आधुनिक हिंदी कथा लेखिकाओं मैं उषा प्रियंवदा का नाम किसी भी साहित्य प्रेमी के लिए अपरिचित नहीं है। पचपन खंभे लाल दीवारें, रुकोगी नहीं राधिका जैसे उपन्यास तथा वापसी जैसी सशक्त कहानी के माध्यम से उषा जी ने अपनी एक खास व अलग पहचान बनाई है। कथा की रोचकता एवं भाषा की सहजता के कारण इनका लेखन पाठक को सहज ही एकाकार कर लेता है। इनके साहित्यिक पात्र पाठक के मन के पात्रों से ऐसे मिल जाते हैं जैसे कि दोनों एक हो। 24 दिसंबर 1930 को कानपुर में जन्मी उषा जी ने विंस्कासीन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्य करते हुए वर्तमान में अमेरिका में निवास कर रही हैं। 2019 में इनका उपन्यास अल्प विराम काफी चर्चित रहा है। इसके अतिरिक्त इनके प्रमुख उपन्यास है — पचपन खंभे लाल दीवारें, रुकोगी नहीं राधिका, शेष यात्रा, अंतर्वंशी, भया कबीर उदास, नदी। उषा जी के प्रमुख कहानी संग्रह है फिर वसंत आया जिंदगी और गुलाब के फूल एक कोई दूसरा कितना बड़ा झूठ है। उषा जी ने अंग्रेजी में मीरा बाई और सूरदास के पदों का अनुवाद किया है। उषा जी की प्रमुख कहानी वापसी को केंद्र बनाकर नामवर जी ने नई कहानी और पुरानी कहानी के मध्य विभाजक रेखा खींची थी।
एक आंदोलन के रूप में प्रारम्भ होने वाली नई कहानी ने एक विशाल रचनात्मक परिदृश्य का निर्माण किया। नये कहानीकारों की जिस पीढ़ी ने इस परिदृश्य का निर्माण किया उसमें महिला कथाकारों की समान भागीदारी रही है। जिस तरह से राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, अमरकांत, निर्मल वर्मा आदि ने कहानियों के माध्यम से नई कहानी को समृद्ध किया उसी प्रकार से कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा भी अपनी विशिष्ट लेखन प्रतिभा से पाठकों पर अपनी अलग छाप छोड़ने में सफल हुई हैं। इन तीनों महिला कथाकारों ने अपनी शुरुआत मानवीय सम्बन्धों पर केन्द्रित कहानियों से की। समय के साथ कृष्णा सोबती और मन्नू भण्डारी ने पारिवारिक स्थितियों और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों से आगे बढ़कर अपने कथा फलक का विस्तार किया।
‘उषा प्रियंवदा’ का कथा साहित्य इन सबसे भिन्न है। कृष्णा सोबती के साहित्य में खुलापन अवश्य है पर अभिव्यक्ति का स्तर सिमटा हुआ है, मन्नू भण्डारी के पात्र हमेशा अन्तर्द्वन्द्व से जूझते हैं, पर उषा जी की नायिकाएं घुटन एवं कुण्ठा होने पर भी उनसे ऊबर गयी हैं। उनके पास वह साहस है कि समाज के दोहरे मापदण्ड को तोड़ सकें। उषा जी में न तो कृष्णा जी जैसा बेबाकपन है और न ही ठेठ मध्यवर्गीय परिवेश, पर इससे इतर उनमें वर्णन की सहजता व सोबरपन है। उषा जी ने जब लेखन कार्य प्रारम्भ किया उसके कुछ समय बाद ही ‘नई कहानी’ आन्दोलन की शुरूआत हुई जिसके अर्न्तगत उषा जी की विशेष चर्चा हुई। उषा जी की कहानियों में ‘नई कहानी’ की मूल संवेदना स्पष्ट दृष्टिगत होती है। इसी कारण वह नई कहानी की सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरीं। नई कहानी की समस्त प्रवृत्तियाँ इनकी कहानियों में दृष्टिगत होती हैं।
