महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय को बहुत प्रदीर्घ परंपरा का वरदान रहा है। इस परम्परा को आज भी खुली आंखों से देखा जा सकता है। संत बहिणाबाई ने इस परंपरा को सांग रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया है –
संत कृपा झाली। इमारत फळा आली॥
ज्ञानदेवे रचिला पाया। उभारिलें देवालय॥
नामा तयाचा किंकर । तेणें केलासे विस्तार॥
जनार्दनी एकनाथ। खांब दिला भागवत॥
भजन करा सावकाश। तुका झालासे कळस॥
बहेणी फडकती ध्वजा। निरूपण केलें वोजा॥ -1
अर्थात् संतकृपा से वारकरी संप्रदाय की मजबूत इमारत का निर्माण हुआ। संत ज्ञानेश्वर ने भक्ति पथ के मंदिर की नींव रख कर इस मंदिर का निर्माण किया। नामदेव स्वयं को ज्ञानेश्वर के सेवक समझते थे। उन्होंने भी इसी भक्ति मंदिर का कार्य न केवल आगे बढ़ाया बल्कि उसका विस्तार भी किया। इस भक्ति मंदिर को और मजबूत करने के लिए संत एकनाथ महाराज ने आधार दिया। नाथ भागवत का खंबा इस मंदिर को लगाया। भक्तों – भाव से इस भक्ति मंदिर में बड़े चाव, आनंद से प्रभू नाम का नाम स्मरण करें। संत तुकाराम के अभंगों को हर्ष उल्लास से गाए। तुकाराम वारकरी मंदिर के कलश हो गए। बहिणाबाई उस कलश पर लहराती ध्वजा है। इस कथन का निरूपण किया गया है।
ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम वारकरी संप्रदाय के चार प्रमुख आधार स्तंभ है। संत बहिणाबाई ने उनके आलौकिक कार्यों का गौरव किया है। ज्ञानेश्वर ने इस संप्रदाय को तत्वज्ञान का अधिष्ठान दिया। नामदेव ने पंढरपुर से पंजाब तक वारकरी संप्रदाय का प्रचार एवं प्रसार किया। एकनाथ महाराज ने नाथ भागवत से और संत तुकाराम के मधुर अभंग बाणी से इस संप्रदाय ने जन सामान्य के ह्रदय में अमिट स्थान पाया। इस प्रकार संत बहिणाबाई ने चार पथ प्रवर्तकों का नाम निर्देशन करते हुए यादव काल से शिव काल तक वारकरी संत परम्परा की महिमा का बखान किया है।
संत जनाबाई ने भी ऐसे ही रूपकात्मक अभंग में ज्ञानेश्वर के समकालीन संतों के मेले का वर्णन किया है –
विठो माझा लेकुरवाळा। संगे गोपाळांचा मेळावा।
निवृत्ति हा खांद्यावरी । सोपानाचा हात धरी॥
पुढे चाले ज्ञानेश्वर। मागें मुक्ताई सुंदर॥
गोरा कुंभार मांडीवरी। चोखा जीवा बरोबरी॥
बंका कडियेवरी। नामा करागुंळी धरी॥
जनी म्हणे वो गोपाळा । करी भक्तांचा सोहळा॥
ज्ञानेश्वर ने नींव रखी ऐस बहिणाबाई का कथन है, ज्ञानेश्वर चल रहे है ऐसा संत जनाबाई गवाही देती है। अत: संतों के समूह का नेतृत्व ज्ञानेश्वर ने किया है। यह दोनों का मत है। यह संतों का मेला केवल ज्ञानेश्वर के भाई,बहन या समकालीन संतों तक सीमित नहीं बल्कि निवृत्ति नाथ से निळोबा तक की परम्परा है ऐसा वारकरी संप्रदाय का मत है। निवृत्ति नाथ ज्ञानेश्वर के बड़े भाई थे और उनके गुरु निळोबा । संत तुकाराम के शिष्य निळोबा थे। इसलिए निवृत्ति नाथ से निळोबा तक साढ़े चारसों वर्षों की दीर्घ परम्परा को ल. रा. पांगारकर ने ज्ञानेश्वर के प्रभाव को तेजस्वी व्यक्तियों की परम्परा कहा है।
