आदिवासी का अर्थ है मूलनिवासी जो मूल रूप से इस धरती पर निवास कर रहे हैं। आदिवासियों को अनेक नामों से भी जाना जाता है जैसे- मूलनिवासी, वनवासी, जंगली, आदिमानव, आदि। जंगल में रहने के कारण उनका पूरा जीवन प्रकृति पर निर्भर है। जंगल को वे अपना भगवान मानते हैं। आदिवासियों का निवास जंगल में होने के कारण वे शिक्षा से वंचित रहे। स्कूल जाने के लिए उनके पास सुविधाएँ नहीं थी तथा गरीबी, शोषण, आदि के कारण वे शिक्षा से दूर रह गए है। इसी के साथ भूमंडलीकरण का प्रभाव अधिक मात्रा में आदिवासी समाज पर पड़ा। इसी संदर्भ में डॉ. संजय नवले अपने लेख ‘भूमंडलीकरण और आदिवासी’ में शिक्षा व्यवस्था का वर्णन करते हुए लिखते हैं- “ भूमंडलीकरण के कारण शिक्षा बेची जा रही हैं। जिनके पास पैसा है उनकी अलग शिक्षा व्यवस्था की जा रही है। जो गरीब झोपड़पट्टी में रहते हैं, उनको नगरपालिका, महानगरपालिका के स्कूल में जाना पड़ता है। जिनके पास पैसा है उनके बच्चे, नवीन तकनीकी के आधार पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। ट्यूशन, नवीन उपकरण की सुविधा उनके लिए होती है। आगे यही युवा अच्छे पदों पर विराजमान होते हैं। जंगलों में, पर्वतों में, गांव में रहने वाले बच्चे, पारंपरिक शिक्षा के कारण वही के वही रह जाते हैं। उनके नसीब में चपरासी की नौकरी होती है। हां, गरीब बच्चों के पास मेहनत, बुद्धि होती है परंतु पैसों के कारण वहां तक वे पहुंच नहीं पाते। भूमंडलीकरण के कारण बनी व्यवस्था के कारण कुछ लोग, जमीन जायदाद बेचते हैं और अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसा खर्च करते हैं।” इस प्रकार से भूमंडलीकरण के कारण बनी शिक्षा व्यवस्था ने आदिवासियों के बच्चों को परेशान करके रखा है। ना वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं और ना ही अच्छी नौकरी। नवीन सुविधाएं, तकनीकी, नए उपकरणों का प्रयोग भी वे नहीं कर पा रहे है। अपनी जमीन, जायदाद बेचकर आदिवासी अपने बच्चों को शिक्षा दे रहे है। शिक्षित होने के बावजूद भी उनको कही नौकरी नसीब नहीं है। नौकरी ना मिलने के कारण उनको यहाँ-वहाँ भटकना पड़ रहा है।
नवले जी के अनुसार-“प्रतियोगिता में सब बराबरी की होनी चाहिए। बात गुण कॅश करने की है तो यहां जंगलों में रहने वाले, पहाड़ों के बीच जिंदगी गुजारने वाले, गांव के बाहर झोपड़पट्टी में रहने वाले, गांव में स्कूल है लेकिन चार कक्षाओं के लिए एक ही शिक्षक है, गांव में समय पर बिजली नहीं है, जंगलों में तो सुविधाओं का सवाल ही नहीं आता, मोबाइल, कंप्यूटर खरीदने के लिए इनके पास पैसे नहीं हैं, बुआई के बाद बीज खरीदने के लिए साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता हैं, कंप्यूटर कहां से वे अपने बच्चों को देंगे, ये बच्चे कैसे तो इधर उधर काम करके अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं और नौकरी के लिए प्रयत्न करते हैं, तकनीकी दुनिया की दौड़ में आदिवासी बच्चे पीछे रहते हैं आदि कारणों से। यह कैसे अपने गुण कॅश करेंगे।” इस प्रकार से भूमंडलीकरण के कारण आदिवासी बच्चे पीछे पड़ रहे हैं क्योंकि उनके पास उतना पैसा नहीं है ताकि वे जाकर नई तकनीकी, उपकरणों का सामना करें। उनके गांव में नवीन सुविधाएं भी नहीं पहुंच पा रही हैं।