‘नई कहानी’ का नारा ‘भोगा हुआ यथार्थ’ है। उषा जी की हर कहानी में हमें यथार्थ की स्पष्ट झलक मिलती है। इनकी प्रत्येक कहानी अपने में उसका रेशा-रेशा सुरक्षित रखे बैठी है। यह बात अलग है कि अभिव्यक्ति के माध्यम तथा स्तर अलग-अलग है। इसी कारण इनकी कहानियाँ पाठक की अपनी कहानी लगती है न कि रचनाकार द्वारा रचित प्रतीत होती है। लेखिका मानवीय यथार्थ प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद समाज के समक्ष जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या बन कर खड़ी हुई थी वह है धनाभाव व बेरोजगारी। कहानी ‘पैरम्बुलेटर’ में नौकरी छूट जाने के बाद धनाभाव की मार सहता परमेश्वरी जब पानी सी दाल खाते हुए कालिन्दी के दुबले मुँह पर लावण्य की क्षीण होती आभा का देखता है तो उसके गले में कौर अटकने लगते हैं। अर्थाभाव से उत्पन्न दुःख की पराकाष्ठा तब देखन को मिलती है जब वे दोनों अपने बच्चे की दवा नहीं कर पाते हैं।
इसी प्रकार नई कहानी की प्रथम और सर्वाधिक चर्चित कहानी वापसी कहानी में धनोपार्जन के निमित्त मात्र वृद्ध गजाधर बाबू का पलायन पाठक को भीतर तक बेध जाता हैं। उदासीनता की पीडा ‘वापसी’ के गजाधर बाबू से ज्यादा और कोई नहीं समझ सकता। इस पीटा का अहसास उस व्यक्ति को ही हो सकता है जो अपने ही घर में अपने परिवार द्वारा निष्कासित हो। उनके वापस जाने पर किसी के आँखों में एक आँसू नहीं आते हैं। कहानी के अन्त में उनकी पत्नी का यह कथन सभी संवेदनाओं की मौत का प्रतीक बन कर स्पष्ट कर देता है कि -“अरे नरेन्द्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है। इसी प्रकार कोई नहीं’ का अक्षय, ‘पुनरावृत्ति’ का चिरंतन, ‘पिघलती हुई बर्फ का अक्षय, ‘चांदनी में बर्फ पर’ का हेम आदि में हमें इसी प्रकार तटस्थता व संवेदना का ह्रास दृष्टिगत होता है।
उषा जी पुराने कहानीकारों की भाँति कहानियाँ गढ़ती नहीं हैं बल्कि जो अनुभुति से उत्पन्न हुआ उसे पन्नों पर उतारती है। वह पूर्व कहानीकारों की भाँति समस्याओं का निदान प्रस्तुत नहीं करती बल्कि समस्याओं में स्वयं सफर करती है। जिंदगी और गुलाब के फूल, वापसी मछ्लियाँ आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं जो कोई समाधान नहीं प्रस्तुत करती बल्कि समस्या में ही सफर करती हैं।
उषा जी ने अपनी कहानियों में जो पात्र लिये हैं वे हमारे जीवन व समाज के हैं। इनके सभी पात्र अपनी समस्त अच्छाइयों तथा बुराइयों के साथ प्रस्तुत हुए हैं। पूर्ववर्ती कहानियों के समान बने-बनाये मर्यादा के ढांचे में यह फिट नहीं होते। एक कोई दूसरा’ में नीलांजना की अनुभूति अपने जैसी लगती है। उसमें दूसरों की तकलीफ जैसा कुछ नहीं है। गुरू और शिष्या के बने-बनाये आदर्श के विपरीत यह कहानी नई संवेदना को प्रकट करती है। पूरी कहानी में घटनाओं का चलचित्र नहीं है बल्कि वह एक संवेदना पर टिकी हुई है। नई कहानी में कोई भी क्षण या मूड कहानी का निर्माण कर देते हैं। यह बात अक्षरशः इस कहानी पर प्रमाणित होती है।
‘नयी कहानी’ ने अधिकांशतः मध्यवर्गीय जीवन को अपना मुख्य वर्ण्य विषय बनाया है। मध्यवर्ग के सभी पहलुओं (आशा-निराशा, सुख-दुख, घुटन, अनास्था, बेरोजगारी, संत्रास आदि) का चित्रण इनकी कहानियों में अपने खुरदुरे यथार्थ में उपस्थित है।
‘नयी कहानी’ में संयुक्त परिवारों के विघटन को मुख्य रूप से उभारा गया है। स्वतन्त्रता के बाद शिक्षा, नौकरी, महानगरों का विलासी जीवन आदि कारण परिवार की श्रृंखला को तोड़ने में सहायक हए हैं। उषा जी की कहानियों में जहाँ भी यह समस्या आई है उसका मार्मिक चित्रण मिलता है। व्यक्ति के जीवन में छोटी-छोटी घटनायें भी कैसे परिवार को बिखेर देती हैं इसका सजीव चित्रण उषा जी की कहानीयों का वैशिष्ट्य है।
