पेड़ पौधों में भी जान होती है इस तथ्य को अपने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सिद्ध करने वाले जगदीश चंद्र बसु भारत के महान वैज्ञानिक थे। परतंत्र भारत में जन्म लेने वाले श्री बसु ने कम संसाधनों के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किए और भारत का नाम अंतरराष्ट्रीय जगत में सम्मान के साथ स्थापित कराया। उनकी द्वारा स्थापित की गई वैज्ञानिक अवधारणाएं एवं वैज्ञानिक आविष्कार उनकी व्यापक प्रतिभा के चिन्ह मात्र हैं।
भारत के संबंध में यह आम धारणा काफी प्रचलित है कि भारत का इतिहास, कला, संस्कृति में बंगाल का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। यहां से रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे अमर बलिदानी निकले हैं।
जगदीश चंद्र बसु जी का जन्म उसी विद्वानों को पावन भूमि बंगाल प्रांत में मुंशीगंज जिले के मेमनसिंह गांव में हुआ था। यह गांव स्वाधीनता के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश का हिस्सा है। बसु जी के परिवार का अपनी भाषा के प्रति अगाध लगाव था। इनके पिता का मानना था कि बोस को अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा का अध्ययन करने से पहले उन्हें अपनी मातृभाषा, बंगाली सीखनी चाहिए। इसलिए परतंत्र भारत में बसुजी की प्रारंभिक शिक्षा एक बंगाली विद्यालय में ही हुई, उनके पिता का नाम भगवान चंद्र बसु और मां का नाम बामासुंदरी था। वे बचपन से ही प्रतिभावान थे। आगे चलकर उनका दाखिला कलकत्ता के जेवियर कॉलेज में हुआ। उन्होंने लंदन में भी पढ़ाई की।
वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उच्च अध्ययन के लिए भी गए जहां उनके वैज्ञानिक मानस का चौतरफा विकास हुआ। यहां उन्हें दुनिया भर में विज्ञान के क्षेत्र में हो रही नयी खोजों के बारे में जानकारी मिली वहीं उनके स्वयं के दृष्टिकोण का विकास हुआ और उसे कई आयाम मिले। दुनिया के कई महान वैज्ञानिकों से इस दौरान उन्हें मेलजोल का अवसर मिला। महान वैज्ञानिक उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा एवं ज्ञान से प्रभावित हुए जिसके बाद बसुजी का दुनिया के महान वैज्ञानिकों से आगे सतत संपर्क रहा।
सन 1885 में जगदीश चंद्र बोस भारत आए। उन्हें कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति मिली। वे एक वैज्ञानिक होने के साथ नागरिक अधिकारों एवं समानता की बात रखने में पीछे नहीं रहते थे। उन्हें जब कोलकाता में नियुक्ति दी गई तो उन्हें निर्धारित वेतन से आधा ही तय किया गया जिसका उन्होंने अपने कार्यकाल में कड़ा विरोध किया। वे यूरोपीय और भारतीय प्रोफेसरों के बीच इस तरह के भेदभाव के विरोधी थे। उन्होंने अपने विरोध स्वरूप बिना वेतन के काम किया जिसका व्यापक प्रभाव पढ़ा।
अंत में हार मानकर ब्रिटिश प्रशासन को उन्हें तीन साला का वेतन एक साथ देने को तैयार होना पड़ा। कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में उन्होंने समानता की बात को विभिन्न मंचों पर उठाया जिससे भेदभाव के वातावरण में पूर्व की तुलना में कमी आती गयी नागरिक अधिकारों की बात करते हुए, छात्रों के बीच अध्यापन करते हुए बसु ने विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर आविष्कार किए। बोस ने 1885 में बोस ने रेडियो तरंगों द्वारा बिना तार संचार का प्रदर्शन किया था। इन्होंने रिमोट वायरलेस सिग्नलिंग लाने के साथ ही वायरलेस दूरसंचार की शुरुआत की थी। उन्होंने रेडियो और माइक्रोवेव ऑप्टिक्स नाम के वैज्ञानिक यंत्र का आविष्कार किया। उन्होंने विद्युत चुम्बकीय तरंगों के संबंध में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य स्थापित किए। इन्हें रेडियो और माइक्रोवेव ऑप्टिक्स का जनक कहा जाता है।
वे भौतिकी के प्रोफेसर थे मगर उनको जीवविज्ञान एवं वनस्पति विज्ञान सहित विज्ञान की अन्य धाराओं के प्रति भी बहुत आकर्षण था। उन्होंने पौधों में जीवन के संबंध में तथ्य स्थापित करते हुए महत्वपूर्ण शोध किया। वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में जगदीश चंद्र बोस ने कई सफल शोध किए थे। लंदन में रॉयल सोसाइटी के केंद्रीय हॉल में कई प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के बीच जगदीश चंद्र बोस ने एक शोध में वनस्पति के टिश्यू पर सूक्ष्म तरंगों के असर को दिखाया था। उनके इस प्रयोग ने यह साबित कर दिया था कि पेड़-पौधों में भी जान होती है। वह भी आम इंसानों की सांस लेते हैं उनमें दर्द भी होता है। उनका यह प्रयोग देखकर वैज्ञानिक हैरान हो गए थे।
उन्होंने पेड़ पौधों की वृद्धि के मापन के लिए क्रेस्कोग्राफ नामक यंत्र का आविष्कार किया। इस विचार के आधार पर उन्होंने पादप कोशिकाओं पर इलेक्ट्रिकल सिग्नल के प्रभाव पर शोध किया जिससे साबित हुआ कि पेड़ पौधों में भी हम इंसानों की तरह जान होती है। वे भी हमारी तरह सांस लेते हैं बस अंतर सिर्फ इतना रहता है कि पेड़ पौधे मनुष्यों से उलट कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते है, बसु जी के इन महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयोगों एवं आविष्कारों के लिए उन्हें कई पुरस्कार और उपाधियों से विभूषित किया गया। अंग्रेजी सरकार ने पहले जहां उनकी उपेक्षा की वहीं बाद में उनके ज्ञान एवं वैज्ञानिक प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें नाइट सहित कई उपाधियों से सम्मानित किया।
जगदीश चंद्र बसु निरंतर नई खोज करते रहे, 1915 में उन्होने कॉलेज से अवकाश लेकर लगभग दो साल बाद “बोस इन्स्ट्यूट” की स्थापना की। जो ‘बोस विज्ञान मंदिर’ के नाम से प्रख्यात है। 1917 में सरकार ने उन्हे सर की उपाधि से सम्मानित किया।
निसंदेह वे मानवीय संवेदनाओं से भरे भारत के महान वैज्ञानिक थे जिनकी वैज्ञानिक अवधारणाएं एवं आविष्कार आज के विज्ञान की धरोहर हैं। सर जगदीश चंद्र बसु केवल महान वैज्ञानिक ही नहीं थे, वे बंगला भाषा के अच्छे लेखक और कुशल वक्ता भी थे। विज्ञान तो उनके सांसो में बसता था। 23 नवंबर, 1937 को विज्ञान की ये विभूति इह लोक छोड़कर परलोक सिधार गई।
आज भी वैज्ञानिक जगत में भारत का गौरव बढ़ाने वाले सर जगदीश चन्द्र बसु का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ है। ऐसी विभूतियाँ सदैव अमर रहती हैं। निसंदेह वे हमेशा भारत के गौरव रहेंगे।