“परमात्म स्मृति से समर्थ होते आत्मगत स्वभाव की परिणिति पवित्रता से ओत – प्रोत होती है जिसके अन्तर्गत आत्मिक, अस्तित्व की बोधगम्यता सात्विक – सुमति की दिशा में – शुद्ध , बुद्ध , मुक्त , के सानिध्य में उन्मुक्त स्वरूप को धारण करके सदा नियम – संयम के प्रति पूर्णत: प्रतिबद्ध रहती है। नैसर्गिक चैतन्यता में आत्मा के स्वमान , स्वरूप एवं स्वभाव का व्यावहारिक दृष्टिकोण क्रियान्वित स्थितियों में परिलक्षित होता है जिसमें आत्महित के लिए किया जाने वाला सूक्ष्म पुरुषार्थ चेतना की सम्पूर्ण सद्गति का महत्वपूर्ण आधार स्तम्भ बन जाता है। आत्मगत स्वभाव के सबल पक्ष से निर्देशित सात्विक अवधारणा का अनुपालन अनुशासित स्वरूप में जब जीवात्मा द्वारा संपादित कर लिया जाता है तब आत्म साक्षात्कार के उच्चतम आयाम का स्थायित्व सुनिश्चित स्वरूप में प्राप्त हो जाता है । “ जहाँ सुमति तहां सम्पति नाना …” रामचरित मानस की आत्मगत स्वभाव से सम्बद्ध यह अति विशिष्ट चौपाई , मानव जीवन की सम्पूर्णता का सम्पन्न स्वरूप में जीवंतता का प्रामाणिक प्रबोधन है जिसमें आत्मानुभूति के पवित्रतम – प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष उदाहरण सन्निहित हैं जो जीवात्मा को आध्यात्मिक उच्चता प्रदान करने में सदा ही मददगार सिद्ध होते हैं।”
परमात्म स्मृति से आत्मगत स्वभाव :
आत्म तत्व के प्रति निष्ठावान मनःस्थिति जीवात्मा को सक्षम बनाने में सहायक होती है जिससे परम सत्ता की शरण में गतिशील बने रहना सहज हो जाता है जो सम्पूर्ण समर्पण का महत्वपूर्ण आधार है । जीवन में आत्मिक स्वभाव के सानिध्य में आत्मा का अस्तित्व गुण सदा बना रहता है जो जो नियम – संयम द्वारा मर्यादित आचरण को अनुगमन करते हुए पूर्णतया आत्मनिर्भर रहकर कर्मजगत में प्रविष्ठ होता है । आत्मगत स्वभाव में सात्विक सुमति सन्निहित रहती जो जीवात्मा को सदा ही अनुप्राणित करती है जिससे सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का केंद्रीय भाव एवं विचार सर्व मानव आत्माओं की आत्मीयता का प्रमुख कारण बन जाता है ।
परमात्म स्मृति के माध्यम से आत्मा की महान स्थिति का निर्माण सुनिश्चित हो जाता है और आत्म चेतना की चैतन्यता स्वयं को आध्यात्मिक पुरुषार्थ की दिशा में अभिमुखित करके पवित्र अवस्था और स्वरूप के निर्माण में संलग्न हो जाती है । ईश्वरीय छत्रछाया की आत्मिक अनुभूतियाँ आत्मा के नैसर्गिक स्वभाव की सात्विक मनोदशा से समृद्धशाली होकर जीवन के विविध आयाम में स्वयं को पवित्रतम – गति , मति , सुमति एवं सद्गति के व्यावहारिक क्रियमाण तथा परिणाम का संज्ञान प्राप्त करके ही नियम और संयम की उच्चता को आत्मसात कर अभिभूत होती हैं ।
आत्मिक अस्तित्व द्वारा सात्विक सुमति :
