अनुभव सम्पन्नता अभिव्यक्ति को संबल प्रदान करती है। पढऩा और घूमना, जो और जितना हमें सिखा जाते हैं, डिग्री या परीक्षा के लिए अध्ययन उसका एकांश भी नहीं व्यक्ति को दे पाता। व्यवहार में, भ्रमण या सैलानी भावना से कहीं जाएं, या आजीविका के लिए प्रांत-दर-प्रांत घूम आएं, हमें अनुभव संपन्न ही बनाएंगे। शैलेंद्र चौहान के पास दोनों एहसास है। पढ़कर उसे समझना, गहरे चिंतन में उतरना और फिर उसे अभिव्यक्त करना। नजर और नजरिया भी, को साफ करते हैं। क्या और कैसा पढ़ें? क्यों और कैसे पढ़े? कुछ ऐसे सवाल हैं, जिन्हें सामान्य पाठक उम्र भर नहीं सोच पाता। कुछ भी, कभी भी पढऩे की अपेक्षा, मनोनुकूल या तर्क भावना के आधार पर पढऩा फिर उसे उतारना, समझना, अलग ही सूझबूझ को जन्म दे जाता है। कविता के संदर्भ में यह और भी जरूरी इसलिए है कि आज ज्यादातर (अधिक) कविताएं, ऐसी सामने आ रही हैं जिनमें ‘काव्य भाव’ ही नहीं है। ऐसे में कविता का जनपक्ष (शैलेंद्र चौहान) मोनिका प्रकाशन, जयपुर, एक साफ और आलोचना की मानक पुस्तक मेरे सामने है।
श्री चौहान टिप्पणीकार और आलोचक, एक कवि-कथाकार की भूमिका भी निभाते आए हैं। देश की श्रेष्ठ पत्रिकाओं ने पिछली सदी में, और इस शताब्दी में भी इनके लेखन को तरजीह देकर स्थान प्रदान किया है। बल्कि ‘धरती’ पत्रिका के माध्यम से आए कुछ खास, अंक, आज भी उस समय की कहानी कह रहे हैं। रचनाकार अर्जित अनुभवों का खर्च अपनी अपेक्षा और सुविधानुसार ही नहीं करता, वक्त की जरूरत, पहचान कर, अपने शब्दों को रचना का रूप देता है। यहां जन, साहित्य, या लोक साहित्य की पैरवी करता हुआ रचनाकार का चिंतन मुखर हो रहा है। साहित्य में मुख्यधारा की पत्रिकाओं में इसे लगभग बीसेक आलेख जन कविता की पहचान करवाते हैं तो मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रैलोचन, केदारनाथ अग्रवाल के साथ ही कुमार विकल, शिवराम आदि कवियों की रचनात्मकता का जन पक्ष भी उजागर कर रहे हैं।
जन कवि समाज, परिवार, देश के परिवेश के साथ समय का मंथन करके, मनुष्य के मर्म को उभारते हैं।
कुमार विकल अहिंदीभाषी हिंदी कवि हैं। मुख्यधारा की पत्रिकाओं ने उनका नोटिस लिया तो हमारे प्रमुख आलोचकों ने उनके काव्य स्वर को पहचान कर उसकी पड़ताल की है। ‘पहल’ सम्मान व अन्य पुरस्कारों से गौरवान्वित कुमार विकल की कविता में आम आदमी की घुटन के बहाने देश या परिवेश को खुलकर प्रस्तुत किया है। शैलेंद्र चौहान ने ‘कविताएं काली हवाओं के बिम्ब कहां से लाती है?’ में कहा है- ”कुछ ऐसी कविताएं आज समकालीन बड़ी और महान कविताएं कही जाती हैं। ये कविताएं कहा जन्म लेती हैं, क्यों जन्म लेती हैं? आजकल कविताएं देश की राजधानी, प्रदेशों की राजधानियों में जन्म ले रही हैं क्यों? क्योंकि यह धंधा है। पुरस्कार-सम्मान निकले हैं। कविताएं निकली हैं और उन्हें लोक से अलग (श्रेष्ठ) ठहराने के लिए यूरोप और अमेरिका से प्रेरणा मिलती है। आयात हो रही है। यह दस-पंद्रह प्रतिशत दरबारी और चाटुकार मध्यवर्ग का चरित्र है। जहां साहित्य एक संसाधन है, विचार शून्य बनाने का हथकंडा है… मीडिया इस कार्य में सहायक हो रहा है।”
