नवरात्रि’ में हम ‘नव दुर्गा’ की उपासना करते हैं। नवरात्र यूं तो ‘पवित्र रात्रि’ का प्रतीक है, ऐसी रात्रि जो पाप रूपी अंधेरे का शमन कर जीवन में नई रौशनी का संचार करती है। प्रतीकात्मक तौर पर नवरात्रि पाप पर पुण्य की विजय का प्रतीक है। अपितु नौ दिनों तक नौ देवियों की पूजा कर जीवन के समस्त बवंडरों से मुक्ति पाने की कामना भी इसमें विशेष स्थान रखती है। देवी दुर्गा जो स्त्री का प्रतीक है, जो ‘शक्ति’ कहलाती है उसकी पूजा की जाती है, जीवन के समस्त दुखों-पापों, अंधेरों का नाश कर इसमें खुशी और सौंदर्य के रूप में नव ऊर्जा के संचार की कामना-प्रार्थना के साथ। कई संदर्भों में हिंदू धर्म का यह ‘धार्मिक आयोजन’ या धार्मिक परंपरा वास्तविक धरातल पर अपने ही आधार पर प्रश्नचिह्न लगा जाती है।
‘शक्ति’ अर्थात ‘शत्रुओं को जीतने वाली’, ‘दुर्गा’ का विस्तार संभवत: ‘दुर्ग’ शब्द से हुआ हो। ‘दुर्ग’ अर्थात् ‘किला’ जो सुरक्षा का प्रतीक है, सम्मान का हकदार है। स्त्री रूप का प्रतिनिधित्व करती ‘दुर्गा’ व ‘शक्ति’ दोनों ही सुरक्षा व सम्मान का प्रतीक हैं। संभवत: इसीलिए दुर्गा को देवी कहा गया। किंतु प्रतीकात्मक ये पूजा आध्यात्मिक धरातल पर भले ही मायने रखती हो, असलियत की जिंदगी में पाखंड और प्रपंच नजर आता है, नारी के दुख का कारण नजर आता है।
हम तलिबान-अफगानिस्तान में बच्चियों एवं महिलाओं पर हो रही क्रूरता, बर्बरता शोषण की चर्चाओं में मशगूल दिखाई देते हैं लेकिन भारत में आए दिन नाबालिग बच्चियों से लेकर वृद्ध महिलाओं तक से होने वाली छेड़छड़, बलात्कार, हिंसा की घटनाएं पर क्यों मौन साध लेते हैं? इस देश में जहां नवरात्र में कन्या पूजन किया जाता है, लोग कन्याओं को घर बुलाकर उनके पैर धोते हैं और उन्हें यथासंभव उपहार देकर देवी मां को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं वहीं इसी देश में बेटियों को गर्भ में ही मार दिये जाने एबं नारी अस्मिता एवं अस्तित्व को नौंचने की त्रासदी भी है। इन दोनों कृत्यों में कोई भी तो समानता नहीं बल्कि गजब का विरोधाभास दिखाई देता है।
दुनिया भर में महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिये जागरूकता एवं आन्दोलनों के बाबजूद महिलाओं पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। हमारे देश में भी महिलाओं की स्थिति, कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, तलाक के बढ़ते मामले, गांवों में महिला की अशिक्षा, कुपोषण एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने बाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराधों पर प्रभावी चर्चा एवं कठोर निर्णयों से एक सार्थक वातावरण का निर्माण किये जाने की अपेक्षा है। क्योंकि एक टीस-सी मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी रहेगी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा? बलात्कार, छेड़खानी, भ्रूण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नोचा जाता रहेगा?
