सामाजिक समरसता के प्रतीक बहुभाषाविज्ञ महाकवि विद्यापति को याद करना जरूरी हो जाता है। उन विद्यापति को जिनकी लेखनी में श्रृंगार और भक्ति रस ही नहीं, जीवन का मर्म और सार भी है। उन विद्यापति को जिन्होंने आज से करीब 800 साल पहले मातृभाषा के महत्व को समझा और लिखा- ‘देसल बयना सब जन मिट्ठा’, यानी अपनी भाषा सबको प्रिय होती है।
भारत में कभी सात हजार से अधिक भाषाएं थीं जो अब सिमट कर 400 तक आ गईं हैं। क्षेत्रीय भाषाओं को प्रतीक पुरुष की जरूरत है, विद्यापति उसके ही ध्वजवाहक हैं। विद्यापति ने साहित्य को लोकभाषा से मिलाया। जिन्होंने संस्कृत में तो रचनाएं लिखीं ही, अवहट्ठ और मैथिली में लिखकर जन-जन के प्रिय बन गए। विद्यापति ने जब मैथिली में पदावली लिखी तो उस समय संस्कृत के विद्वानों ने खूब आलोचना की मगर विद्यापति ने अपना काम जारी रखा। वे मिथिला संस्कृति में लोकदेवता की तरह है। यही कारण है कि आज वे बंगाल, असम और ओडिशा में भी उतने ही लोकप्रिय हैं, जितने बिहार में।
विद्यापति ने सिर्फ श्रृंगार और भक्ति रस की रचनाएं ही नहीं लिखीं, उनकी लेखनी में जीवन का मर्म और सार है। जिस तरह कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ और मार्क्स ने ‘दास कैपिटल’ लिखा, उसी तरह विद्यापति ने ‘पुरुष परीक्षा’ लिखी। इसमें लोक को बताया कि पुरुष या मनुष्य कैसा होना चाहिए? उसकी कसौटी निर्धारित की। ‘लिखनावली’ में उन्होंने बताया कि देश का शासन तंत्र कैसा होना चाहिए? राजा को कैसा होना चाहिए? वे नाटककार भी थे। उन्होंने उस काल में मणि मंजरा और गोरक्ष विजय जैसे बेहतरीन नाटकों की भी रचना की।
उनका लिखा गीत ‘जय-जय भैरवी असुर भयाउनी’ के बिना शायद ही मिथिला का कोई आयोजन, कोई समारोह होता है। आज भी मिथिला में देवी वंदना हो, शादी-विवाह हो, पर्व-त्योहार हो, मधुश्रावणी हो, विद्यापति के गीत ही जुबान पर होते हैं।
और बिहार-बंगाल ही क्यों, मिथिला के लोग जहां-जहां गए, उनके साथ विद्यापति के गीत और संस्कार भी गए। बंगाल में चैतन्ये महाप्रभु और ओडिशा में रामानंद राय विद्यापति से गहरे प्रभावित थे। उनका समाज सुधारक रूप उतना ही प्रखर है, जितना सांस्कृ तिक जागरण के पुरोधा पुरुष का व्ययक्तित्व, समन्वकयवादी स्वखरूप भी बहुत समादृत है।
विद्यापति की लिखी पदावलियां बहुत लोक प्रिय और प्रचलित हैं। वह भारतीय साहित्य के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्य मनीषी हैं। उनकी रचनाएं अवहट्, संस्कृत और मैथिली में हैं वह कितने महान कवि थे उन्हें इसी तथ्य से जाना जा सकता है कि, हिंदी साहित्य का इतिहास में प्रसिद्ध समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने काल विभाजन करते हुए जिन बारह ग्रंथों को आधार मान कर आदिकाल का नामकरण वीरगाथा काल किया था उसमें दो ग्रंथ विद्यापति के ही थे। “कीर्तलता” और “कीर्तीपताका”। लेकिन यह आश्चर्य ही रहा कि इसके बावजूद उन्होंने इस महान कवि को साहित्य इतिहास में एक अवतरण ही माना। उनका काल सन 1350 से 1440 माना गया है। आज आठ सदियों के बाद भी उनके स्मरण और उनकी कालजयिता में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई देती। वास्तव में उनका रचा साहित्य कालातीत है।