जीवन में आत्मिक अस्तित्व और आत्मा से सम्बन्धित दिव्य गुण एवं शक्ति की अनुभूति युक्त निश्चयात्मक स्वीकारोक्ति जीवात्मा के आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूलभूत केन्द्र होता है जहाँ से सात्विक सुमति की ओर गतिशीलता स्वमेव आरम्भ हो जाती है । स्वयं की विराटता को आत्मगत चेतना द्वारा जब विशालता के साथ आत्मिक , अस्तित्व की बोधगम्यता के माध्यम से परमात्म सत्ता के सम्मुख निजता को न्यौछावर करके मनुष्य जीवन के प्रति सतोप्रधान मनोवृत्ति को आत्मसात किया जाता है तब सात्विकता के परिवेश से सर्व मानव आत्माएँ आलोकित हो पाती है । आत्मिक अनुभूतियों से भरपूर चेतना विभिन्न कार्य दशाओं के अन्तर्गत स्वयं की उपस्थिति को स्वरूपगत बनाये रखती है जिससे कर्मजगत का परिदृश्य गुणात्मकता की अनिवार्यता से पूर्णत: संतुष्ट हो जाता है और जिसमें आत्म संतुष्टि की अवधारणा सम्पूर्ण क्रियान्वयन की पक्षधरता को सहर्ष ही अनुकरण कर लेती है ।
चेतना के नैसर्गिक स्वरूप के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की आत्मिक चेष्ठा – व्यक्तित्व , ‘ कृतित्व एवं अस्तित्व को परिमार्जित करके सम्पूर्ण रूप से परिष्कृत कर देती है जिसके परिणाम स्वरूप मानवीय चित्त की सार्थकता को यथासमय सामाजिक परिदृश्य में परिलक्षित होते हुए अनुभव किया जा सकता है । आत्मिक अस्तित्व गुण द्वारा सात्विक प्रवृत्ति से सुमति की प्राप्ति हो जाने के कारण मानवीय चेतना को जीवन के सिद्धान्त एवं व्यवहार में – साम्य स्थापित करके नियमानुसार आचरण का अनुसरण करना अनिवार्य होता है जिससे – “अहिंसक जीवन शैली के सानिध्य में संयमित जीवन शैली की उपयोगिता ” को सहज ही सिद्ध किया जा सकता है।
नैसर्गिक चैतन्यता में नियम संयम :
चेतना का नैसर्गिक स्वरूप आत्मगत स्वभाव के अनुकूल स्वयं को सदा गुणात्मक रूप से परिमार्जित – करने की दशा में सम्पूर्ण परिष्कृत हो जाने की अभिलाषा से गतिमान रहता है जिसमें – ‘ कायदे में ही फायदा है ’ का सिद्धान्त और व्यवहार , जीवात्मा को मर्यादित आचरण से सुसज्जित कर देता है । जीवन में स्वयं को पूर्णत: नियमित करके संयमित जीवन शैली का अनुकरण एवं अनुसरण करने की मानवीय जिज्ञासु प्रवृत्ति ही – ‘ धर्म और कर्म ’ के सामन्जस्य को धारणात्मक स्वरूप में परिणित करने में सक्षम सिद्ध होती है । आत्मगत नैसर्गिक चैतन्यता की अनुभूति में सदैव – नियम और संयम , के प्रति अगाध श्रद्धा का समावेश सन्निहित रहता है जिससे जीवात्मा का आध्यात्मिक पुरुषार्थ तीव्र हो जाता है क्योंकि आत्मा , आधारभूत – अवधारणा के निश्चयात्मक पक्ष से निश्चिंत रहकर गतिशील बनी रहती है।
मानव जीवन के भीतर जब राजयोग रूपान्तरित होता है तब आत्मिक स्थिति में विशिष्ट परिवर्तन सुनिश्चित रूप से घटित होकर सृजनात्मक परिणाम के माध्यम से – मंशा , वाचा एवं कर्मणा की पवित्रता द्वारा कल्याणकारी फलितार्थ के वास्तविक स्वरूप में सहज ही प्रकट हो जाते हैं । आत्मा का स्वमान , स्वरूप और स्वभाव में सात्विक सुमति की विद्यमानता सदा बनी रहती है जिससे जीवन के व्यावहारिक परिदृश्य एवं परिवेश में चेतना की नैसर्गिक चैतन्यता उच्चतम् वैभवपूर्णता के सानिध्य में मंगलकारी स्वरूप द्वारा सर्वदा आत्मिक आनंद को प्रस्फुटित करती रहती है।
आत्महित पुरुषार्थ का सद्गति स्वरूप :
