गणतंत्र भारत के निवासी होने के कारण हमें कर्म और अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त है। पर इस आजादी के लिए हमारे पुरखों ने मूल्य चुकाया है। अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में पुरुषों के साथ ही महिलाओं ने भी सक्रिय भाग लिया और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी थी। यह उनके देश प्रेम का परिचायक तो था ही साथ ही उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना का प्रखर स्वर भी था। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास के गगन में अनेक महिलाओं के नाम दैदीप्यमान हैं। आजाद हिन्द फौज की महिला पल्टन की सशस्त्र वीरांगनाएं हों, क्रान्किारियों की सतत् सहायता करने वाली वीर बालाएँ हों या फिर राजनीति के माध्यम से समाज जागरण का शंखनाद करने का महत्वपूर्ण काम, वह हर कहीं सफल रही है और अपनी छाप छोड़ी है। अपने शौर्य, मेधा, कर्मठता और चातुर्य से भारतीय गणतंत्र के निर्माण में महिलाओं का योगदान वरेण्य है।
सैकड़ों वर्षों तक हिन्दू राजाओं को एक ओर जहां विदेशी आक्रांताओं से लड़ना पड़ा, वहीं उन्हें अपने पड़ोसी राजाओं से मिल रही चुनौती का सामना भी करना पड़ा। मध्यकाल और अंग्रेज काल में कई राजाओं और रानियों को बलिदान देना पड़ा था। ऐसे कई मौके आए, जब राज्य की बागडोर रानियों को संभालना पड़ी और वे हँसते-हँसते देश पर अपनी जान न्योछावर कर गईं।
सन् 1857 भारतीय स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई, अंग्रेजों के बढ़ते हुये अत्याचार तथा राज्यों को हड़पने की नीति ने शासन के प्रति अविश्वास पैदा कर दिया था। जनता के मन में विद्रोह की आग सुलगने लगी। कानपुर और दिल्ली दो प्रमुख केन्द्र थे। उस समय कानपुर की क्रान्ति का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे। उन्हें दूसरे स्थानों की व्यवस्था देखने जाना था। अतः उन्होंने अपनी वीर बेटी मैना के हाथों में क्रान्ति की सारी बागडोर सौंप दी और वे अन्य स्थानों पर चले गये। शेर को भला अपनी बेटी पर अविश्वास क्यों? उस समय वीर सेनानी तात्याटोपे और बालासाहब वहीं थे।
देखते ही देखते कानपुर पर विद्रोहियों का कब्ज़ा हो गया। हजारों अंग्रेज मौत के घाट उतार दिये। सूचना इलाहाबाद तक पहुँची, अंग्रेजों की सेनाओं ने तुरन्त हो कानपुर की ओर मार्च कर दिया। कानपुर चारों ओर घेर लिया गया। शेरनी मैना ने अपने सैनिकों अलग-अलग कई टुकड़ियों में बाँटकर अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों को भागते ही बना, नगर के स्थान-स्थान पर लड़ाई शुरू हो ही चुकी थी, तब तक जनरल आउट्रक भी कई हजार सैनिक लेकर वहाँ आ पहुंचा।