ज्ञानेश्वर, निवृत्ति नाथ,सोपान देव,मुक्ता बाई, नामदेव उनकी शिष्या जनाबाई,सावता माली,नरहरी सुनार ,चोखा मेला गोरा कुम्हार, एकनाथ,दासोपंत ,विठा रेणुका नंद , आधुनिक युग के विष्णु बुवा जोग,सोनोपंत दांडेकर, स्वामी स्वरूपानंद, दादा महराज साखरे,गुलाब महाराज,धुंडा महाराज देगलूरकर, शंकर महाराज खंदारकर आदि ज्ञानेश्वर के प्रभाव में समाहित है। इस दृष्टि से भी यह परम्परा व्यापक ही नहीं बल्कि सर्व व्यापक है। ज्ञानेश्वर के प्रभाव की कुछ विशेषताएं इस प्रकार है। महानुभाव,दत्त,नाथ,और समर्थ संप्रदाय इन प्रमुख धर्म संप्रदाय से हटकर ज्ञानेश्वर प्रभाव के कारण वारकरी संप्रदाय अपना स्थान स्वतंत्र रूप से बनाए हुए है।
संतों ने दो प्रकार का काव्य सृजन किया। एक अभंग काव्य और दूसरा गौण: प्रबंध काव्य ज्ञानेश्वर ने भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी) तथा अमृतानुभव ,चांगदेव पासष्टी यह दो प्रबंध लिखें। संत एकनाथ महाराज ने श्रीमत् भागवत एकादश स्कंद पर नाथ भागवत भाष्य प्रस्तुत किया। रामायण व रुक्मिणी – स्वयंवर आदि कलात्मक प्रबंध है। प्रबंध काव्य सृजन से पंडितों का ह्रदय जीत लिया। वारकरी संप्रदाय केवल भोले भाले भक्तों का संप्रदाय नहीं है। इसे विवेक और तत्वज्ञान का आधार है। मराठी भाषा को प्रतिष्ठा प्राप्त करा दी। संस्कृत अध्यात्म ज्ञान को सहजता से मराठी भाषा में प्रतिपादन कर यह प्रमाणित भी किया।
अभंगों द्वारा परमार्थी भाव गीतों से जन जन के हृदय के तार झकझोर कर रख दिए। ‘ नामा म्हणे’,जनी म्हणे’,’एका जनार्दनी’,’ तुका म्हणे नाम घोषणा से महाराष्ट्र की धरा पावन हो गई। वारकरी संतों की अभंगों वाणी की गाथाओं से संत कवियों ने अपने परमार्थिक यात्रा की अमिट छवि समय के भाल पर छोड़ दी। साधक, वंचित और सिद्ध आदि अवस्थाओं का चित्रण संतों ने अपने अभंगों में किया। विठ्ठल भक्ति में लीन होकर और आत्मानंद में खोकर संतों ने गाए अभंग सही अर्थों में पारमार्थिक भावगीत है। जन सामान्य के ह्रदय को छुने के अमिट भाव का बल है। इसी कारण जन सामान्य को आत्मिक बल मिला। धार्मिक क्षेत्र में अवसर की समानता के दर्शन दो स्तर पर होते है। एक पुरुषों के समान स्त्रीयों को भी परमार्थ साधना का अधिकार प्राप्त हुआ। संतों के सानिध्य और अनुग्रह से रससिध्द संत कवियत्रियों का उद्भव हुआ। ‘ताटी उघडा ज्ञानेश्वर ‘ की आवाज लगाने वाली संत मुक्ताबाई ज्ञानेश्वर की छोटी बहन थी।’ नामदेव की दासी जनी’ ऐसे शालीनता से आत्मनिर्देश करने वाली संत जनाबाई ने समस्त जीवन नामदेव के घर बिताया। ‘ चोखा की महारन’ ऐसी नाम मुद्रा धारण करनेवाली संत सोयराबाई चोखा मेला की पत्नी थी। बहिणाबाई को तुकाराम का अनुग्रह मिला। ‘स्त्री जन्म मिला इसलिए न हो उदास’ की राहत मिली। मध्यकालीन महाराष्ट्राने औरतों को दिया यह आत्मविश्वास अत्यंत महत्वपूर्ण है।
स्त्रीयों के साथ-साथ विभिन्न जातियों- धर्म को सदियों से नकारा हुआ अधिकार प्राप्त हुआ। धार्मिक क्षेत्र में क्रांति हुई। महार जाति से ( चोखा मेला,
