इतिहास में एक रोचक और साहसी प्रसंग पढने को मिलता है। छत्रपति शिवाजी महाराज की माता जीजा बाई अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा समाप्त होने के बाद उन्हें लेने के लिये गुरुकुल पहुंची तब उनके गुरु को असहनीय पेट दर्द हो रहा था, सारे शिष्य उनकी इस पीड़ा को देख चिंतित खडे थे वह अपने पूजनीय गुरु से पूछ रहे थे कि इस पीड़ा का इलाज क्या है? गुरु ने शिष्यों को बताया कि इसकी दवाई शेरनी का दूध है। इसे सुन सभी शिष्य भयभीत हो चले गये लेकिन शिवाजी महाराज शेरनी का दूध लेने वन की ओर चल दिये। घने वन में पहुंच कर देखा कि शेरनी अपने बच्चों को दूध पिला रही है, और शेर उनकी सुरक्षा के लिए वहां बैठा है। कुछ समय बाद शिवाजी महाराज शेर के सामने पहुंचे इससे पहले कि शेर उन पर आक्रमण करता उन्होंने उसके जबड़े को उस समय तक पकड़े रखा जब तक कि वह हार कर वहां से चला नहीं गया। उसके जाने के बाद शेरनी शांत रही क्योंकि वह शिवाजी महाराज का रौद्र रूप देख चुकी री थी। शेरनी का दूध निकाला और उसे अपने गुरु की सेवा में ले आये। इस पूरे प्रसंग को गुरु पेड़ों की ओट में छिप कर देखते रहे। दूध को देख गुरु महाराज ने कहा यह पाठ तुम्हें इसलिये पढ़ाना चाहता था कि जीवन में निडर हो कर ही असंभव लगने वाले लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। मुझे कोई पेट दर्द नहीं है। यह मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। जिसमें तुम सफल हुए। यह छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास थे।
समर्थ रामदास आध्यात्मिकता के ऐसे सिद्ध संत हुए जिन्हें विद्वत समाज में काफी लोकप्रियता प्राप्त हैं महाराष्ट्र और देश के कई भागें में उनकी आराधना हनुमान के अवतार के रूप में की जाती है। वह भगवान राम के अनन्य भक्त के रूप में पूजे जाते हैं ऐसा बताया जाता है कि उन्हें प्रभु राम ने साक्षात दर्शन दिया छोटी आयु में ही उन्होंने गोदावरी नदी के तट पर बारह वर्षों तक उनकी कठिन तपस्या की जिससे प्रसन्न हो उन्हें प्रभु के आत्म साक्षात्कार की प्राप्ति हुई। प्रभु रामचंद्र जी ने उनका नाम नारायण से बदल कर रामदास कर दिया।
जब शिवाजी महाराज ने आदर्श राज्य स्थापित करने के प्रयास आरंभ किये तब उन्हें अपना गुरु और मार्ग दर्शक बनाया उनकी विद्वता की हर ओर चर्चा हुआ करती। आज चार सदियां बीत जाने के बाद भी उनकी और उनके विचारों की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। वह पहले संत थे जिन्होंने ‘टाइम मैनेजमेंट’ ( समय प्रबंधन ) की महत्ता और जीवन में उसके सही इस्तेमाल पर प्रकाश डाला। वह इसके पालन पर सदैव तत्पर रहते। आज के समय में यह गुण सफलता की बडी कुंजी माना जाता है।
समर्थ रामदास का जन्म रामनवमी के दिन सन 1608 में हुआ था। उनके पिताजी का नाम सूर्याजी पंत कुलकर्णी और मां का नाम राणु बाई था। समर्थ रामदास का वास्तविक नाम नारायण सूर्याजी पंत कुलकर्णी था धार्मिक आचार-विचार उन्हें अपने पिता से संस्कारों में मिले। उनके बड़े भाई भक्ति और ज्ञान के महान संत समर्थ रामदास गंगाधर थे। नारायण (समर्थ रामदास) बचपन में बहुत शरारती थे एक दिन की बात है उनकी मां ने उन्हें उनकी शरारतों पर फटकारते हुए कहा कि “अपने बड़े भाई से कुछ सीखो और काम किया करो। यह डांट उनके मन को लग गयी और वह ध्यान लगा कर बैठ गये। अगले दिन उनकी मां ने उन्हें शरारत करते हुए नहीं पाया तो वह द्रवित हो उन्हें चारों ओर खोजने लगी, कुछ समय बाद उन्हें दीवार की अलमारी में ध्यान मग्न बैठा पाया तो उनसे पूछा यहां क्या कर रहे हो। तब उनका उत्तर सुन वह अचंभित रह गयी उन्होने कहा मैं यहां बैठ कर “विश्व की चिंता“ कर रहा हूं। इसके बाद उनके जीवन का चिंतन पूरी तरह से बदल गया। वह लोगों को धर्म, सदाचार और स्वास्थ्य संबंधी बातें बताने लगे। उन्होने युवाओं को बताया कि उनकी ऊर्जा से राष्ट्र निर्माण और विकास के कार्य हो सकते हैं अत; वह इस ओर गंभीरता से ध्यान दें।
