अनचाहे अनुबंध
कभी पलकों के पहरे में
आँसू बचाते हुए
हम खुश हो लिए
कभी नम आँखों से
ओढ़ ली चुप्पी
स्वयं के साथ कर लिया
एक अनचाहा
अप्रस्तावित अनुबंध अनजाने ही।
भीग-भीग जाती
आँखों ने मुस्कुराहट को जाना कभी,
कभी मन ने किया समझौता
और पीड़ा की आहट को पहचाना
यही तो होता है
पलकों के पहरे में
अपने आँसुओं को बचाते।
जीवन के किन्ही पलों में
रिश्तों के निर्वहन में
सुबकती आँखों ने निहारा
इस जगती को
और कह दिया
स्नेह से
-अब कुछ शेष नहीं है कहना,
किसी से कुछ भी!
अनचाहे अनुबंध है
अपनी आँखों से
स्वयं का निरंतर बहना।
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