कवि कैलाश मनहर का कविता संग्रह “मध्यरात्रि प्रलाप” अनेक दृष्टि से विचार करने योग्य हैं, ऐसा मुझे लगता है| इसमें जो कविताएं, गीत और गजलें संग्रहीत हैं वे अधिसंख्य फेसबुक पर लगाई गई हैं| और कवि का कहना है कि चूंकि ये रात्रि के सोने के पहले लिखी गई हैं अतः इन्हें “मध्यरात्रि प्रलाप” कहा गया है | मुझे लगता है यह एक तरह का सरलीकरण हैं कविताएं किसी भी जगह, किसी भी समय क्यों न लिखी जाएं अगर वे पाठक को प्रभावित करती हैं तो वे अच्छी कविताएं हैं| फिर कवि ने चाहें किसी भी स्थिति में क्यों न लिखी हों ? दूसरी बात प्रलाप की, तो पंत जी बहुत पहले कह चुके हैं कि “आह से उपजा होगा गान”| सो आह, आकोश, चिंता और परिवर्तन की चाह, बेहतर दुनिया बनाने के लिये, यह सभी कुछ प्रलाप के अवशेष की तरह हो सकता है|
कैलाश मनहर को मैं कब से जानता हूँ मुझे याद नहीं है | मेरा परिचय उनकी कविताओं के माध्यम से अधिकतम तीनेक वर्ष पुराना हैं| मैं उन्हें निकट से नहीं जानता | एक घटना मुझे याद आ रही है कि एक निकट कवि मित्र की कविता पुस्तक पर टिप्पणी करते वक्त मैने यह कह दिया कि ‘मैं उन्हें वर्षों से जानता हूँ लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें असल में जानता हूँ|’ यानि उनके चंद एक पक्ष ही समझता हूँ| पत्रिका संपादक को यह टिप्पणी रास नहीं आई और उन्होंने वह समीक्षा कवि मित्र को अपनी इस समझ के साथ लौटा दी कि वह ठीक नहीं है| किसी संपादक की भी आलोचकीय समझ की सीमा हो सकती है| बहरहॎल जबसे कैलाश मनहर की कविताओं को देखना प्रारम्भ किया तो निश्चित रूप से उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका| उन्हीं की कविता पंक्तियों से कि-
“अथाह उदासियों के विस्तृत मरुस्थल में
मैं भटकते भटकते बच गया”
और यह भी कि _
“अकाल साहस का नहीं था
बल्कि भय बहुत हावी था मानस पर”
कैलाश मनहर की कविताएँ उनके व्यक्तित्व से भिन्न हैं जैसा मुझे लगा है | वे किसी भी समूह में और किसी भी मंच पर दिख सकते हैं| उन्हें किसी से कोई परहेज नहीं है|
वे स्वयं सर्वसमावेशी, सहज-सरल और लचीले दिखाई देते हैं| उनका व्यक्तित्व उतना अडिग, सशक्त और राजनीतिक प्रतिबद्धता से संपृक्त नहीं लगता| वहीं उनकी कविताएं स्फटिक की तरह स्पष्ट और तीव्र विचारोत्तेजना की कविताएं हैं तो सहज ग्रन्थियाँ भी उनमें समाविष्ट हैं | लेकिन फिर भी कुछ तो है जो कैलाश मनहर के ढीले-ढाले, लचीले और सर्वसमावेशी व्यक्तित्व के भीतर एक मज़बूत और चेतनासंपन्न कवि समाया हुआ है | यह द्वैत बहुतों में दिखाई देता है| मैं मानता हूँ, मेरी समझ कम हो सकती हैं उसकी सीमा भी होगी ही |
उनकी कविताएं पढ़कर मैं यह सोच रहा था कि जिन कवियों की कविताएं मुझे पसंद हैं उसी श्रृंखला में कैलाश मनहर की कविताएं भी आती हैं | कबीर, निराला, दिनकर, नागार्जुन, धूमिल, गोरख पांडेय, कुमार विकल, दुष्यत कुमार, अदम गोड़वी और फैज, साहिर आदि से लेकर भवानी शंकर, राम कुमार कृषक और हरेराम समीप तक | इन्हीं के आगे कैलाश मनहर की भी नाम जुड़ जाता है क्योंकि –
“सच बोलने का अकेले-दुकेले में किया मन
तो वह भी मैं डर डर के बोला”
यही स्पष्टता और बोलने की ईमानदारी कैलाश मनहर को कैलाश मनहर बनाती हैं| आगे वे कहते है:-
“शत्रु शिविर में घुसने से पहले
संजो लेना चाहता हूँ भरपूर साहस
पकड़ा भी जा सकता हूँ वहाँ”
यह सावधानी और सतर्कता आवश्यक है लेकिन इतनी सतर्कता भी ठीक नहीं कि धीरे-धीरे शत्रु के रूप-रंग को ही हम आत्मसात कर लें | यह खतरा अक्सर बना रहता है जैसा कि स्वयं कैलाश मनहर लिखते हैं –
“समर्पण भक्ति थी या दासत्व/उन्हें स्वयं भी पता नहीं था/और उद्देश्य तो वे जानतें ही नहीं थे/सिर्फ भीड़ में शामिल थे”
विचारहीनता ही दासत्व का बड़ा कारण है और कोई रचनाकार-कलाकार, दार्शनिक इसके खिलाफ़ निरंतर सक्रिय होता है तो वह एक अच्छा मनुष्य भी होगा यह सोचा-समझा जा सकता है | किसी भी चेतनासंपन्न रचनाकार की अपने आप से निरंतर मुठभेड़ होती हैं:-
“दिमाग सुन्न है/पर सोच क्या रहा हूँ मैं/
बात कुछ भी नहीं/तो दिल में खलबली क्यों है”
कैलाश मनहर का कवि अपने समय की तमाम खलबलियों से रूबरू है | वह तमाम विद्रूपताओं और विसंगतियों का विरोध करता है, आत्ममंथन भी करता है और दूसरों के लिए एक संदेश छोड़ देता है :–
“अंधेरा था मगर इतना भी तो घना न था
कि रोशनी का तरीक़ा ही कुछ बना न था”
एक और महत्त्वपूर्ण बात जो कैलाश मनहर में है वह है उनका सुगठित शिल्प, सधी हुई भाषा और प्रभावी प्रस्तुति | समानता और मानव-मूल्यों के लिये प्रतिबध्दता तो है ही | उनकी कविता की समझ भी बहुत गहरी है| अत: उनकी कविताओं को पढना अपने आपको भी समृध्द करना है|