भारत में वैदिक धर्म के पुनर्जागरण के इतिहास में भगवत्पाद जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य का नाम सर्वोपरि है। आद्य शंकराचार्य के महान् व्यक्तित्व में धर्म-सुधारक, समाज-सुधारक, दार्शनिक, कवि, साहित्यकार, योगी, भक्त, गुरु, कर्मनिष्ठ, विभिन्न सम्प्रदायों एवं मतों के समन्वयकर्त्ता-जैसे रूप समाहित थे। उनका महान् व्यक्तित्व सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करने वाला था। उन्होंने शास्त्रीय ज्ञान की प्राप्ति के साथ ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया था। उनके व्यक्तित्व में अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और निर्गुण ब्रह्म के साथ सगुण-साकार की भक्ति की धाराएँ समाहित थीं। ‘जीव ही ब्रह्म है, अन्य नहीं’ पर जोर देनेवाले आदि शंकराचार्य ने ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्धोष किया और बताया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने अपने अकाट्य तर्क से शैव, शाक्त और वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त कर पञ्चदेवोपासना का मार्ग दिखाया। कुछ विद्वान् शंकराचार्य पर बौद्ध शून्यवाद का प्रभाव देखते हैं। आचार्य शंकर में मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव मानकर उनको ‘प्रच्छन्न बुद्ध’ कहा गया। आचार्य शंकर के उपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं।
केरल के मालाबार में कालड़ी नामक स्थान पर साधारण ब्राह्मण परिवार में वैशाख माह की शुक्ल पंचमी के दिन जन्मे अद्वेत वेदांत के प्रणेता आदि गुरु शंकराचार्यजी संस्कृत के उद्भट प्रस्तोता, उपनिषदों की व्याख्या करने वाले, महान दार्शनिक व सनातन धर्म सुधारक थे। बहुत मुश्किल से उनको अपनी माताजी से सन्यास धारण करने की अनुमति मिली। अनुमति प्राप्त करने के पश्चात बिना विलम्ब किये आदि गुरू शंकराचार्यजी ने केरल से ही पैदल यात्रा करके नर्मदा नदी के किनारे पर स्थित ओंकरनाथ गये। जहां पर इन्होंने गुरु गोबिंदपादजी से योग शिक्षा तथा ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। शिक्षा पूर्ण होने पर वे गुरु से आज्ञा ले भारत के तीर्थ स्थानों के दर्शन हेतु निकल पड़े और सभी जगह साधु- संतों और विद्वानों से शास्त्रार्थ भी करते जा रहे थे तथा सब जगह वे विजय पताका फहराते रहे।
शंकराचार्य भारत के तीर्थ स्थानों के भ्रमण के दौरान उन्हें गृहस्थ आश्रम में रहने वाले मिथिला के महापंडित मंडन मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी उभय भारती के नाम और ज्ञान की ख्याति सुनने मिली। तब वे सुधीश्वर मंडन पिश्र से शास्त्रार्थ की सोच से उनके गांव तक पहुंचे और वहाँ शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। सब कुछ तय हो जाने के बाद निर्णायक की भूमिका के प्रश्न पर शंकराचार्यजी ने महापंडित मंडन मिश्र की पत्नी भारती को निर्णायक की भूमिका निभाने को कहा क्योंकि शंकराचार्यजी पता था कि मंडन मिश्र की पत्नी भारती विद्वान हैं। अब 24 दिनों तक लगातार हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्यजी के एक सवाल का जवाब पंडित मंडन मिश्र नहीं दे पाए तब उस निर्णायक क्षणों में अपनी न्यायशील बुद्धि व निष्पक्ष भूमिका अनुसार उसने अपने पति की पराजय घोषित करने में देर नहीं की, लेकिन इसके साथ ही भारती ने अपने पति के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण दर्शाते हुए शंकराचार्यजी को यह कह कर कि अभी तो पंडितजी की आधी ही हार हई है, क्योंकि ये विवाहित हैं इसलिये हम दोनों अर्धनारीश्वर की तरह मिलकर एक इकाई बनाते हैं, इसलिये मेरी पराजय के पश्चात ही उनकी पूर्ण पराजय मानी जाएगी।
अब आप को मेरे से शास्त्रार्थ करना होगा। इस तरह भारती ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ की चुनौती दी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस तरह फिर उन दोनों के बीच भी कई दिनों तक शास्त्रार्थ होता रहा लेकिन 21वें दिन भारती ने अपनी हार को भांपते हुए उनसे जीवन में स्त्री पुरुष के संबंध के व्यावहारिक ज्ञान से जुड़ा एक सवाल का जवाब जानना चाहा जिसका शंकराचार्यजी पढ़ी-सुनी बातों के आधार पर जवाब तो दे सकते थे लेकिन व्यावहारिक ज्ञान के बिना दिया गया जवाब अधूरा समझा जाता, इसलिये उस वक्त हार मान भारती से जवाब के लिए छह माह का समय माँग वहां से चले गए। इसके बाद शंकराचार्यजी ने योग के जरिए दूसरे शरीर में प्रवेश कर स्त्री-पुरुष के संबंध के व्यावहारिक ज्ञान हासिल कर जब दोबारा शास्त्रार्थ शुरू हुआ तो उभय भारती को अपने जवाबों से चकित ही नहीं बल्कि विस्मित भी कर दिया और इसके बाद विद्वान उभय भारती शास्त्रार्थ में अपनी हार स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकी।
