राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि ‘भारत को एक करने वाली दो ही शक्तियाँ हैं– एक गांधी और दूसरी फिल्में। इस कथन में अतिशयोक्ति हो सकती है, परंतु यह सच है कि आधुनिक भारत के निर्माण और जनमानस के मन को रचने-बनाने में सिनेमा की महत्त्वपूर्ण और सक्रिय भूमिका रही है।
मानव अस्तित्व की शुरुआत से ही मनुष्य मनोरंजन के विभिन्न तरीकों की खोज करता रहा है। वह किसी ऐसी चीज की तलाश में है जो उसके दिन-प्रतिदिन के थकाऊ शेड्यूल से थोड़ा ब्रेक दे। सिनेमा लगभग एक सदी से मनोरंजन के एक शानदार तरीके के रूप में सामने आया है। यह अपनी स्थापना के बाद से सबसे पसंदीदा शगलों में से एक रहा है।
हिंदी सिनेमा ने भारतीय समाज को गहरे स्तर तक प्रभावित किया है। यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जितना प्रभाव सिनेमा का समाज पर पड़ा है, उतना किसी अन्य कला का नहीं। सिनेमा अपने जन्म के साथ ही अपने जादुई आकर्षण के कारण समाज के हर वर्ग में काफी लोकप्रिय रहा है।
सिनेमा दुनिया भर में मनोरंजन का एक अत्यंत लोकप्रिय स्रोत है। हर साल कई फिल्में बनती हैं और लोग इन्हें बड़ी संख्या में देखते हैं। सिनेमा हमारे जीवन को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित करता है। इस दुनिया में हर चीज की तरह, सिनेमा का भी हमारे जीवन पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जबकि कुछ फिल्में अच्छे के लिए हमारी सोच को बदल सकती हैं अन्य एक भावना या दर्द या भय का आह्वान कर सकती हैं।
सिनेमा को मूल रूप से मनोरंजन के सभी साधनों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। युवा लोग आराम और मनोरंजन के लिए सिनेमा देखते हैं, हालांकि इसके साथ ही वे कई नई चीजें भी सीखते हैं। सामान्य मानव प्रवृत्ति इन बातों को अपने जीवन में भी लागू करने की होती है। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वे सिनेमाघरों से केवल सकारात्मक बिंदु ही ग्रहण करें।
20वीं शताब्दी के कुछ विशिष्ट आविष्कारों में सिनेमा भी एक है, जिसने भारतीय सामाजिक तानेबाने पर गहरे तक प्रभाव डाला। कहा जाता है कि भारत में रेलगाड़ी के आने से कई लोग नाराज हुए थे। उनका मानना था कि रेल गाड़ी में हर जाति के लोगों को एकसाथ सफर करना होगा, जो तथाकथित उच्च जाति के लोगों को कतई मंजूर नहीं था। माना जाता है कि कुछ ऐसा ही सिनेमा के आगमन पर भी हुआ होगा। रेल की तरह सिनेमा हॉल का विकास भी अनचाहे ही भारत में लोकतांत्रिकता की ओर बढ़ा एक कदम था, जो दलितों और अस्पृश्यों को टिकट खरीदवाकर उच्च जातियों के साथ बैठकर उस भगवान के दर्शन का लाभ देता था, जिसके दर्शन मंदिर में असंभव थे और जिसकी शुरुआत दादा साहब फालके ने हरिश्चन्द्र तारामती’ (1913), ‘मोहिनी भस्मासुर’ (1913), ‘लंका दहन’ (1917), ‘कृष्ण जन्म’ (1918), ‘कालिया मर्दन (1919) जैसी धार्मिक फिल्मों के साथ कर दी थी।
हिन्दी सिनेमा की शुरुआत राजा हरीशचंद्र पर 1913 मे बनी मूक फिल्म से हुई थी। शुरुआती दौर मे धार्मिक फिल्मे ही बनी। देश की जनता भी यही देखना चाहती थी। यही वजह है की उस समय नैतिकता और धर्म कर्म का भी बोल बाला था। फिर आगे ऐतिहासिक फिल्मे भी आने लगी और खूब सराही गयी। मुगले आजम ने नए कीर्तिमान स्थापित किए।