अब अंग्रेजों के पैर फिर से जमने लगे और उन्होंने विद्रोहियों को गाजर-मूली की तरह से काटना शुरू कर दिया। बिठूर में नाना साहब का राजमहल लूट लिया गया; पर उसमें बहुत थोड़ी सम्पत्ति अंगरेज़ों के हाथ लगी। उनके घेरे में तात्या टोपे भी फंस चुके थे। 13 वर्षीय बालिका मैना ने जब यह स्थिति देखी तो एक क्षण के लिये वह हतप्रभ- सी रह गई। उसके मन में आया ‘तात्या टोपे’ का जीवन सभी सैनिकों में सबसे महत्त्वपूर्ण है। इतनी सूझ-बूझ वाला तथा अंग्रेजों को चकमा देकर काम बनाने वाला नेता फिर कहाँ से मिल सकेगा? तात्या के जीवन के साथ स्वतन्त्रता का यह खेल ही समाप्त हो सकता है अत: क्या ही अच्छा हो उसके स्थान पर मैं अपने प्राण देकर उसे इस घेरे से बचा दूं। मेरे मरने के बाद मुझ जैसी सैकड़ों बालायें कार्य करने वाली मिल जायेंगी, पर तात्या जैसा न मिलेगा।
दूसरे ही क्षण मैना ने अपने को तात्या के पास खड़ा पाया। उसने धीरे से तात्या के कान में कुछ कहा और शेरनी की भाँति सामने खड़े अंग्रेजों पर टूट पड़ी। एकदम अंग्रेज अपने को न सँभाल सके और तात्या को उस घेरे से निकल भागने का अवसर मिल गया। मैना काफी देर तक अंग्रेजों को पीछे खदेड़ती रही। कई घण्टे युद्ध करते-करते मैना थक गई थी उसे कुछ क्षण विश्राम की आवश्यकता थी, कि अचानक दूसरी ओर से गोरों पर सूबेदार टीकमसिंह ने आक्रमण कर दिया। शत्रुओं में खलबली मच गई।
मैना अवसर पाकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गई और गंगा के किनारे तात्या के पास आ खड़ी हुई। तात्या से उसकी बात-चीत चल ही रही थी कि घुड़सवार सैनिक उसके सामने आ खड़े हुए, उन्हें देख तात्या गंगा में कूदकर उस पार निकल गया। रह गई अकेली मैना, उसके चारों ओर घुड़सवार सैनिक खड़े थे। वह उन्हें देखकर गिड़गिड़ाई नहीं और न जीवन दान के लिए चिल्लाई ही, वरन् तलवार निकालकर सैनिकों के रक्त से उसकी प्यास बुझाई। वे सैनिक, घोड़ों पर से नीचे लुढ़क गये। मैना उनमें से एक घोड़ा लेकर भागने ही वाली थी कि अन्य सिपाहियों ने आकर उसे घेर लिया।
शत्रुओं के रक्त से तलवार की प्यास पूरी तरह न थी अत: उसने सामना करने वाले गोरे सैनिकों ही हाथ उठाया कि दुर्भाग्य से तलवार उसके छूटकर जमीन पर गिर गई। शत्रुओं के लिए इससे अच्छा अवसर कौन- सा हो सकता था? उन्होंने उसे बन्दी बना लिया और सेनापति के सामने लाकर उपस्थित दिया।
सेनापति ने अकड़ के साथ उससे पूछा ‘ तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है ? ‘
मेरा नाम मैना है और मैं नानासाहब पेशवा की बेटी हूँ।
अच्छा, जो हम लोगों का एक नम्बर का शत्रु है। तब तो तुम्हें अपने पिता का पता अवश्य मालूम होगा। बताने पर तुम्हें बहुत बड़ा इनाम मिलेगा और यदि पूछी गई बातों के सही-सही उत्तर न दिये तो तुम्हें ही जलवा दिया जायेगा। अब तुम्हारे सामने दो मार्ग है, जो चाहो उसे चुन सकती हो।’
वीर मैना को डराकर उससे कुछ गुप्त योजनाओं की जानकारी लेने के उद्देश्य से अंगरेज़ों सेना के टुकड़ी के सेनापति ‘हे’ ने तोप के गोलों से नाना साहब का महल भस्म कर देने का निश्चय किया। जब सैनिक दल ने जब वहाँ तोपें लगायीं, मैना ने अंगरेज़ सेनापति को गोले बरसाने से मना किया। सेनापति ने उससे पूछा, कि “क्या चाहती हे?!
मैना ने अंग्रेजी भाषा में कहा-
“क्या आप कृपा कर इस महल की रक्षा करेंगे?!
सेनापति -“क्यों, तुम्हारा इसमें क्या उद्देश्य है?”
बालिका – “आप ही बताइये, कि यह मकान गिराने में आपका क्या उद्देश्य है?”
