ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर जी कहते हैं कि
“बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो”
पुस्तक और पाठक का बंधन इतना अटूट है कि वे लेखक जिन्हें हमसे दूर हुए सदियाँ बीत गईं, उनके शब्द अब भी हमारे साथ चलते हैं। न जाने वेदव्यास जी की असल तस्वीर कैसी होगी, न जाने वाल्मीकि जी कैसे दिखते होंगे लेकिन महाभारत और रामायण रचकर वे आज तक हमसे बतिया रहे हैं। हमारी पीढ़ियों ने उन्हें पढ़ा, उनसे सीखा। समाज में आदर्श की स्थापना हुई।
हम उदासी में होते हैं तो गालिब और मीर को गुनगुना लिया करते हैं, जॉन एलिया को याद करते हैं। वे सशरीर उपस्थित नहीं पर उनके शब्दों की विरासत है हमारे पास, जो अब भी अलग-अलग रूपों में आकर हमसे मिलती है। कभी किसी का हौसला बन दुष्यंत कुमार कह जाते हैं कि “कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।”
सुभद्रा कुमारी चौहान कहती हैं कि “बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी/ खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।” हमने यह बात हरबोलों से नहीं, सुभद्रा जी की कविता से ही सीखी-समझी। एक ऐसी कविता जिसे गाकर आज भी दिल में जोश भर जाता है, जो नस-नस में देशभक्ति और वीर रस का संचार कर देती है। वे बच्चों को यह भी बता जाती हैं कि अपनी माँ से कहना कि “यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे/ मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।”
जाड़ों में जब स्वेटर का जिक्र हो और दिनकर जी आकर ऊन के मोटे झिंगोले और चाँद के कुर्ते की याद न दिलाएं ऐसा हो ही नहीं सकता!
बच्चों का मन बड़ा कोमल, संवेदनशील होता है तभी तो प्रेमचंद का हामिद और बूढ़ी काकी के किस्से उसे जीवन भर को याद रह जाते हैं। इन चरित्रों के माध्यम से उसका चरित्र बनता है। प्रेमचंद जी की ‘ईदगाह’ में जब हामिद, अमीना को चिमटा देते हुए अपराधी-भाव से कहता है..- “तुम्हारी अंगुलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।”… तब कैसे हम सबका मन हामिद को सब कुछ ख़रीदकर देने का हो जाता था। बचपन में पढ़ी उस कहानी के नन्हे हामिद की यह भावना आज तक दूसरों के लिए पहले सोचने को विवश कर देती है। निराला जी की ‘वह तोड़ती पत्थर’ ने हमें मेहनत और लगन से काम करने की प्रेरणा स्कूल के दिनों से ही दी है। हिन्दी ने हमारी झोली में न जाने कितने सितारे भर दिए हैं।
वे पुरानी पुस्तकें और उनकी भाषा, अब भी स्मृतियों से झाँक हमारे मन को सहला जाती हैं, हमें सुकून देती है। उत्तम लेखन, उत्तम विचार एवं सीख देता है। पुस्तकें नारे नहीं लगाती, थोथी क्रांति का ढोंग नहीं रचतीं, निरर्थक हुंकारती नहीं बल्कि बड़ी सरलता और मुलायम तरीके से हममें देशभक्ति का बीज बो देती हैं और यह भाव जीवन भर साथ चलता है। ‘पुष्प की अभिलाषा’ में माखनलाल चतुर्वेदी कहते हैं कि “मुझे तोड़ लेना वनमाली!/ उस पथ पर देना तुम फेंक/ मातृभूमि पर शीश चढ़ाने/ जिस पथ जावें वीर अनेक।”
बचपन में पढ़ी हुई यह कविता इतने भीतर तक बैठी हुई है कि हमारे सैनिकों की जब-जब बात आती है तो सीना गर्व से चौड़ा हो उठता है और उनके आगे नतमस्तक हो जाते हैं हम।
हम हिन्दुस्तानी यही हैं। हमारी दिनचर्या में कबीर, तुलसी, रहीम, रसखान हैं। कोई ऐसा दिन नहीं जाता जब हमने दोहों के माध्यम से उनकी बात न की हो।
“मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति/ कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति।”
जीवन का फलसफा सिखा जाते हैं कबीर कि बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय/ जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।” या फिर यह देखिए कि “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब!” उदाहरण अनंत हैं।
हमारी भाषा मे, हमारे व्यवहार में, हमारी सोच में ये पुस्तकें ही विद्यमान हैं जिसने हमें मनुष्यता के संस्कार दिए, मानव धर्म सिखाया। हमें इस धरती पर रहने का शिष्टाचार सिखाया।
साहित्य का हमारे चरित्र और सोच पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारी इच्छा शक्ति, दृढ़ता, देश के लिए मर-मिटने की भावना और आत्म निर्माण में साहित्य गहरी भूमिका निभाता है। अच्छे विचार, अच्छा लेखन ऊर्जा-संचारक और प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में कार्य करते है। कहा ही गया है..”पुस्तक सच्ची मित्र होती है”…..और साहित्य वही जिसमें समाज का हित निहित हो। पुस्तकें समाज को जोड़ती हैं उसकी उन्नति के लिए कार्य करती हैं।
ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है, कि लिखी जाने वाली भाषा पठनीय व स्तरीय हो. यूँ तो लेखक कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र है लेकिन यदि वह अपने लिखे को साहित्य के रूप में परोस रहा है और एक बड़ा वर्ग उस पर स्वीकृति की मुहर भी लगा रहा है तो वहाँ श्लील और अश्लील साहित्य के मध्य का अंतर समझना अत्यावश्यक हो जाता है।
अश्लीलता किसी को चर्चित तो करा सकती है लेकिन स्थापित नहीं कर सकती! वहाँ लेखक का स्वयं से यह प्रश्न पूछ लेना आवश्यक है कि क्या वह अपने लिखे पर गौरवान्वित है? क्या उसने सचमुच समाज को कोई संदेश दे दिया है? क्या अब समय नहीं आ गया है कि इस तथ्य को रेखांकित कर दिया जाए कि स्त्री-पुरुष संबंधों और दैहिकता से इतर लिखकर भी अच्छा साहित्य रचा जा सकता है?
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चलते-चलते: अंतरजाल की दुनिया में इस समय अभिव्यक्ति के जितने मंच हैं, उनकी सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ आप अपने समकालीन प्रिय लेखक को व्यक्तिगत रूप से भी जान सकते हैं, मिल सकते हैं लेकिन संभवतः यही सबसे बुरी बात भी है। उनकी पुस्तकों या क्रांतिकारी विचारों से इतर जब उनकी भाषा अपशब्दों के रूप में सामने आती है तो उनके व्यक्तित्व को लेकर रची गई समस्त धारणाएँ ध्वस्त होती प्रतीत होती हैं। भ्रम टूटने लगते हैं और लगता है कि उन्होंने संस्कारी होने का चोगा भर पहन रखा है। वे बुद्धिजीवी दिखते अवश्य हैं पर क्या सचमुच है? इसका उत्तर एक गहरी कसक छोड़ जाता है।
हिन्दी या किसी भी अन्य भाषा का विकास दिखावा नहीं, एक निश्छल, निष्कपट समर्पण माँगता है। एक ऐसा संकल्प जो राजनीतिक उठापटक से दूर चुपचाप अपना काम करता रहे। जब हम किसी को माँ कहकर पुकारते हैं तो उस रिश्ते की सबसे पहली शर्त ही यही है कि उसके प्रति पूरा सम्मान भाव रहे। भाषा हो या कोई रिश्ता, बस इतनी सी ही तो मांग करता है।