सूरज ने दी
शाबाशी दीपक को
तम से लड़ा.
जिस दीप से
जलें दीप अनेक
उसे नमन.
स्नेह रश्मि से
बूंद बनी है प्रिज्म
निकले रंग
ठिठुरन है
जिंदगी में बहुत
सुलगे मन
महत्वाकांक्षा
मछली भांति तैरे
नयन झील
मैं गौरैया सी
चुगूं चुग्गा प्रेम का
गोद विश्वास
बढती उम्र
पीछे लौटता मन
है जिजीविषा
पोती का हाथ
उखडी हुई सांसें
मिला करार
फिसले सूर्य
फिसलपट्टी पर
पहाड़ियों की
श्रमिक सूर्य
चला कमाने अधिक
पश्चिम ओर
वक्त गर्माया
‘आम’ हो गए खास
लुत्फ उठा लो.
‘खेत हो गए’
खेत आजकल के
बिसुरी धरा
थकित सूर्य
जीवन-अवसान
नौका से आशा.