भूमंडलीकरण या तकनीकी दुनिया में एक तरफ स्कूल, कॉलेज में फीस बढ़ती जा रही है जिसके कारण आदिवासी बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं और उन्हें अच्छे पद पर नौकरी भी नहीं मिल पा रही है। अज्ञानी होने के कारण उनके ऊपर अन्याय, अत्याचार, शोषण और बढ़ता जा रहा है। यह भी देख सकते है कि आगे जैसे-जैसे आदिवासी समाज शिक्षित होता गया वह अपनी पहचान और आदिवासीयत को भूलने लगे। इसी परिप्रेक्ष्य पर आधारित सी. भास्कर राव की कहानी ‘जोहार, गोपू दा’ को देखा जा सकता है। कहानी में शिक्षित आदिवासी युवक अपने नाम को हटा रहे है। खान-पान में बदलाव तथा वे आदिवासी से गैर आदिवासी बन रहे हैं। कहानी में एक अंश है जिससे इस तथ्य को देख सकते है –“ वह आदिवासी लुक दिनोंदिन कम हो रहा है। अब वे आदिवासी रहे भी कहां। गोरी, सुंदर, गैर आदिवासी पत्नी और गोरे चिकने बच्चों ने तो उनकी अपनी रंगत भी बदल डाली। थैंक गॉड उनके बच्चे, बेटा और बेटी दोनों सात रंग के हुए। पत्नी जब भी गर्भवती हुई, उन्हें यही चिंता सताती रही थी कि कहीं बच्चों पर उनके अपने काले रंग का प्रभाव न पड़ जाए।” इस प्रकार से वे आदिवासी होने का गर्व महसूस करने के बजाए अपने नाम तथा पहचान को मिटा रहे हैं। आदिवासी लड़की के बजाय वे गैर आदिवासी लड़कियों से शादी कर रहे है ताकि बच्चें उनके जैसे बनें। गैर आदिवासियों का भी इसके पीछे उद्देश्य है कि उनकी योजनाओं का उपयोग करें। सरकार द्वारा बनाए गए योजनाएं तथा आरक्षण का लाभ उठाते समय उनको शर्म नहीं आती है।
कहानी का पात्र गोपेश्वर ऊंचा पद प्राप्त होने के पश्चात आदिवासीयत को छुपाने के लिए अपना नाम तक हटा रहा है। ऊंचे पद पर विद्यमान होने से अपने आपको आदिवासी कहने के लिए उनको शर्म आती है। वे अपने साथ-साथ अपने परिवार का भी नामकरण कर रहे हैं। सरनेम के कारण जाति पता चलती है जिसके कारण वे अपने सरनेम को भी हटा रहे है। इसी संदर्भ में कहानी में भास्कर जी लिखते हैं “गोपेश्वर ने सुमिता से भी कहां है कि चाहे तो वह अब भी सुनीता सिन्हा ही लिखें या फिर सिर्फ सुनीता। बच्चों के नाम के साथ भी उन्होंने हेंब्रम नहीं लगाया। सिर्फ रिंकी, पिंकी। यह हेंब्रम शब्द उनकी कनपटियों पर घूँसा सा मारने लगा था। इसे उखाड़ ही फेंका उन्होंने। गोपेशर से गोपेश्वर हो गए। अब उन्हें अच्छा लगता है कि लोग सिर्फ नाम देखकर सोच ही नहीं पाते हैं इतना बड़ा अफसर एक आदिवासी है।” इस प्रकार से आदिवासी समाज पढ़ लिख कर अपने समुदाय को आगे बढ़ाने की जगह वे समुदाय को भूल रहे हैं। अपना नाम, अस्तित्व, पहचान को वे मिटा रहे है।
कहानी में गोपेश्वर नौकरी प्राप्त करने से पहले अपने गांव में आदर्श की बातें करता है लेकिन नौकरी प्राप्त होने के बाद सब कुछ बदल जाता है। पढ़े-लिखे आदिवासी पहले समाज के हितों के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। नौकरी मिलने के बाद वे गाँव छोड़कर शहरी जीवन जीना पसंद कर रहे है। खान-पान, पहनावा, विचार, भाषा, आदि में बदलाव आता जा रहा है। आज वे बड़ी-बड़ी गाडियों में घुम रहे है, बड़े-बड़े हॉटलों में कांटा-चम्मच से खाना खा रहे है। अपने गाँव, समाज, संस्कृति, अस्तित्व को वे भूल