उपरोक्त प्रसंग से यह तो स्पष्ट होता ही है कि ज्ञान जगत में भी पति-पत्नी मिलकर इकाई बनते हैं। आज निजी जीवन जीने के आग्रही पति-पत्नियों के लिए भी यह उदाहरण वंदनीय है। महिलाएं घर परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए ज्ञान अर्जित कर शास्त्रार्थ भी करती थीं। पति-पत्नी के बीच पूरकता का भाव होता था। स्त्री-पुरुष के गुणों में कोई भेद रेखा नहीं थी। इस प्रकार इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि हमारे सनातन धर्म में अनादिकाल से नारियों को जीवन के हर क्षेत्र में बराबर की भागीदारी निभाती आ रही हैं।
आदि शंकराचार्य ने देश के विभिन्न भागों में चार मठ स्थापित किये। उन्होंने ये मठ पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारिका, उत्तर में और दक्षिण में श्रृंगरी नामक स्थानों पर बनवाये। स्वामी शंकराचार्य हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक थे। उन्होंने वेदान्त सूत्र की व्याख्या कर जनसाधारण में अद्वैतवाद के दार्शनिक मत की स्थापना की और उसकी प्राप्ति का एकमात्र साधन ज्ञान बताया। यद्यपि अद्वैतवाद सर्वत्र ब्रह्मा की सत्ता को ही देखता है इसीलिए जाति-पांति, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब का उसके लिए कोई भेद व महत्व नहीं था। इस दृष्टि से शंकराचार्य सर्वाधिक क्रांतिकारी समाज सुधारक व मानवतावादी थे। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का जो सूत्र दिया वह इस प्रकार है- दुर्जन: सज्जनो भुयात सजन्न: शांतिमाप्नुयात। शान्तो मुच्येत बंधेस्यो मुक्त: घान्यान विमोध्येत ॥ अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें।
शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने के बाद आदि गुरू शंकराचार्य जी ने 32 वर्ष की अल्पायु में ही 820 ई. में पाल साम्राज्य के केदारनाथ, जो कि वर्तमान में भारत के उत्तराखंड राज्य में स्थित है, में संजीवन समाधि ले इस नश्वर देह को छोड़ दिया। अपने जीवन काल के इस छोटे से खंड में प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा को जीवंत करने का जो काम आदि गुरू शंकराचार्य जी ने किया है वह अद्भुत एवं अविस्मरणीय है।
आचार्य शंकर ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में देश को एकसूत्र में पिरोने और वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जितना कार्य किया, वह अनुपम है। उनके समस्त कार्यों का मूल्यांकन करना लेखनी के वश की बात नहीं है। देश के चार स्थानों पर मठों की स्थापना करके वहाँ ‘शंकराचार्य’ की नियुक्ति; दशनामी संन्यासियों का संगठन बनाकर उनके लिए अखाड़ों और महामण्डलेश्वर की व्यवस्था; कुम्भ-मेलों और द्वादश ज्योतिर्लिंगों का व्यवस्थापन; प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता) पर भाष्य तथा अद्वैतवेदान्त के अनेक मौलिक ग्रंथों एवं स्तोत्रों की रचना तथा अवैदिक मत-मतांतरवाले अनेक विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित करके सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा-जैसे अनेक कार्य शंकराचार्य को एक लौकिक मानव से ऊपर अलौकिक की श्रेणी में प्रतिष्ठित करते हैं।
जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने सनातन-धर्म के प्रचार-प्रसार, गुरु-शिष्य परम्परा के निर्वहन, शिक्षा, उपदेश और संन्यासियों के प्रशिक्षण और दीक्षा, आदि के लिए देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर 4 मठों या पीठों की स्थापना की और वहाँ के मठाध्यक्ष (मठाधीश, महंत, पीठाधीश, पीठाध्यक्ष) को ‘शंकराचार्य’ की उपाधि दी। इस प्रकार ये मठाधीश, आद्य शंकराचार्य के प्रतिनिधि माने जाते हैं और ये प्रतीक-चिह्न, दण्ड, छत्र, चँवर और सिंहासन धारण करते हैं। ये अपने जीवनकाल में ही अपने सबसे योग्य शिष्य को उत्तराधिकारी घोषित कर देते हैं। यह उल्लेखनीय है कि आद्य शंकराचार्य से पूर्व ऐसी मठ-परम्परा का संकेत नहीं मिलता। आद्य शंकराचार्य ने ही यह महान् परम्परा की नींव रखी थी। इसलिए ‘शंकराचार्य’ हिंदू-धर्म में सर्वोच्च धर्मगुरु का पद है जो कि बौद्ध-सम्प्रदाय में ‘परमपावन दलाईलामा’ एवं ईसाइयत में ‘पोप’ के समकक्ष है।
आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों को शांकर मठ भी कहा जाता है। इन मठों में संन्यास लेने के बाद दीक्षा लेने वाले संन्यासी के नाम के बाद एक विशेषण लगा दिया जाता है जिससे यह संकेत मिलता है कि यह संन्यासी किस मठ से है और वेद की किस परम्परा का वाहक है। सभी मठ अलग-अलग वेद के प्रचारक होते हैं और इनका एक विशेष महावाक्य होता है।
ज्योतिर्मठ— यह मठ उत्तराखण्ड के बद्रीकाश्रम में है। इस मठ की स्थापना सर्वप्रथम, 492 ई.पू. में हुई। यहाँ दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘गिरि’, ‘पर्वत’ और ‘सागर’ विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उस संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है। इस पीठ का महावाक्य ‘अयमात्म ब्रह्म’ है। यहाँ अथर्ववेद-परम्परा का पालन किया जाता है। आद्य शंकराचार्य ने तोटकाचार्य इस पीठ का प्रथम शंकराचार्य नियुक्त किया था।
शृंगेरी शारदा मठ— यह मठ कर्नाटक के शृंगेरी में अवस्थित है। इस मठ की स्थापना 490 ई.पू. में हुई। यहाँ दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘सरस्वती’, ‘भारती’, ‘पुरी’ नामक विशेषण लगाया जाता है। इस मठ का महावाक्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ है। यहाँ यजुर्वेद-परम्परा का पालन किया जाता है। सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) यहाँ के प्रथम शंकराचार्य नियुक्त किए गए थे।
द्वारका_शारदा मठ— यह मठ गुजरात के द्वारका में अवस्थित है। इस मठ की स्थापना 489 ई.पू. में हुई। इस मठ में दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘तीर्थ’ और ‘आश्रम’ विशेषण लगाया जाता है। यहाँ का वेद सामवेद और महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ है। इस मठ के प्रथम शंकराचार्य हस्तामालकाचार्य थे। हस्तामलक आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे।
गोवर्धन_मठ— यह ओड़ीशा के जगन्नाथपुरी में है। इस मठ की स्थापना 486 ई.पू. में हुई। इस मठ में दीक्षा लेनेवाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘आरण्य’ विशेषण लगाया जाता है। यहाँ का वेद ऋग्वेद है। इस मठ का महावाक्य ‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’ है। आद्य शंकराचार्य ने अपने प्रथम शिष्य पद्मपादाचार्य को इस मठ का प्रथम शंकराचार्य नियुक्त किया था।
काञ्ची कामकोटि मठ— यह मठ तमिलनाडु के काञ्चीपुरम् में अवस्थित है। आद्य शंकराचार्य देश के चार कोनों में मठों की स्थापना करके अपने जीवन का शेष समय व्यतीत करने के लिए 482 ई.पू. में काञ्चीपुरम् में रहने लगे थे। तभी से उनका निवास-स्थान मठ में परिवर्तित हो गया और कालांतर में ‘काञ्ची कामकोटि मठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आद्य शंकराचार्य जब तक उस मठ में रहे, तब तक उस मठ के अध्यक्ष स्वयं रहे। 477 ई.पू. में हिमालय जाने से पूर्व उन्होंने शृंगेरी शारदा मठ के अध्यक्ष सुरेश्वराचार्य को काञ्ची का भी अतिरिक्त कार्यभार सौंपा।
उपर्युक्त पाँचों मठों के अतिरिक्त भी भारत में कई अन्य जगह ‘शंकराचार्य’ की उपाधि लगाने वाले मठ मिलते हैं। यह इस प्रकार हुआ कि कुछ शंकराचार्यों के शिष्यों ने अपने मठ स्थापित कर लिये एवं अपने नाम के आगे भी ‘शंकराचार्य’ उपाधि लगाने लगे। परन्तु असली शंकराचार्य उपरोक्त पाँचों मठों पर आसीन को ही माना जाता है।
प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा को नूतन जीवन देने तथा इसको देश के प्रत्येक कोने में प्रसारित करने के लिए हिंदू पंचांग के अनुसार आदि गुरु शंकराचार्य जी की जयंती, प्रत्येक वर्ष के वैशाख माह की शुक्ल पंचमी के दिन देश के सभी मठों में विशेष हवन कर तथा शोभा यात्रा निकाल कर मनाई जाती है।