देश में बेटियों की सुरक्षा को लेकर भले ही तमाम बातें की जाएं, लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। आये दिन मीडिया के माध्यम से महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार, अपराध और यौन हमलों के समाचार सुनने-पढ़ने को मिलते हैं। ताजा मामला मुंबई की निर्भया का है। साल 2012 में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की निर्भया के साथ जैसी क्रूरता की गई थी, वही अमानवीयता मुंबई की निर्भया के साथ हुआ। वास्तव में यह राष्ट्रीय शर्म का विषय कि घर से बाहर बेटियां असुरक्षित है, और लगातार अमानवीय क्रूरता और हिंसा का शिकार हो रही हैं।
वर्ष 2012 में निर्भया कांड ने देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। पूरे देश में व्यापक आक्रोश सामने आया था। उसके बाद यौन हिंसा से जुड़े कानूनों को सख्त बनाया गया था। दोषियों को कठोरतम सजा से दंडित भी किया गया था। लेकिन लगता है कि दिल्ली की निर्भया का बलिदान व्यर्थ चला गया। मुंबई की घटना के बाद ऐसा लगता है मानों स्थितियों में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है। ऐसे में सवाल यह है कि अपराधियों में कानून का भय क्यों नहीं है? क्यों बेटियों के प्रति यौन अपराध की घटनाएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं? असल में अपराधियों में यह धारणा लगातार बनी हुई है कि वे अपराध करने के बाद भी बच जायेंगे। हमें इस सवाल पर गंभीरता से सोचना होगा.
क्या कहीं अपराधी की परवरिश में खोट है या हमारा वातावरण इतना जहरीला हो चला है कि वह लगातार ऐसे अपराधियों को पैदा कर रहा है। हमें तमाम ऐसे सवालों पर पूरे समाज को संजीदगी से विचार करने की जरूरत है। अपराधी समाज का अंग होने के बावजूद महिला-बच्चियों व उसके परिजनों के दर्द की कतई परवाह नहीं करते।
भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं आई। 2018 का सर्वे बताता है कि भारत यौन हिंसा, सांस्कृतिक-धार्मिक कारण और मानव तस्करी इन तीन वजहों के चलते महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है। 2018 में भारत में महिलाओं और नाबालिगों के खिलाफ यौन हिंसा के मामले अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आए। जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले में आठ साल की बच्ची और झारखंड में मानव तस्करी के खिलाफ अभियान चलाने वाली सामाजिक कार्यकताओं के साथ बलात्कार की खबरें दुनिया भर में चर्चा का विषय बनीं। दिसंबर 2017 को इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2016 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के प्रति घंटे औसतन 39 मामले दर्ज किए गए। साल 2007 में यह संख्या मात्र 21 थी। सरकार ने प्रतिक्रिया में बलात्कारियों के लिए सजा कड़ी करने और बच्चों के साथ बलात्कार करने वाले को मौत की सजा देने का ऐलान किया। लेकिन इंडियास्पेंड ने मई 2018 की अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि इन सजाओं के चलते बलात्कार के केस दर्ज किए जाने में कमी आ सकती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी ) के आंकड़े भी महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं में वृद्धि को स्पष्ट करते हैं। इन अपराधों में बलात्कार, घरेलू हिंसा, मारपीट, दहेज प्रताड़ना, एसिड हमला, अपहरण, मानव तस्करी, साइबर अपराध और कार्यस्थल पर उत्पीड़न आदि शामिल हैं। साल 2015 में बलात्कार के 34,651 मामले, 2016 में बलात्कार के 38,947 मामले दर्ज किए गए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2017 में भारत में कुल 32,559 बलात्कार हुए, जिसमें 93.1 फीसदी आरोपी करीबी ही थे।
महिलाओं और युवतियों पर कहीं एसिड अटैक हो रहे हैं, तो कहीं लगातार हत्याएं-बलात्कार हो रहे हैं। इन घटनाओं से निपटने के लिए भारतीय नेतृत्व में इच्छा-शक्ति तो बढ़ी है लेकिन विडम्बना यह है कि आम नागरिक महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर स्वाभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मनःस्थिति के कायल हैं। हमारे देश-समाज में स्त्रियों का यौन उत्पीड़न लगातार जारी है लेकिन यह बिडम्बना ही कही जायेगी कि सरकार, प्रशासन, न्यायालय, समाज और सामाजिक संस्थाओं के साथ मीडिया भी इस कुकृत्य में कमी लाने में सफल नहीं हो पायी है।
