सभा (2019-2024) में यह संख्या 16 करोड़ से कुछ ऊपर है।
हमारे देश के सांसदों की माली हालत का अंदाज तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज दोनों सदनों के सांसदों की घोषित संपत्ति दस हजार करोड़ रुपए से अधिक है। सांसदों पर आरोप लगता है कि उनके पास घोषित से अधिक अघोषित संपत्ति है। आज राजनीति कमाई का सबसे अच्छा जरिया बन गई है। चुनाव लड़ने वाले नेताओं की संपत्ति में पांच वर्ष में औसत 134 प्रतिशत वृद्धि बड़े-बड़े उद्योगपतियों को चौंकाती है। कुछ मामलों में तो संपत्ति में वृद्धि की दर एक हजार प्रतिशत से ज्यादा देखी गई है। इसलिए अब समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति भी सांसद, विधायक बनने लगे हैं।
पिछले दिनों एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्ट नेताओं पर प्रहार करते हुए कई सांसदों तथा विधायकों की संपत्ति में हुए पांच सौ गुणा तक के इजाफे पर सवाल खड़ा करते हुए यह जानना चाहा कि यदि ऐसे जनप्रतिनिधि यह बता भी दें कि उनकी आमदनी में इतनी तेजी से बढ़ोतरी उनके किसी व्यापार की वजह से हुई है तो भी सवाल यह उठता है कि सांसद और विधायक होते हुए कोई व्यापार या व्यवसाय कैसे कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अब यह सोचने का वक्त आ गया है कि भ्रष्ट नेताओं के विरुद्ध कैसे जांच की जाए। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि जनता को यह पता होना चाहिए कि नेताओं की आय क्या है। इसे आखिर क्यों छुपा कर रखा जाए।
समय-समय पर हमारे देश की सर्वोच्च अदालत से लेकर विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों ने इस प्रकार के पेशेवर किस्म के भ्रष्ट व देश को बेच खाने वाले अपराधी किस्म के नेताओं को लेकर कई बार तल्ख टिप्पणियां की हैं। परन्तु ऐसे भ्रष्ट नेताओं पर अदालतो की टिप्पणी का प्रभाव क्या होगा? अफसोस तो इस बात का है कि कई बार अदालती हस्तक्षेप होने के बावजूद राजनेताओं के ढर्रे में सुधार आने के बजाए इसमें और अधिक गिरावट आती जा रही है।
एक चुनाव से दूसरे चुनाव के 5 वर्षों के अंतराल में जनप्रतिनिधियों की सम्पति में 10 गुना से 20 गुना तक वृद्धि हो जाती है। जबकि देश की अर्थव्यवस्था 8 फीसदी तक नहीं बढ़ पा रही है। इसमें दो राय नहीं कि सरकारी दफ्तरों में स्थानीय स्तर से लेकर नौकरशाहों के बीच तक भ्रष्टाचार की उलटी गंगा बह रही है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार हो तो मातहत कैसे भ्रष्टाचार कर सकते हैं? वास्तव में देश के भीतर भ्रष्टाचार की एक शृंखला बन चुकी है। देश में व्याप्त राजनीति में मूल्यों के पतन से भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि राजनीति में धन व बल के बढ़ते वर्चस्व के चलते माफिया व आपराधिक तत्व राजसत्ता पर काबिज होने लगे हैं जिसके चलते भ्रष्टाचार का निरंतर पोषण जारी है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट ने देश के तमाम सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ते वक्त दिये गये शपथपत्र को जांचा परखा तो सच यही उभरा कि देश में चाहे 75 करोड़ लोग बीस रुपये रोज पर ही जीवन यापन करने पर मजबूर हो लेकिन संसद और विधानसभा में जनता ने जिन्हे चुन कर भेजा है, उसमें 75 फिसदी यानी 4852 नुमाइंदों में से 3460 नुमाइन्दे करोड़पति है। लोकसभा के 543 सांसदों में 445 सांसद करोड़पति है, तो राज्यसभा के 194 सदस्य करोड़पति है। देश भर के 4078 विधायकों में से 2825 विधायक करोड़पति है। फिर ये सवाल किसी के भी जहन में आ सकता है तो फिर सांसदों-विधायकों के जनता से कैसे सरोकार होते होगें। क्योंकि जरूरतें ही जब अलग-अलग है, जीने के तौर तरीके, रहन-सहन, आर्थिक स्थिति ही अलग अलग है तो फिर आम जनता से जुड़ाव कैसे होते होंगे?
ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि भारत की राजनीति यूरोपीय देश को आर्थिक तौर पर टक्कर देती है। यानी जितनी रईसी दुनिया के टॉप 10 देशों की सत्ता की होती है उस रईसी को भी मात देने की स्थिति में हमारे देश के नेता और राजनीतिक दल हो जाते हैं। और 2014 के बाद तो सत्ता की रईसी में चार चांद लग चुके हैं, जो अमेरिकी सीनेटरों को भी पीछे छोड़े दे रही हैं।
यानी कमाल का लोकतंत्र है, क्योंकि एक तरफ विकसित देशों की तर्ज पर सत्ता, कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी काम करने लगती हैं तो दूसरी तरफ नागरिकों के हक में आने वाले खनिज संसाधनों की लूट-उपभोग के बाद जो बचा खुचा गरीबों को बांटा जाता, वह कल्याणकारी योजना का प्रतीक बना दिया जाता है। तो सियासत और सत्ता चुनावी लोकतंत्र के नाम पर देश को ही हड़प लें उससे पहले चेत तो जाइये। और मान तो लीजिये ये हमारा देश है।