मनुष्य जीवन की बोधगम्यता में समाविष्ठ चेतना की अति महत्वपूर्ण धरोहर – ‘ आत्मा स्वयं की ही सबसे बड़ी मित्र होती है ’ जो आत्महित के पुरुषार्थ को आत्मसात करके आत्मगत सद्गति के विराट स्वरूप में स्वमेव परिणित हो जाती है । आत्म तत्व की अति सूक्ष्म अनुभूतियाँ जीवन को सम्पूर्ण रूप से काया – कल्प करने में सक्षम होती हैं क्योंकि आत्मिक स्वभाव का नैसर्गिक पक्ष सदा आत्महित के लिए मन , बुद्धि एवं संस्कार द्वारा समर्पित होकर आत्म – चिंतन से धारणात्मक स्वरूप की पक्षधरता हेतु कार्यरत रहते हैं । स्वयं की सात्विक मनःस्थिति से स्वयं का ही मार्गदर्शन और स्वयं को ही दिया जाने वाला परामर्श स्वयं की गति , मति एवं सद्गति के प्रति जागृत और चातृक भाव से गतिशीलता बनाये रखते हुए ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों द्वारा नियन्त्रण की स्थिति को निर्मित और निर्धारित करते रहते हैं ।
आत्महित को साधने की प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जाने वाला , पुरुषार्थ आत्मानुभूति के स्थायित्व हेतु कार्यरत रहता है जिसमें आत्म – तत्व की विवेचना से भाव एवं विचार जगत के मध्य सार्थक संतुलन बनाये रखते हुए आत्मिक – गुणों और शक्तियों के शुद्ध उपयोग पर मूलभूत रूप से ध्यान रखा जाता है । जीवन की गतिशील प्रक्रिया के अन्तर्गत आत्मगत स्वभाव में – ‘ सात्विक सुमति द्वारा नियम -संयम ’ का अनुपालन करने के साथ – साथ आत्महित के लिए किया जाने वाला सूक्ष्म पुरुषार्थ ही सद्गति स्वरूप में आत्मा को जीवन के भव सागर से पार लगाते हुए उसको तारने में भी मददगार सिद्ध होता है।
आत्म साक्षात्कार के उच्चतम आयाम :
जीवन में भक्ति , ज्ञान एवं मौक्ष के श्रेष्ठतम सामन्जस्य को आत्मसात करके तीव्र भगीरथ पुरुषार्थ का प्रतिफल – जीवात्मा को आत्म साक्षात्कार के उच्चतम आयाम का सम्पूर्ण दिग्दर्शन कराता है जिसमें आत्मानुभूति का विराट परिदृश्य और आत्मा के दिव्य गुणों तथा शक्तियों का विशाल परिवेश समाहित रहता है । परमात्म स्मृति से समर्थ होते आत्मगत स्वभाव की परिणिति पवित्रता से ओत – प्रोत होती है जिसके अन्तर्गत आत्मिक , अस्तित्व की बोधगम्यता सात्विक – सुमति की दिशा में – शुद्ध , बुद्ध , मुक्त , के सानिध्य में उन्मुक्त स्वरूप को धारण करके सदा नियम – संयम के प्रति पूर्णत: प्रतिबद्ध रहती है । नैसर्गिक चैतन्यता में आत्मा के स्वमान , स्वरूप एवं स्वभाव का व्यावहारिक दृष्टिकोण क्रियान्वित स्थितियों में परिलक्षित होता है जिसमें आत्महित के लिए किया जाने वाला सूक्ष्म पुरुषार्थ चेतना की सम्पूर्ण सद्गति का महत्वपूर्ण आधार स्तम्भ बन जाता है ।
आत्मगत स्वभाव के सबल पक्ष से निर्देशित सात्विक अवधारणा का अनुपालन अनुशासित स्वरूप में जब जीवात्मा द्वारा संपादित कर लिया जाता है तब आत्म साक्षात्कार के उच्चतम आयाम का स्थायित्व सुनिश्चित स्वरूप में प्राप्त हो जाता है । “ जहाँ सुमति तहां सम्पति नाना …” रामचरित मानस की आत्मगत स्वभाव से सम्बद्ध यह अति विशिष्ट चौपाई , मानव जीवन की सम्पूर्णता का सम्पन्न स्वरूप में जीवंतता का प्रामाणिक प्रबोधन है जिसमें आत्मानुभूति के पवित्रतम – प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष उदाहरण सन्निहित हैं जो जीवात्मा को आध्यात्मिक उच्चता प्रदान करने में सदा ही मददगार सिद्ध होते हैं ।