क्योंकि जब हिन्दी सिनेमा बनाना शुरू हुआ था उस समय देश अंग्रेज़ों का गुलाम था इसलिए देश भक्ति की फिल्मे बनाना ख़तरे से खाली नहीं था। लेकिन आजादी के बाद देश भक्ति पर भी फिल्मे बनने लगी और इसमे मनोज कुमार का नाम सबसे ऊपर है जिन्हे भारत कुमार भी उपनाम दे दिया गया था। पिछले कुछ दशको मे तो देश भक्ति पर आधारित फिल्मे बनी और खूब चली भी। बहुत सी उसके बाद आया सामाजिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों का दौर। यूँ तो यदा कदा समाज सुधारको और विचारको पर भी धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों के दौर पर भी फिल्मे बनती रहती थी, पर उसका नायक पूर्व स्थापित समाज सुधारक और विचारक का ही रोल निभाता था। पर दो आँखे बारह हाथ, जागृती, अछूत कन्या, बंदिनी जैसी फिल्मो का नायक या नायिका एक साधारण व्यक्ति था। इन सभी फिल्मों ने आमजनमानस की सोच मे बदलाव का काम भी किया।
अगला दौर था रोमांटिक फिल्मों का, पर एक बात ध्यान देने वाली है की इन फिल्मों मे भी कुछ न कुछ सामाजिक संदेश जरूर होता था। “कटी पतंग” एक रोमांटिक फिल्म थी, पर कहानी का मूल विधवा विवाह ही था। ऐसी ही एक फिल्म मे राजेश खन्ना एक दलित युवती (पद्मिनी कोल्हापुरी) से प्यार करते हैं। इन फिल्मों ने समाज की रूढ़ियों को तोड़ने मे बड़ी भूमिका अदा की। नौजवान की सोच को बदला। अब समाज पर फिल्मों का इतना प्रभाव या यह कहने नौजवान पीढ़ी पर पड़ा की वह वही करने लगे जो फिल्मों मे होता है।
इस दौर ने देश की जनता के ऊपर, उनकी सोच मे बदलाव के लिए क्रांतिकारी काम किया। जो बड़े बड़े विचारक, समाज सुधारक नहीं कर सके वह काम इन फिल्मों ने कर दिखाया। छूआछूत, सामाजिक भेदभाव, जातपात के खिलाफ काम किया। जो बड़े बड़े विचारक न कर सके वह काम इन फिल्मों ने कर दिखाया। छूआछूत, सामाजिक भेदभाव, जातपात के खिलाफ इन फिल्मों मे कोई न कोई संदेश जरूर छुपा होता था। इससे नौजवान बहुत प्रभावित भी हुआ और एक अलख से जागा दी इन फिल्मों ने।
समाज और समय फिल्मों में प्रतिबिम्बित होता है या फिल्मों से समाज प्रभावित होता है। दोनों ही बातें अपनी-अपनी सीमाओं में सही हैं। कहानियां कितनी भी काल्पनिक हों, कहीं तो वे इसी समाज से जुड़ी होती हैं। यही फिल्मों में भी अभिव्यक्त होता है। लेकिन हां बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि फिल्मों का असर हमारे समाज से जुड़ी होती हैं। यही फिल्मों में भी अभिव्यक्त होता है। लेकिन हां बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि फिल्मों का असर हमारे युवाओं और बच्चों पर हुआ है। सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। किन्तु ऐसा ही असर साहित्य से भी होता है।
हिन्दी साहित्य की प्रमुख रचनाओं पर बनी कुछ फिल्में (जैसे प्रेमचंद के ‘गोदान’ और ‘गबन’ तथा फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ पर बनी फिल्में) भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक कविता से प्रेरणा लेकर विमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ जैसी यादगार फिल्म बनाई, जिसमें जमीन छिनने और प्रवासी मजदूर बनने की दर्दनाक कहानी का बहुत सशक्त प्रदर्शन है। श्याम बेनेगल ने ग्रामीण शोषण व्यवस्था पर ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘मंथन’ तीन फिल्मों की श्रृंखला बनाई।