सेनापति – “यह मकान विद्रोहियों के नेता नाना साहब का वासस्थान था। अंग्रेज सरकार ने इसे विध्वंस कर देने की आज्ञा दी है।”
बालिका – आपके विरुद्ध जिन्होंने शस्त्र उठाए थे, वे दोषी हैं; पर इस जड़-पदार्थ मकान ने आपका क्या अपराध किया है? मेरा उद्देश्य इतना ही है, कि यह स्थान मुझे बहुत प्रिय है, इसी से में प्रार्थना करती हूँ, कि इस मकान की रक्षा कीजिये।
आपकी प्यारी कन्या मेरी में और मुझ में बहुत प्रेम-सम्बन्ध था। कई वर्ष पूर्व मेरी मेरे पास बराबर आती थी और मुझे हृदय से चाहती थी। उस समय आप भी हमारे यहाँ आते थे और मुझे अपनी पुत्री के ही समान प्यार करते थे। मालूम होता हे, कि आप वे सब बातें भूल गये हैं। मेरी की मृत्यु से मैं बहुत दुःखी हुई थी; उसकी एक चिट्ठी मेरे पास अब तक है।” यह सुनकर सेनापति के होश उड़ गये। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, और फिर उसने उस बालिका को भी पहचाना, और कहा-“’अरे यह तो नाना साहब की कन्या मैना है!”
सेनापति ‘हे’ कुछ क्षण ठहरकर बोले-“हाँ, मैंने तुम्हें पहचाना, कि तुम मेरी पुत्री मेरी की सहचरी हो! किन्तु मैं जिस सरकार का नौकर हूँ, उसकी आज्ञा नहीं टाल सकता।
इसी समय प्रधान सेनापति जनरल अउटरम वहाँ आ पहुँचे, ओर उन्होंने बिगड़ कर सेनापति ‘हे’ से कहा-”नाना का महल अभी तक तोप से क्यों नहीं उड़ाया गया?
मौत से खेलने वाली मैना भला उन क्रान्तिकारियों को परम्परा को तोड़ती, जो हँसते-हँसते अपने प्राण दे सकते थे पर दल का भेद न बताते थे। उसका स्वाभिमान जाग उठा। गोरे सरदार ! तुम्हें शायद भारतीय वीरांगनाओं के इतिहास का पूरा-पूरा ज्ञान नहीं। धमकी सुनकर मुझे हँसी आती है क्योंकि यहाँ की वीरांगनाओं की आपत्ति के समय उसी ने तो लाज रखी है। भेद बताने से पहले तो खुशी-खुशी प्राण देना मैं अच्छा समझती हूँ।
जनरल को इस तेरह वर्षीय बालिका से यह आशा न थी। वह तो समझता था कि खाने और खेलने की इस उम्र में उसके प्रलोभन तथा भय का कुछ प्रभाव होगा पर वह अपनी असफलता को देख खीझ उठा, उसने चिल्लाकर कहा, सेनापति ‘ यह कोई शैतान लड़की मालूम पड़ती है। जो किसी प्रकार का भेद देना नहीं चाहती अतः ले जाकर इसे आग में जिन्दा जला दो। ‘
सजा सुनकर मैना का चेहरा दमक उठा। उसे प्रसन्नता हुई कि आज मुझे देश के लिए अपना जीवन समर्पण करने का अवसर मिल रहा है। उसने कहा ‘सेनापति मुझे कोई भी दण्ड दो, इसकी तनिक भी चिंता नहीं है। पर याद रखो तुम्हें हिन्दुस्तान शीघ्र ही खाली करना होगा, तुम इसे अब अधिक समय तक गुलाम बनाकर न रख सकोगे। और दूसरे दिन पौ फटने से बहुत पहले ब्रह्म मुहूर्त में ही उस बालिका को खम्भे से बाँधकर अग्नि को समर्पित कर दिया। जलते-जलते उसने नारे लगाये- ‘हिन्दुस्तान जिन्दाबाद! भारत माता जिन्दाबाद।’
उस समय महाराष्ट्रीय इतिहासवेत्ता महादेव चिटनवीस के “बाखर” पत्र में छपा था- “कल कानपुर के किले में एक भीषण हत्याकांड हो गया। नाना साहब की एकमात्र कन्या मैना धधकती हुई आग में जलाकर भस्म कर दी गयी। भीषण अग्नि में शान्त और सरल मूर्ति उस अनुपमा बालिका को जलती देख, सब ने उसे देवी समझ कर प्रणाम किया।”
मैना हमेशा के लिये चली गई पर उसका बलिदान क्रांति के इतिहास की धरोहर बन गया है। भला जिस देश में ऐसे बहादुर बालक, बालिकायें जन्म लेते हों, उसे किसी देश से डरने की भी आवश्यकता है?
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