जनाबाई,निर्मळा,सोयराबाई,बंका), कुम्हार (गोरोबा), हजाम( सेना),सुनार( नरहरी),माली(सावता माली),दर्जी( नामदेव),वाणी(तुकाराम) आदि। ब्राम्हण संतों में चांगदेव,विसोबा खेचर, परीसा भागवत, एकनाथ,भानुदास, जनार्दन स्वामी,जन मित्र नागा,बहिणाबाई,और निळोबा आदि।
संत ज्ञानेश्वर ने गीता का योग – ज्ञान -कर्म मार्ग को सहज,सरल भाषा में प्रतिपादित किया। पहले तीन मार्ग भक्ति के राजमार्ग में विलीन हो गए ‘ सब रास्ते जैसे रोम का जा मिलते है’ ऐसा सामंजस्य उन्होंने भक्ति मार्ग में साध्य किया। इस वैचारिकी को ज्ञानेश्वर के समकालीन और परावर्ती संतों के विचार धारा में दृष्टिगोचर होता है।’ चक्की पर पिस्ते पिस्ते तेरा नाम संकीर्तन करुंगी अनंता ‘ इन शब्दों में एक साधारण कामवाली परमार्थ के गीत गाने लगी। मध्यकाल में किसी चमत्कार से कम नहीं है। लौकिक जीवन में त्रस्त जनों को विट्ठल के चरणों में स्थान प्राप्त हुआ। गृहस्थ जीवन और पारमार्थिक जीवन में समन्वय किया जा सकता है यह सोच उन्हें मिली। ‘ प्याज,मुली,और सब्जीयॉं है मेरी विठाबाई ‘ सावता माली का यह कथन लोगों को भाया। संतों की वाणी ने पांडित्य से अधिक जीवनानुभूति को महत्व दिया। अंतःकरण को भावों को सर्वोच्च मानकर परमार्थिक लोकतंत्र की नींव रखी।
ज्ञानेश्वर के उदात्त जीवन दृष्टि का प्रभाव सभी वारकरी संतों पर आज भी देखा जा सकता है। इस संदर्भ में ज्ञानेश्वरी का पसायदान का उदाहरण पर्याप्त है।
कवि कुसुमाग्रज के अनुसार ज्ञानेश्वर जी का पसायदान विशाल मंदिर का कलश है। पसायदान के समीप आने पर चैत्र की सुंदर सुनहरी सुबह अपने इर्द -गिर्द प्रकाश की किरणें बिखेर रही हो ऐसा प्रतीत होता है। दुर्जनों के अंतःकरण से तम नष्ट हो, विश्व को स्वधर्म सूर्य के दर्शन हो।, प्राणियों में परस्पर मैत्री भाव निर्माण हो,जिसकी जो कामना हो, वह पुरी हो ऐसा वरदान ज्ञानेश्वर समस्त संसार के लिए मांगते हैं। ईश्वर में आस्था रखने वाले सभी संतों ने ज्ञानेश्वर के पसायदान को मन- वचन- वाणी से स्वीकार किया है।
संत नामदेव कहते है –
आकल्प आयुष्य व्हावे तया कुळा।
माझिया सकळा हरीच्या दासा॥
कल्पनेची बाधा न हो कोणी काळी।
हे संत मंडळी सुखी असो॥
अहंकाराचा वारा न लागो राजसा।
माझ्या विष्णू दासा भाविकासी॥
नामा म्हणे तयां असावें कल्याण।
ज्या मुखी निधान पांडुरंग॥ 2
अर्थात् संत नामदेव जी ईश्वर से बहुत सुन्दर प्रार्थना करते हुए मांगते है कि हरि का संकीर्तन करने वाले को कल्पना,शक की संसर्ग न हो इसलिए सतर्क रहें। राजयोगी या राजस भाविक को अहंकार को हवा का हल्का सा झोंका न लगे। ऐसा कहने नामदेव एक स्पष्ट आश्वासन देते हुए कहते है कि हर किसी व्यक्ति के मुख में हरी हो तो उसका चिरस्थाई मंगल हो जाता है। मन का वहम भगवान के समीप जाने से रोखता है क्योंकि संशय भ्रम में वृध्दि करता है और भ्रमवश उसकी दृष्टि अंधी हो जाती है। अंधों के सामने साक्षात आकर खड़े हो तो भी उसे कैसे दिखाई देगा?