क्रान्तिकारी साहित्य ने स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक युवाओं को प्रेरित किया था। मार्क्स के साहित्य ने भी कई कॉमरेड, नक्सलाईट खड़े कर दिये। अतः समाज पर हर माध्यम के अपने प्रभाव होते हैं। फिल्मों के भी हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले ही हिन्दुस्तानियों के बीच सांप्रदायिकता के बीज बो दिए गए थे। हिन्दी सिनेमा जबर्दस्त तरीके से इसका विरोध करता रहा। वी. शांताराम द्वारा 1942-43 के आस-पास पड़ोसी फिल्म बनाई गई थी। इसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया गया, जो वक्त की जरूरत थी। भारतीय सिनेमा और समाज के समानान्तर व परस्पर प्रभावों के बारे में प्रकाश डालना ठीक वैसा ही है जैसे, गागर में सागर भरना।
आजकल अधिकांश हिंदी फिल्में महज व्यापारिक सफलता को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। उन्हें किसी फार्मूले की तलाश रहती है जो बॉक्स आफिस पर किसी तरह क्लिक कर जाए। दर्शक क्या पसंद करेंगे इस बारे में अटकलें निरंतर लगती रहती हैं। फिल्मों की जो कहानियां लिखी जाती है। उनमें मनोवैज्ञानिक तरीके से खोज कर के मनुष्य के मस्तिष्क को बांधने की योजना बनाई जाती है जिससे उनकी फिल्म ज्यादा चले, उनकी ज्यादा कमाई हो। उनको संसार के बिगड़ने का कोई भी ध्यान नहीं है।
इस माहौल में फिल्में समाज में प्रचलित मिथकों को चुनौती देने के स्थान पर उन्हें बढ़ावा अधिक देती हैं क्योंकि इस तरह दर्शकों को आकर्षित करने की अधिक संभावना होती है और यह अधिक सरल भी होता है। सतही मनोरंजन, रोमांस, ढिशुम-ढिशुम, अति सरलीकरण और मिथक से मजबूती से जुड़े हिंदी सिनेमा से समाज सुधार और सार्थक सामाजिक बदलाव की फिल्में बनाने की अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती है।
बच्चों के कुछ भी सीखने की शुरुआत अपने घर से ही होती हैं। बच्चों को बाहरी दुनिया के बारे में कुछ भी पता नही होता है, बच्चें जो कुछ भी सीखते हैं उसमे उनके माता-पिता का बहुत योगदान होता हैं। इसलिए ही परिवार को प्राथमिक पाठशाला भी कहा जाता हैं। फिल्मों का बच्चों के मन पर बहोत जादा प्रभाव होता है, वो फिल्मों के छवि में अपने आप को धुंधते है और महसूस करते है। 30% माँ और 30% पिता तथा 40% बाहरी दुनिया का असर होता है। बाहरी दुनिया में शिक्षा परिस्थिति साथी किताब किस तरह का पढता है। फिल्म किस तरह का देखता है। आर्थिक स्थिति भी अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों के जीवन अनुभव पर बहुत बड़ा असर छोड़त है।
फिल्मों के संवाद हमारे रोजमर्रा के जीवन को किस प्रकार से प्रभावित करते है जिसे कुछ संवादों से समझा जा सकता है जो प्रायः हम बोलने/लखने के प्रयोग में लाते हैं- “जा सिमरन, जी ले अपनी ज़िंदगी”….. ये संवाद हम लोग ऐसी स्थितियों में उपयोग करते है जब कोई महिला अपने सास, ससुर, पति, बच्चें घर पर छोड़ कर किसी पिकनिक पर जाती है। देर से पहुँचने पर यदि कोई मित्र उलाहना देता है तो हम कह देते हैं कि “डॉन का इन्तज़ार तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस कर रही है”। “चुटकी भर सिंदूर की क़ीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू”…. इस संवाद में “सिंदूर” और “रमेश बाबू” की जगह ज़रूरत के हिसाब से कुछ भी उपयोग किया जाता है। यदि हमारे मा लायक कुछ हो रहा है या हुआ है तो -“मोग़म्बो ख़ुश हुआ”…..। कार्यालयों में प्रायः सुनने को मिल जाएगा कि – “आज मेरे पास अचार है, पापड़ है, रायता है, तुम्हारे पास क्या है? केवल सब्ज़ी रोटी”। “बाबू मोशाय, हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ है” ये संवाद तो सर्वाधिक बार विभिन्न अवसरों पर प्रयोग में लाए जाते हैं।
केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड जैसी नियामक संस्थाएा केवल औपचारिकताओं की खानापूर्ति का माध्यम बनकर रह गईं। सेंसरशिप कागजी शब्दावली का एक शब्द बन कर रह गया तथा सेक्युलरिज्म, अभिव्यक्ति की आड़ लेकर व्यापक पैमाने पर सिनेमा के माध्यम से हिन्दू धर्म, धार्मिक प्रतीकों, भगवान, पूजा पध्दति, आस्था, हिन्दू ऐतिहासिक वीर नायक /नायिकाओं के विरूध्द विधिवत षड्यंत्र के तहत फिल्मों व धारावाहिकों, कॉमेडी का निर्माण किया जाने लगा।
वर्तमान में सेंसर बोर्ड या अन्य नियामक संस्थाओं की कानूनी औपचारिक बाध्यताओं से स्वतंत्र- ओटीटी प्लेटफार्म एक ऐसे अड्डे एवं हथियार के रुप में उभरा है जिसमें वेबसीरीज के माध्यम से हिन्दू विरोध, देवी देवताओं एवं धर्म को अपमानित करने की खेप पर खेप इन्टरनेट के माध्यम से लगातार पहुंचाई जा रही है।
हिन्दू धर्म से नफरत करने वाले फिल्म निर्माता-निर्देशक-पटकथा लेखक इस बेलगाम अनियंत्रित प्लेटफार्म के द्वारा लगातार ऐसी वेब सीरीज और फिल्म बनाकर परोस रहे हैं जिनके निशाने पर सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दू धर्म एवं उसकी आस्था, धार्मिक स्थल व प्रतीक हैं।
सिनेमा दुनिया भर में मनोरंजन का एक अत्यंत लोकप्रिय स्रोत है। हर साल कई फिल्में बनती हैं और लोग इन्हें बड़ी संख्या में देखते हैं। सिनेमा हमारे जीवन को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित करता है। इस दुनिया में हर चीज की तरह, सिनेमा का भी हमारे जीवन पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जबकि कुछ फिल्में अच्छे के लिए हमारी सोच को बदल सकती हैं अन्य एक भावना या दर्द या भय का आह्वान कर सकती हैं।
शुरुआत में थिएटर सिनेमा तक पहुंचने का एकमात्र तरीका था लेकिन टेलीविजन और केबल टीवी की लोकप्रियता के साथ फिल्में देखना आसान हो गया। इंटरनेट और मोबाइल फोन के आगमन के साथ, अब हम अपने मोबाइल स्क्रीन पर सिनेमा तक पहुंच प्राप्त करते हैं और उन्हें लगभग कहीं भी और कभी भी देख सकते हैं।
आज हर कोई कमोबेश सिनेमा से जुड़ा हुआ है। जब हम फिल्मों में दिखाई गई कुछ घटनाओं को देखते हैं जिनसे हम संबंधित हो सकते हैं तो स्वाभाविक रूप से उन्हें हमारे दिमाग और विचार प्रक्रिया को प्रभावित करने देते हैं। हम फिल्मों से कुछ पात्रों और परिदृश्यों को आदर्श भी बनाते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा व्यक्तित्व और जीवन वैसा ही हो जैसा हम फिल्मी चरित्रों का आदर्श बनाते हैं। कुछ लोग इन किरदारों से इस कदर जुड़ जाते हैं कि उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाते हैं।
सिनेमा को मूल रूप से मनोरंजन के सभी साधनों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। युवा लोग आराम और मनोरंजन के लिए सिनेमा देखते हैं, हालांकि इसके साथ ही वे कई नई चीजें भी सीखते हैं। चूंकि युवा किसी भी राष्ट्र का भविष्य होते हैं इसलिए यह आवश्यक है कि वे एक सकारात्मक मानसिकता का निर्माण करें। इस प्रकार उनके लिए अच्छी गुणवत्ता वाली सिनेमा देखना आवश्यक है जो उन्हें मानसिक रूप से विकसित करने में मदद करता है और उन्हें अधिक ज्ञानवान और परिपक्व बनाता है। सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है। वहीं समाज और संस्कृति एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं। ऐसे में सिनेमा के माध्यम से समाज एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति का मुद्दा अत्यंत महत्वपूर्ण है।