कहा जाता है कि 12 वर्ष की आयु में जब उनका विवाह हो रहा था तब वह विवाह मंडप में पंडित के मुख से “सावधान“ शब्द को सुना जिससे उनमें विवाह के प्रति विरक्ति भाव पैदा हो गया और वे वहां से कहीं चले गये। फिर कभी कभी घर नहीं लौटे। इसके बाद वह भगवान राम की उपासना में लीन हो गये और 12 वर्ष तक तपस्या करते रहे। जब उन्हें भगवान राम के आत्म साक्षात्कार हुए तब उनकी आयु 24 वर्ष थी। तदुपरांत वह तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े। 12 वर्षों तक भारत भ्रमण करते रहे। भ्रमण करते हुए वह हिमालय पहुंचे वहां उन्हें विरक्ति भाव उत्पन्न हुआ कि अब प्रभु दर्शन हो गये हैं तो इस देह की क्या उपयोगिता है इस विचार के आने के बाद उन्होंने 1000 फीट से मंदाकिनी नदी में छलांग लगा दी लेकिन अचानक भगवान राम ने उन्हें थाम लिया और धर्म का कार्य करने की निश्चय किया कि वह इस शरीर को धर्म के कार्य में लगा देंगे। इसी उद्देश्य से भारत भ्रमण के लिये निकल पड़े। भ्रमण के दौरान जनता की निरीह और दयनीय स्थिति को देख विहल हो गये। मोक्ष प्राप्ति के साथ स्वराज्य प्राप्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।
वह केवल आध्यात्मिक व्यक्तित्व के धनी नहीं थे अपितु जन समुदाय में स्वस्थ और बलिष्ठ रहने का संदेश भी प्रसारित किया। प्रभु राम और महाबली हनुमान की मूर्ति को सदैव साथ रखते। देश भर में 1100 मठ स्थापित किये और अखाड़ों की स्थापना की ताकि जन सामान्य व्यायाम कर अपने को तंदरुस्त रख सकें इसके लिए वह सभी को प्रेरित करते कि व्यायाम के माध्यम से अच्छे स्वास्थ्य, विचार और सकारात्मक विवेक को पाया जा सकता है। स्वयं प्रतिदिन 1200 सूर्य नमस्कार और दो घंटे नदी में खड़े हो कर गायत्री मंत्र का जाप करते। दोपहर में 5 घरों से भिक्षा मांग कर भगवान राम को भोग लगाते उसके बाद उसका कुछ भाग पक्षियों और प्राणियों को खिलाने के बाद स्वयं ग्रहण करते। बताया जाता है कि अपनी 12 वर्षों की तपस्या के दौरान उन्होंने 13 करोड़ राम नाम जप किये। इसी कठोर तपस्या के कारण उन्हें प्रभु राम के दर्शन हुए। स्वयं एक “रामायण “ लिखी जिसमें पे राम की आराधनाओं का समावेश है। जिसे “करुणाष्टक“ कहा जाता है। उनके मुख में हमेशा राम नाम का जप निरंतर चलता रहता।
वैचारिक रूप से लोक जागृति का कार्य करते समय ठान लिया था कि राम राज्य की स्थापना करनी है। इस कार्य के लिये उन्होंने उस समय 1400 महंतों को दीक्षा प्रदान की। वह संगीत के अच्छे ज्ञाता थे। कई रागों में गाने वाली रचनाएं रची, 190 से अधिक आरतियों की रचना की। भगवान गणेश की गायी जाने वाली आरती “सुख कर्ता–दुख हर्ता वार्ता विध्नाची …” की रचना की। उनकी कही सूक्तियां भी लोकप्रिय हैं जिन्हें पाठक बड़े चाव से पढते हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ सूक्तियाँ- “जो अधर्म करता है और बेईमानी से धन कमाता है जो अविचारी होता है ऐसा इंसान उपयोग दूसरों को बिना किसी कारण से तकलीफ देने के लिये नहीं करना चाहिए “ “हमेशा अपनी मेहनत के बल पर जीना चाहिए दूसरों के टुकड़ों पर नहीं पलना चाहिये“ और “संस्कार से आप पूरी दुनिया जीत सकते हैं और अहंकार से जीता हुआ भी हार जाते हैं, लोग आईना कभी ना देखते अगर आईने में चित्र की जगह चरित्र दिखाई देता“ इत्यादि को पढा जा सकता है।