कुछ वर्ष पूर्व दक्षिण भारत में एक बलात्कार की घटना और क्रूरता के बाद पुलिस पर अपराधियों के साथ बंदूक से न्याय करने का दबाव बना था। बाद में जब बलात्कारी पुलिस मुठभेड़ में मारे गये थे तो महिलाओं ने पुलिस का अभिनंदन किया था। यह भाव दशार्ता है कि आम धारणा बन रही है कि न्यायिक प्रक्रिया से संगीन अपराधियों को समय रहते समुचित दंड नहीं मिल पाता। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज भी पीड़ित महिला व परिजनों को न्याय पाने के लिये यातनादायक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। देश ने देखा था कि निर्भया कांड के दोषी सजा होने के बाद भी कानूनी दांव-पेचों का सहारा लेकर पुलिस-प्रशासन व न्याय व्यवस्था को छकाते नजर आए। इस घटनाक्रम ने शीघ्र न्याय की आस में बैठे लोगों को व्यथित किया था।
वहीं यौन अपराधों का आंकड़ा चैंकाने वाले स्तर तक बढ़ा है। यौन हिंसा के बाद तब तक मामला सुर्खियों में रहता है जब राजनीतिक दल राजनीति करते रहते हैं और मीडिया में मामला गर्म रहता है। फिर यौन पीड़िता का शेष जीवन सामाजिक लांछनों और हिकारत की त्रासदी के बीच गुजरता है। दरअसल, सत्ताधीश भी कोई गंभीर पहल नहीं करते जो पीड़िताओं का दर्द बांट सके और जांच व न्याय प्रक्रिया में तेजी लाकर नजीर पेश कर सके। तभी आपराधिक तत्वों को खेलने का मौका मिलता है। भारत में महिलाओं पर हमलावरों की मानसिकता का अध्ययन करने, समझने और उसमें बदलाव लाने का प्रयास बहुत कम होते हैं। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से निपटने का समग्र दृष्टिकोण अपराधियों के व्यवहार में बदलाव लाने के गंभीर प्रयासों के बगैर कभी पूरा नहीं हो सकता। बलात्कार की घटनाओं में कुछ हद तक कमी धीरे-धीरे लाई जा सकती है। यदि हम (समस्त) महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ पुरुष मानवीयकरण के लक्ष्य को भी सामने रखें। घर में पिता-पत्नी और बेटी का, और बेटा-मां और बहन का सम्मान करें। बाहर किसी भी स्त्री को कोई भी पुरुष इंसान की तरह मान कर सम्मान करें। सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस द्वारा आयोजित ‘किशोर वार्ता’ एक अन्य नया प्रयास था, जिसके तहत शरीर की समझ, यौनिकता, लड़के -लड़कियों में भेदभाव, मर्दानगी, मासिक धर्म, स्वपनदोष, लड़कियों की मोबिलिटी कंसेंट और शादी की उम्र आदि के बारे दृश्य-श्रव्य कहानियों की श्रृंखला तैयार की गईं। कोई भी अपने बेसिक मोबाइल फोन के जरिए एक निशुल्क नम्बर डायल करके इन ऑडियो कहानियों को सुन सकता है। ये प्रयास प्रभावशाली होने के बावजूद कुछ गिने-चुने शहरों तक ही सीमित रहे। और इस विकराल समस्या का समाधान करने के लिए काफी नहीं हैं। केंद्र सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित परियोजनाओं के लिए अपने स्तर पर वर्ष 2013 में निर्भया कोष को स्थापना की थी। हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता के लिए चिकित्सकीय, कानूनी और मनोवैज्ञानिक सेवाओं की एकीकृत रेंज तक उनकी पहुंच सुगम बनाने के लिए वन-स्टॉप सेंटर्स को शुरूआत की गई।
एक लोकोक्ति है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर “खाप पंचायते’ घेरे बैठे है। पुरुष समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर बे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रित हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तैर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने एवं बेचारगी को जीने को विवश होना पड़ता है। पुरुष वर्ग नारी को देह रूप में स्वीकार करता है, लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय देना होगा, उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा, बोझ नहीं शक्ति बनना होगा।
दुर्गा के रूप में पूजी जाने वाली शक्ति स्वरूपा स्त्री आज अधिकांश रूप में बेबस और लाचार नजर आती है। नारी का रूप बदला है किंतु नारी के प्रति संकीर्ण अवधारणाएं आज भी नहीं बदलीं बल्कि और संकीर्ण होती जा रही हैं। घर की लक्ष्मी बेटियां, गृहलक्ष्मी बेटियां, बहू लक्ष्मी आदि..और जब स्त्री क्लांत (गुस्सा) हो जाए तो वह दुर्गा का रूप ले लेती है जो ‘पाप का नाश’ के संदेश के रूप में नहीं बल्कि ‘नाशक’ के रूप में कही जाती है।