रहे है। यही तत्थ हम गोपेश्वर के माध्यम से इस कहानी में देख सकते है- “नौकर ने रसोई से आकर प्लेटें, चम्मच, छुरी-काँटे और गिलास डाइनिंग टेबल पर सजा दिए थे। सुबहके नाश्ते में ढेर-सी चीजें थी। कस्टर्ड, कार्न फ्लेक, पोच, टोस्ट, दूध्। सब कुछ पौष्टिक, स्वादिष्ट्। दोनों ने नेपकिंस डाल लिए धीरे-धीरे बातें करने लगे। सभ्य-शिष्ट ढंग से।” आदिवासी समाज दिन-रात मेहनत करके अपनी खेती या जंगल से मिले चीजों को वे खाना पसंद करते है। चावाल, गेहू की रोटी, माडभात, कंदमूल, महुवा, आदि उनका प्रमुख खान-पान है। गोबर तथा मिट्टी का लेप लगाए हुए जमीन पर बैठकर हँडिया, केले का पत्ता, मिट्टी के बर्तन, आदि में खाना वे खाते है। इस कहानी के माध्यम से देखा जा सकता है की किस प्रकार से शिक्षित आदिवासियों का आधुनिकीकरण हो रहा है।
शिक्षा के प्रभाव के कारण कई आदिवासी अपने साथ-साथ अपने परिवार को भी अपने साथ आगे बढ़ा रहे है, पर कई आदिवासियों के अंतर्गत अहंकार की भावनाएँ जागृत हो रही है। कहानी का पात्र सुमेरू कहता है “गोपू दा, शायद आपको याद नहीं होगा। जब आप कॉलेज में पढ़ते थे और छुट्टियों में जब भी गांव आते थे, हम बच्चों को बैठाकर पढ़ाते थे। कितना कुछ सिखाते थे आप हमें। आप कहते थे, ‘हम आदिवासियों को हर क्षेत्र में आगे बढ़ना है, हर चुनौती स्वीकार करनी है। जो हमारा हर स्तर पर शोषण करते हैं, उनसे हमें लड़ना है। आप प्राय: कहा करते थे, हमें अपने पिछड़ेपन से बाहर आना है। एक सामाजिक पहचान और प्रतिष्ठा हासिल करनी है हमें। अपने पूरे आदिवासी समाज को निरंतर आगे बढ़ाना है। हमारे आदर्श पुरुष आप ही थे, गोपू दा। आपके आदर्शों को लेकर आदिवासियों की हमारी यह युवा पीढ़ी आगे जा रही है, लेकिन इस बात का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ने का अर्थ सिर्फ अपने को आगे बढ़ाना नहीं और न ही अपने जड़ों से कट जाना है। बस, मुझे इतना ही कहना था। मैं चलता हूं। जोहार, गोपू दा।” इस प्रकार से आदिवासी समाज पहले आदर्श की बातें करते हैं और सब कुछ प्राप्त करने के पश्चात उन आदर्शों को भूल जाते हैं। कहानी में सुमेरू गोपेश्वर को जागृत कराता है और जिस अंधेरे में वह डूबा था उसे प्रकाश में लाता है। आज भी हमारे देश में कई आदिवासी समाज पढ़ा-लिखा है। कई आदिवासी अच्छे पद पर विद्यमान है। शिक्षित होकर कई आदिवासी शिक्षा का गलत प्रयोग कर रहे है। वे अपने अस्तित्व, पहचान, अपने समाज, आदि को वे भूल रहे है। उंच्चा पद मिलने के कारण वे अपने ही समाज के लोगों का शोषण कर रहे है। स्वार्थपरख जीवन वे जीने लगे है। अब आगे ऐसा ही होता रहेगा तो आदिवासी समाज का विकास कैसे होगा? शहरी जीवन जी कर हमें गांव को नही भूलना है। अपने साथ अपने परिवार तथा समाज को भी आगे बढ़ाना है। शिक्षा प्रभाव के कारण आज आदिवासी समाज गैर आदिवासी बनते जा रहे है। स्वयं को जंगली या आदिवासी कहने में उनको शर्म आ रही है। अपने शरीर के काले रंग को वे गोरा बना रहे है ताकी लोगों को पता चले की हम गैर आदिवासी है। शिक्षित होने के कारण उनकी भाषा में भी बदलाव आ रहा है। खान-पान, पहनावा, संस्कृति, परंपरा, आदि बदल रही है। हमें पढ़-लिखकर हमारे समुदाय को बचाए रखना है क्योंकि वही हमारी पहचान है।