मई माह के प्रारंभ होते-होते तापमान 40 को पार कर चुका है। भीषण गर्मी से तो लोग त्रस्त हैं ही, उस पर बिजली में कटौती के समाचारों ने रही-सही क़सर भी पूरी कर दी है। एक समय था, जब बिजली चले जाने पर लोग घर के बाहर निकल किसी वृक्ष के नीचे या लीपे हुए आँगन में आकर बैठ जाते थे, हाथ का पंखा झलते थे। प्राकृतिक हवा और प्रकाश से भी काम चल जाता था। लेकिन अब हम विद्युत पर इस सीमा तक निर्भर हो चुके हैं कि इसके बिना दिनचर्या सुचारु रूप से चल ही नहीं सकती! पूरी व्यवस्था ही ठप्प हो जानी है। अभी तो पानी के लिए भी परिस्थितियाँ गंभीर होंगी। आज नहीं तो कल, हम मनुष्यों को यह भीषण मंज़र देखना ही होगा! परंतु तब हमारे पास स्वयं को बचाने और जीवित रखने का क्या कुछ उपाय शेष होगा? इसका उत्तर जानने, समझने में किसी की रुचि नहीं!
यह पावन धरा, जिसे हम बड़ी शान से धरती माँ कहते नहीं अघाते, इसे सहेजने के लिए हमने किया ही क्या है? बस रौंदते ही तो चले जा रहे हैं। हमको छह लेन वाली सड़कें चाहिए, फिर भले ही उसके लिए जंगल के जंगल नष्ट कर दिए जाएं! हम बीच में एक पतली पट्टी पर कुछेक पौधे लगाकर क्षतिपूर्ति का झूठा ढोंग रचते रहते हैं। जबकि सैकड़ों वर्ष पुराने वृक्षों को उखाड़कर कागजी बोगिनविलिया की एक पंक्ति लगा देना खुद को धोखे में रखने से अधिक और कुछ भी नहीं! एक पौधे को लगाते हुए नेताजी और उनकी पूरी फौज की तस्वीर जरूर छपती है परंतु उस पौधे का कोई अपडेट देखने को नहीं मिलता!
हमने विकास की अंधी दौड़ में अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए नरक तैयार कर दिया है। न पहले से छायादार वृक्ष रहे और न ही उनसे मिलने वाली प्राणवायु बचेगी। धीरे-धीरे समस्त औषधीय स्त्रोत भी समाप्त हो जाएंगे। भूमि क्षरण यूँ ही बढ़ता रहेगा और जमीन के अंदर का पानी भी सूखता चला जाएगा। प्रदूषण की भयावह स्थिति से नित सामना हो ही रहा है।
कच्ची सड़कें पक्की होती जा रहीं हैं। गाँव शहर बनने की अंधी दौड़ में हैं। सबको ही सुविधा चाहिए। हमने आंदोलन करते किसानों को तो खूब भला-बुरा कहा लेकिन उस किसान पर एक पल को भी ध्यान नहीं गया जो कि प्रत्येक वर्ष मौसम की मार से झींकता, छाती पीट रो-रोकर अब थक चुका है, उसके पास अब तक ऐसे माध्यम नहीं उपलब्ध हो सकें हैं जिससे वह अपनी तैयार फ़सल को रातों-रात बारिश, आग या टिड्डियों से बचा सके। उसे कहीं सुरक्षित रूप से स्टोर कर सके। तंग आकर वह भी अब फैक्ट्री लगाने वालों को अपनी जमीन बेच रहा है। प्रतिदिन का तनाव कम करके वह एक मोटी रक़म के ब्याज से ही गुजर-बसर कर लेगा!
लेकिन खेती-बाड़ी ऐसे ही बंद होती रही तो हम खाएंगे क्या? कंक्रीट से पटी धरती के भीतर का पानी सूखता रहा, तो पिएंगे क्या? क्या अपने-अपने झंडे लहराने और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ठहराने के बाद हम जब पलटकर देखेंगे तो कुछ बचेगा जीने लायक़? कुछ मिलेगा ऐसा, जिस पर सचमुच गर्व किया जा सके? लाठियाँ और हिन्दू-मुस्लिम राजनीति काम आएंगी क्या?
पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठियाँ करने से हमारी धरती नहीं बचेगी! ओज़ोन परत में छेद हो या ग्लेशियर के पिघलने की बात, वैज्ञानिक हमें वर्षों से सचेत करते आ रहे हैं। हमें और जंगल बसाने चाहिए थे कि प्रकृति के कोप का भाजन न बनना पड़े लेकिन हमने उन्हें उखाड़ नई इमारतें खड़ी कर दीं। प्राकृतिक संसाधनों को सहेजना था, लेकिन उन्हें नष्ट कर, हमने गगनचुंबी पत्थरों पर गर्व किया। हम कभी ‘सेव टाइगर’ तो कभी ‘गौरैया बचाओ’ के नारे लगाते हैं, खोखली चिंता व्यक्त करते हैं लेकिन इमारतों के बनने के समय इन्हीं चिड़ियों के बसेरे को उजाड़ने में एक क्षण भी नहीं गँवाते! वो सारे पक्षी और जानवर कहाँ जाएं अब, जिनका घर हमने नष्ट कर दिया? जंगलों में जब आग लगती है तो बस लगती है। इसमें वन संपदा जलकर खाक हो जाती है, तो बस हो जाती है। हमने सदियों से उससे बचने के कोई उपाय सोचे ही नहीं! क्यों सोचें, हमने उन्हें अपना माना ही कहाँ! तभी तो न जाने कितने वन्य जीव भी उस आग में झुलस जाते होंगे, तड़प-तड़पकर मरते होंगें पर हमारा कलेजा एक बार भी नहीं काँपता! उनकी मौत किसी समाचार की हेडलाइन कभी नहीं बनी!
माना कि जब किसी नई परियोजना के चलते किसी गाँव के खेत नष्ट किए जाते हैं तो उन किसानों को उनकी जमीन का मुआवजा दे दिया जाता है लेकिन उस स्थान के पक्षियों और जानवरों को कहीं बसाया जाता है क्या? उनके लिए कोई परियोजना बनी है क्या? हाँ, खबरें आती हैं कि फलाने साहब के बंगले में चीता घुस आया, जंगली जानवर आ गए! जबकि सच यह है कि उन साहब ने चीते के घर में अपना बंगला घुसेड़ दिया है! जानवर को गोली मार, घसीटकर ले जाया जाता है, ये सोचे बिना कि उसका दोष क्या है? कहाँ रहेंगे वे? उन्हें किस बात का दंड दिया जाता है? किसी दिन यदि वे भी ‘सभ्य’ मनुष्यों की तरह लाठी, दंगे और बुलडोज़र संस्कृति की भाषा सीख गए तो सब तहस-नहस हो जाएगा! लेकिन इतने अत्याचार के बाद जानवरों का हक़ बनता है कि वह मनुष्य प्रजाति से प्रश्न करे।
पारिस्थितिक तंत्र से यह खिलवाड़ ही सारी समस्या की जड़ है। हमें बढ़ती गर्मी की बहुत चिंता है लेकिन हमने हमारे गाँव के कुंए को पाट दिया, नदियों को सूखने दिया। पहाड़ों को काटते जा रहे हैं। हम सारी दुनिया के समक्ष गर्व से धरती माँ को पूजने की बात करते हैं, गंगा और तमाम नदियां हमारी माँ हैं, तुलसी जी भी मईया हैं, नीम-पीपल और तमाम औषधीय वृक्षों पर देव का वास मानते हैं, उनसे विवाह की परंपरा भी रही है, मन्नत का धागा बांधते हैं परंतु जब स्वार्थ की बात आती है तो इन पर कुल्हाड़ी चलाने में जरा भी गुरेज़ नहीं करते!
इतिहास कहता है कि पुराने शासकों ने खूब बावड़ी बनवाईं, वृक्ष लगवाए, मुसाफ़िरों के ठहरने को सराय बनवाईं, जानवरों के लिए भी ठहरने की व्यवस्था होती थी, पक्षियों को दाना-पानी रखने के लिए सुंदर स्थान बनाए जाते थे। लेकिन हमें तो आपस में लड़ने से ही फुरसत नहीं। जिन महाशक्तियों को बढ़ते प्राकृतिक असंतुलन पर ध्यान देना चाहिए, संतुलन के उपाय खोजने चाहिए थे, उनका सारा ध्यान तो युद्ध पर केंद्रित है। विनाश के पक्षधर देशों से निर्माण की आशा रखना निरर्थक है।
सब अपना-अपना प्रभुत्व जमाने और सत्ता स्थापित करने में लगे हैं। वे इस बात को भूल रहे हैं कि विलुप्तिकरण की अगली श्रृंखला में अब नष्ट होने की बारी हमारी ही है।
चलते-चलते: 1 मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में इसलिए मनाया जाता है कि हम श्रमिकों की उपलब्धियों का सम्मान करें और उनके योगदान का स्मरण रखें। इसका मूल उद्देश्य मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाना एवं उनके शोषण को रोकना है।
साथ ही मई महीने के पहले रविवार को ‘विश्व हास्य दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह दिन लोगों में हँसी के स्वास्थ्य लाभ और उसके सकारात्मक चिकित्सीय प्रभावों को इंगित करने के लिए भी होता है। संयोग से आज 1 मई को ही हास्य दिवस भी है। लेकिन कुछ लोगों ने हर बार की तरह ‘मजदूर दिवस’ को पति/पत्नी के किए गए कार्यों की सूची से जोड़कर इसे ही ‘हास्य दिवस’ बना दिया। हास्य का यह प्रकार अत्यंत क्रूर, हल्का और बेढंगा है। कुछ दिवस अतिरिक्त संवेदनशीलता की माँग करते हैं।