विद्यापति की मैथिली में रची गयी राधाकृष्ण प्रेम विषयक पदावली लोकानुरंजक है उन मधुर पदों की लोकप्रियता जन जन के कंठ में बस गयी लोकोक्ति और मुहावरों की तरह उनके लिखे पदों की पंक्तियां लोक जीवन का कंठाहार बन गयी हैं। ऐसा कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु उनकी पदावलियों को इतने भक्ति भाव से गाते कि गाते-गाते वह बेसुध हो जाते। उनकी परंपरा का अनुसरण करने वाले शिष्य भी उन्ही पदों को भाव विभोर हो कर गाते हैं दरअसल राधाकृष्ण के विद्यापति ने भगवान शिव मां दुर्गा और गंगा माता इत्यादि देवी देवताओं को अपनी भक्ति रचना का केंद्र बनाया उसमें इतना रमे कि भक्ति भाव से ओतप्रोत उनकी रचनाएं पदावलियों का मूल संदर्भ बन गयीं। इसके अलावा उनमें समाज सुधार, रीती-नीति से संबद्ध जन सरोकार की वाणी सुनायी देती है।
वह आदि काल भक्ति काल के मध्य संधि काल के कवि थे। विद्यापति के काव्य में भक्ति और जन मानस का स्वर है उन्होने राधा कृष्ण के माध्यम से सुख, दुख मिलन और विरह को रचा है। दरबारी क्रिया कलापो को निकट से देखा अतः वह केवल श्रंगार के कवि ही थे ऐसा कहना उचित नहीं होगा सामान्य जन जीवन से जुडी समस्याओं को 13 वी और 14 वी शताब्दी में अपनी कलम का हिस्सा बनाना उनकी व्यापक दूष्टि और लोक हित को दर्शाता है।
उनकी काव्य धारा में चेतावनी, चुनौती और चिंगारी नहीं बल्कि हृदय की पुकार सुनाई पडती है। इसलिये वह लोक भाषा, लोक कल्याण और लोक संसक्रित का अकाट्य भाग है। भक्ति में डूब भक्त आज भी उनके लिखें काव्यांशों को मुग्ध होकर गाते है। ऐसा कहा जाता है कि महादेव शिव की उन पर विशेष अनुकंपा रही अतः वह सदैव उनके मित्र के रूप में रहे और उनसे राधा कृष्ण का आख्यान लिखवाया। उसमें भक्ति और श्रंगार के विविध रूपों को गूंथा जो समयातीत बन गयी है।
विद्यापति का जन्म बिसपी गांव मधुबनी बिहार में हुआ। इनके पूर्वज इस गांव में बरसों से वास करते थे ऐसा कहा जाता है कि यह गांव इनके आश्रय दाता राजा शिव सिंह की ओर से उपहार स्वरूप उन्हें मिला था। इस गांव के रिवाज़ो और रहन सहन का प्रभाव उनके कवि हृदय पर पडा। उनके अधिकांश पदों मे राजा शिव सिंह का उल्लेख मिलता है। उनकी क्रित “भू परिक्रमा“ नैतिक शिक्षा से पूरित हैं इसी का हद रूप “पुरुष परीक्षा“ है।
इसमे कवि ने छोटी छोटी कथाओके रूप में राजनीति और धर्म को शिक्षा दी है। इस पुस्तक को महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि अंग्रेजों के शासन काल में ब्रिटिश शासकों द्वारा इस पुस्तक का अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाया गया।
अंग्रेज इस पुस्तक से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पुस्तक को स्कूलों में पाठ्य पुस्तक के रूप में पढवाया। उनकी कृत “लिखना वली“ में संस्कृत में पत्र व्यवहार करने के पाठ लिखे हैं। “दुर्गा भक्ति तरंगिणी“ में दुर्गा पूजा का महत्व बताया गया है। वह भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। इस संदर्भ में लिखे उनके इस पद को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
आन चान गन हरि कमलासन सब परिहरि हम देवा / भक्त -बछल प्रभु बान महेसर जानि कएलि तुअ सेवा। / कोई चंद्र की पूजा करते हैं। कोई विष्णु की पूजा करते हैं किंतु मैंने सबको छोड़ दिया। हे बाण महेश्वर भक्त वत्सल जान कर मैंने तुम्हारी ही सेवा की है।