सूक्ष्मदर्शी शैलेंद्र चौहान की पकड़ उन कविताओं पर पड़ रही है जहां जनाधार समाजोन्मुखी है। कुमार विकल के शब्दों में–”किस प्रक्रिया से शहर जंगल में बदल जाते हैं। जिनमें हिंसक जानवर दहाड़ते हैं।”
‘मृत्यु जो नहीं होता एक दो मुंहापन’ वैज्ञानिक चेतना और साहित्य, सहज और प्रेरकजन कविताएं, ‘शमशेर की कविताई’ से लेकर ‘भाषा लोक और काव्य’, ‘राह हारी मैं न हारा’, ‘सत्य का क्या रंग’ जैसे कई आलेख कविता में जन चेतना, जनवाद की पैरवी, गहराई और बुलंदी के साथ कर रहे हैं। यहां रचनाकार शैलेंद्र चौहान का मूल्यांकन, हिंदी की समकालीन कविता, और आलोचना पर भी नजर टिकाए हुए है। प्राक्कथन के आरंभ में ही इनकी स्वीकारोक्ति है,- ‘कविता का जनपक्ष’ समकालीन कविता की जनपक्षधर प्रवृत्तियों को लेकर लिखे गए मेरे कुछ चुनिंदा निबंधों, लेखों और समीक्षात्मक टिप्पणियों का संग्रहण है। यद्यपि लिखे गए आलेखों की संख्या बहुत है। लेख किसी सुनियोजित कार्ययोजना या निश्चित परियोजना के तहत नहीं लिए गए वरन समय-समय पर कुछ संपादकीय और लेखकीय आग्रहों के स्वीकार के तौर पर लिखे हैं और कुछ स्थापित रूढ़ और पारंपरिक आलोचना के प्रतिपक्ष की तरह जन्मे हैं। यह सही भी है। मैं या आप सामने के काम से संतुष्ट न हों, तो एक और लकीर खींच ही रहे होते हैं। यहां शैलेंद्र चौहान की ‘लकीर’ आलोचना और समकालीन आधुनिक कविता से भी, दो-दो हाथ करती दिखाई दे रही है।
कोरी शब्द की दस्तकारी या व्यर्थ प्रलाप, कविता में सामने आता है तो काव्यकृति पर चिंता गहरा उठती है। कथ्य के मर्म तब जाकर जन कविता या आलोचना सामने आती है, तभी पाठक उसे समझ पाता है। हो रहा है जो, उसमें आज कविता अर्थ खो बैठी है। अमूर्त में डूबी, चेहराहीन है। कवियों, आलोचकों के नाम है, कविता या आलोचना की थाह पाना यहां मुश्किल हो रहा है। गीत, गजल ने तो फिर भी श्रोता या पाठक को अपने साथ जोड़ा था, लेकिन अतिआधुनिकता, समकालीनता का भदेस, जिस तरह अब परोसा जा रहा है, उसे झेलना हर किसी के बूते में नहीं है। सरलीकृत भाषा में, सहज विकारों की सार्थकता, आम जन को इसलिए आकर्षित करती है कि वहां समाज का यथार्थ और एक पूरा मार्मिक स्वर, एक मूर्त रूप प्रस्तुत कर रहा होता है।
‘कविता का जनपक्ष’ में शैलेंद्र चौहान अपने दौर के रूबरू हैं। उसके सरोकार कवियों-आलोचकों से कुछ कविता और उसके जनधर्मी पक्ष से अधिक रहे हैं। कहीं न कहीं एक अन्विति बनाते हैं। भाषा की समझ और ‘पाठ’ की स्पष्टता इनके नजरिए को मर्मभेदी बता रही है। पढ़त और निरंतर नजर टिकाकर ही ऐसे जनवादी रचनाकारों के साथ न्याय किया जा सकता था। शैलेंद्र चौहान की पकड़ और उनकी अभिव्यक्ति चेतना, कविता के जनपक्ष को संपन्नता दे रही है।