आज के मशीनीकरण और महानगरीय जीवन में व्यक्ति को दूसरों से तो बहुत अपेक्षायें हैं परन्तु वह स्वयं उसका निर्वाह नहीं करता है। दूसरों की तकलीफ और भावनाओं को न समझना, उनकी कद्र न करना ही पारिवारिक विघटन का कारण बनते हैं। उषा जी की कहानियों में न तो परिवार का आदर्शवादी रूप है और न ही पूर्ववर्ती कहानियों की भाँति परिवार की श्रृंखला को बचाये रखने वाले पात्र हैं। संयुक्त परिवार में पुरानी पीढ़ी के फालतू हो जाने का बोध ज्यादा प्रमुखता से चित्रित हुआ है।
उषा जी की कहानी में तथाकथित प्रेम का मर्यादित रूप हमें कम ही देखने को मिलता है। आज प्रेम में केवल प्रेम नहीं बल्कि स्वार्थ, तटस्थता आदि भी समाहित हो गये हैं। अब प्रेम संबंध को तोड़ने के लिए न तो समाज और न ही कोई अन्य पात्र उपस्थित है। आज व्यक्ति का अपना अस्तित्व ही बीच में विघ्न उत्पन्न कर रहा है। वर्तमान युग में प्रेम का आधार सिर्फ हृदयगत वैशिष्ट्य ही नहीं रह गया है बल्कि इसमें शरीर सुख का भी समावेश हो गया है जिसे उषा जी ने यथार्थपरक रूप में पाठक के समक्ष उपस्थित किया है।
प्रेम पर ही स्त्री पुरुष संबंधों की नींव पड़ी है। नई कहानी में विषय की दृष्टि से देखा जाय तो स्त्री पुरुष संबंधों पर सर्वाधिक कहानियाँ लिखी गई हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों, और प्रेम के विविध पक्षों को लेकर जो कहानियाँ लिखी गई उनमें विषय की मार्मिक व्यंजना करने तथा अभिव्यक्ति को यथार्थता प्रदान करने में उषा जी को विशेष सफलता मिली है।
स्त्री पुरुष के संबंधों में देह अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है। सम्भवतः इसीलिए उषा जी की कहानियों में यह किसी सामाजिक अथवा संवैधानिक नियमानुसार नहीं बल्कि परिस्थितियों व स्वेच्छा से उद्भूत दिखाई देता है। इस संबंध के और भी अनेक पहलू हैं जो उषा जी की रचनाओं में दिखाई देते हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों में किसी को पूरी तरह अपना लेने की इच्छा केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि भावनात्मक स्तर पर भी चित्रण में आया है। एक कोई दूसरा, पूर्ति, दृष्टिकोण आदि कहानियों को उषा जी ने इसी तथ्य से उठाया है।
उषा जी ने कृतिकार की ईमानदारी के साथ जीवनानुभव की प्रामाणिकता को कहानी में उतारते हुए वर्जित सत्यों को भी जिस साहस और सहजता से प्रस्तुत किया है उसका सबूत चांदनी रात में बर्फ पर, मछलियां, पिघलती हई बर्फ, सागर पार संगीत जैसी कहानियाँ हैं। इन कहानियों में बनना जैसा कुछ नहीं है बल्कि विवेकपूर्ण व्यवहार के साथ गहरी करुणा से इस रिश्ते की नियति को वे रेखांकित करते हुए चलती हैं।
उषा जी की कहानियों का कला पक्ष भी संवेदना पक्ष की भाँति पुष्ट है। शिल्प उषा जी के लिए सहज अभिव्यक्ति का हिस्सा है और अभिव्यक्ति का संयम रचनात्मक प्रभाव का खास गुण है। इनकी कहानियाँ हमें चौंकाती या चमत्कृत नहीं करती हैं बल्कि प्रभावित करती हैं। उषा जी की कहानियाँ कथ्य के स्तर पर ही नहीं बल्कि शिल्प के स्तर पर भी नयापन लिये हुए है। उषा जी की पूर्ति, संबंध, प्रतिध्वनिया, एक कोई दूसरा, टूटे हुए आदि ऐसी कहानियाँ है जिसमें घटना का वाचाल चलचित्र नहीं है बल्कि कुछ भाव और विचारों ने ही कहानियों की निर्माण कर दिया है। कथानक का ह्रास उषा जी की कहानी की सर्वप्रधान विशेषता है। उषा जी की कहानी में नाटकीयता या नाट्य दृश्यता अधिकांशतः पात्र के अन्तर्द्वन्द्व और दुविधाग्रस्त मन के रूप में दिखाई पड़ती है। इसके साथ ही वर्णन की तटस्थता से पाठक पहली बार रू ब रू होता है।
उषा जी के कथा साहित्य पर अनेक शोध हो चुके हैं। यह लेख नई कहानी के परिप्रेक्ष्य में उषा जी के कहानी संसार के चित्र का एक अंश मात्र है।