समर्थ रामदास द्वारा रचित पुस्तक “दासबोध” प्रसिद्ध आध्यात्मिक पाठ्य पुस्तक हैं जो मराठी में लिखी। इस कृति की रचना 17वीं शताब्दी में हुई। इसे उन्होंने अपने शिष्य कल्याण स्वामी को मौखिक रूप से कह कर लिखवाया। इसमें शिष्यों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया गया है। जैसे भक्ति की व्याख्या और ज्ञान को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त दैनिक जीवन में भक्तों की समस्याओं के समाधान इसमें समाहित हैं। रायगढ़ की मशहूर गुफा शिवथरघल में इसे लिखवाया जो गद्य में है इसमे धार्मिक जीवन पर गुरु शिष्य संवाद है। इसमें 20 अध्याय हैं। यह भक्ति मार्ग और ज्ञान मार्ग की श्रेष्ठ पुस्तकों में एक मानी जाती है, जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। भगवान राम का मंत्र “श्री राम जय राम, जय जय राम“ उन्होंने प्रदान किया। उनके 1100 शिष्यों में 300 महिलाएं हैं जिन्हें अपने द्वारा स्थापित मठों के प्रमुख के रूप में पुरुषों के साथ महिलाओं को भी उनका प्रभार सौंपा इनमें विधवा महिलाओं को भी रखा। अपने शिष्यों को उन्होंने यह संदेश दिया कि सदैव भगवान राम को अपने हृदय में बसाए रखो। लोभ, लालच, ईर्ष्या, क्रोध और अहंकार से दूर रहो।
उनके एक प्रसिद्ध कथनानुसार “पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया / तीजा सुख कुलवंती नारी, चौथा सुख पुत्र हो आज्ञाकारी पंचम सुख स्वदेश वासा छठवां सुख राज हो पासा’ जैसे जन कल्याण, जनोद्धार और जन हित उनके दर्शन का मुख्य ध्येय रहा। अपनी विलक्षण भक्ति और आध्यात्मिक शक्ति से उन्हें कई सिद्ध शक्तियां प्राप्त हुईं उनके कई चमत्कारिक प्रसंग भी चर्चित हैं। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने गोदावरी नदी में तैर रही एक मृत लाश को अपने स्पर्श मात्र से जीवित कर दिया था। वास्तव में उपासना का जो रूप उन्होंने प्रस्तुत किया उसमें सामाजिक कल्याण सरोकार समाहित हैं। भक्ति के माध्यम से उन्होंने जिस निःस्वार्थ सेवा भाव को अपनाया उसमें परहित और परोपकार की भावना अधिक है। हनुमान जी के कई मंदिरों को उन्होंने स्थापित किया।
छत्रपति शिवाजी महाराज उनके कार्यों से इतने प्रभावित हुए कि जब इनका मिलन हुआ तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य समर्थ गुरु रामदास जी की झोली में डाल दिया। इस पर राम दास जी ने महाराज से कहा “यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा यह राज्य भगवान का है हम केवल इसके न्यास हैं “ इसे सुन शिवाजी महाराज प्रभावित हो उनसे समय समय पर परामर्श करने लगे।
आध्यात्म और भक्त ज्ञान के इस महान संत ने सन 1682 में राम नाम जप करते हुए महाराष्ट्र के सज्जनगढ़ में समाधि ली । वहीं उनकी समाधि स्थित है प्रति वर्ष उनके भक्त देश के विभिन्न प्रांतों में दो मास का दौरा करते हैं और दौरे में मिली भिक्षा से सज्जनगढ की व्यवस्था संचालित होती है। समर्थ रामदास की विचारधारा तथा कार्य का प्रभाव लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार इत्यादि महान नेताओं पर भी पड़ा। अपनी समर्पित भक्ति से उन्होने समय के पटल पर जिन पद चिन्हों को छोडा है आज उनके अनेक भक्त और अनुयायी हैं जो मनः पूर्वक उन्हें पूजते हैं।