संभव ही नहीं। संशय आत्मज्योति को ढॅंक देता है। इसी तरह अहंकार की जब भी उठती है। तब तब बड़े बड़े तपस्वी,योगी का संयम गमछे की तरह उड़ जाता है। इसीलिए अहंकार,संशय से दूर ही रहो तो अच्छा। तभी तुम्हें हरी के कुल में सर्वोच्च स्थान प्राप्त होगा ऐसा नामदेव जी आश्वस्त करते है। कीर्तन का समापन भी इसी अभंग से करने की परंपरा है।
संत ज्ञानदेव के पसायदान को स्वीकार करते हुए नामदेव विश्व कल्याण चिंतन मे आदर्श विश्वव्यवस्था का एक सुंदर स्वप्न देखते है । इस स्वप्निल मनोदशा मे तुकाराम ने वृक्षवल्ली और वनचरों को अपना सगे संबंधी माना है।
मराठी संतों का पसायदान आधुनिक कवियों ने भी प्रस्तुत किया है। केशवसुत कहते है –
सावलीत गोजिरी मुलें।
उन्हात दिसती गोड फुले॥
बघता मन हर्षूंन डुले।
ती माझी,मी त्यांचा,एकच ओघ आम्हांतुनि वाहे।3
अर्थात् वृक्ष की छाया में अत्यंत सुंदर बच्चे,धूप में फूल भी बहुत सुंदर ,मन को लुभाते है। उन्हें देखकर मन हर्षित हो जाता है। बच्चें,फूल और स्वयं में बहने वाली हवा का रूख एक ही है। सकल देह ब्रम्ह हो गया है ऐसा प्रत्यय या एकत्व है।
इसी दृष्टि से ‘ मानव तेही मानव आम्ही’ ऐसा कवि अनिल परब ने कहा है। 4 मनुष्य वो भी है और हम भी।
संत ज्ञानेश्वर कहते है- उनके गुरु निवृत्ति नाथ के चरण कृपा से भारत कथा सुगम ओवी छंद मी सुलभता से कहूंगा ‘।5
नामदेव तीर्थावळी में कहते है – उसकी कृपा से वाणी में सहजता आयेगी। मेरे अल्प मति के अनुसार जो समझ पायेंगा, उसे मैं अभंगों के द्वारा कहूंगा।6
संत तुकाराम कहते है – साळूखी मधुर वाणी में बोलती है। अपने धनी को बुलाते समय स्वर कुछ ओर ही होता है।7
संत ज्ञानेश्वरजी के प्रभाव से समकालीन तथा परावर्ती संतों ने जनकल्याण की निस्वार्थ भाव से अपने परमार्थ ज्ञान को सबके लिए खुला कर दिया। जनसाधारण को सही मार्गदर्शन करें ऐसी ज्ञानेश्वर की प्रतिज्ञा है। संसार में ज्ञान रूपी दीपक प्रज्वलित करने का मानस नामदेव व्यक्त करते है।
डुबते जन देख के मन में उठे पीर।
नैना दोनों बावरी छम- छम बरसे नीर।
संत तुकाराम ने पुकारा। ज्ञानेश्वर के प्रभाव से महाराष्ट्र को नया जीवन दर्शन से अवगत कराया। विभिन्न मानवीय मूल्यों में समता और समन्वय स्थापित कर महाराष्ट्रीयन लोगों के जीवन का संवर्धन किया। संत वैदिक है लेकिन उनमें कर्मठता नहीं है। निष्काम भक्ति भाव से ओतप्रोत है। अद्वैतवादी भक्ति में सर्व समावेशी भक्ति की स्थापना की। ज्ञानेश्वर द्वारा प्रतिपादित भागवत धर्म काल के प्रवाह में निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। परमतत्व के पावन स्पर्श से पल्लवित हुए ज्ञानेश्वर के भक्ति पथ की विरासत मिली और ज्ञानेश्वर का यह धर्म संकीर्तन सफल हुआ।