ज़िंदगी जी नहीं है
ज़िंदगी को झेला है
यार तुम न समझोगे
किस कदर झमेला है।
कट रहे हैं कैसे दिन अब
ये मैं कह नहीं सकता
ज़िंदगी नहीं भई
मजदूर का ये ठेला है।
हम तेरे हैं, हम तेरे
लोग ऐसा कहते हैं
पर यहां कौन, किसका
धन का सारा खेला है।
रंग बिरंगी दुनिया के
रंग भी निराले हैं
ज़िंदगी का रस ओ बंधु
सच बहुत कसेला है।
हँस रहे हैं लब मेरे
धधक रहा पर मेरा दिल
क्या करूं ‘अरुण’अब मैं
मन बहुत अकेला है।