आज भी उनके गांव में बाणेश्वर-महादेव हैं कहा जाता है कि वह इसी की उपासना करते थे। यही नहीं इनके लिखे हुए अनेकानेक शिव गीत हैं जो मिथिला मे इनकी पदावली से भी अधिक लोकप्रिय हैं तीर्थ यात्रा पर जाते समय महिलाए इनके पद गाती हैं तो पुरुष नचारियां गाते हैं। कहते हैं कि स्वयं महादेव उनकी भक्ति पर मुग्ध थे। दंत कथानुसार ” एक दिन एक अपरिचित आदमी उनके निकट आया और उनकी सेवा करने की अनुमति मांगी। उन्होने उसे रख लिया उसका नाम “उगना” था वह उनके यहां रहने लगा वह सदा उनकी सेवा में लगा रहता। एक दिन वह उसके साथ कहीं जा रहे थे रास्ते में उन्हें प्यास लगी। वह चल पडा और कुछ ही देर में एक लोटा पानी लौटा। वह उसे पीने लगे कुछ घूंट पीने के बाद उन्होंने पूछा उग़ना यह पानी कहां से लाये। उगना ने कहा निकट के कुंए से। इस पर उन्होने कहा इसमें तो गंगा जल का स्वाद आ रहा है। यह कुंए का जल हो ही नहीं सकता। बहुत कहने और सुनने के बाद जब उनको संतोष नहीं हुआ तब उगना ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया स्वयं महादेव “उगना” के रूप में थे।
यह जल उन्हीं की जटा का था। महादेव ने कहा “तुम मेरे पूर्ण भक्त हो, मैं तुम से अलग नहीं रहना चाहता। सावधान प्रतिज्ञा करो ! इस रहस्य को अपने तक ही सीमित रखोगे जिस दिन तुम इसे व्यक्त करोगे उस दिन मेँ अंतर्ध्यान हो जाउंगा। एक दिन उनकी पत्नी की उगना से कहा सुनी हो गयी, तो अकस्मात उनके मुख से निकल गया साक्षात महादेव से झग़ड़ा ! उसी समय महादेव अंतर्ध्यान हो गये। उनके विरह में वह चिल्ला पडे – उगना रे मोर कतए गेला। / कतए गेला सिव कीदहु भेला।। / जो मोर कहता उगना उदेस / ताहि देवओ कर कंगना बेस। / नंदन बन में भेटल महेस। / गौरि मन हरखित मेटल कलेस/ विद्यापति भन उगना सो काज। / नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज।। इस तरह के कई काव्यांश हैं।(संदर्भ : विद्यापति की पदावली राम कृष्ण बेनीपुरी)
आज के वैज्ञानिक युग में इस घटना पर लोग भले ही तर्क करें, पर यह तो मानना ही पडेगा कि हमारे भक्त कवियों ने इतने समर्पित भाव से अपने ग्रंथों और काव्यों की रचना की है जिसमें भक्ति का उत्स पढने और देखने को मिलता है। यही भारतीय साहित्य की अनुपम विशिष्टता है।
विद्यापति श्रंगारी कवि हैं उनके पदों में मिठास है राज्याश्रयी कवि होते हुए भी अपने समय के अनुसार जो उन्होंने लिखा वह उनकी मेधा और उनके भावों का निःसंदेह उत्कृष्ठ रूप है। साहित्य विभूति रविंद्र नाथ टैगोर उनकी रचनाओं से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने उनके कुछ पदों को अपने संगीत में संगीतबद्ध किया। बंगाल में विद्यापति की अपार लोकप्रियता आज भी है। वहां एक पुल का नामकरण विद्यापति सेतु के रूप में किया गया है। सन 1937 में कवि कोकिल विद्यापति के जीवन पर आधारित फिल्म “विद्यापति” बनी जिसमें पृथ्वीराज कपूर और पहाडी सान्याल ने अभिनय किया। इसी प्रकार सन 2018 में भारत सरकार द्वारा दरभंगा हवाई अड्डे का नाम करण उनके नाम पर “कवि कोकिल विद्यापति विमान पत्तन’ रखा गया। आज भी बडे संगीतज्ञ उनकी मां दुर्गा पर लिखी स्तुति जय-जय भैरवि असुर भयाउनि पशुपति भामिनी भाया” को भक्ति भाव में डूब कर गाते और बजाते हैं।
वह विकासवादी और दूरद्रष्टा कवि थे जिन्होनें अपनी रचनाओं में मानव हित का मर्म प्रस्तुत किया। ऐसा कहा जाता है कि जब उनके जीवन का अंतिम समय आया तब वह पूरे संतोष भाव से सबसे मिल पालकी में बैठ कर चल पडे। गंगा मैया की दूरी दो कोस रह गयी तब वह पालकी से उतर आये और मां को आवाज़ दी तो गंगा मैया जहां प्रवाहित नहीं होती थी वहां अपने पुत्र को लेने चली आयीं और उसे अपने साथ ले गयी। वास्तव में वह काव्य के तपस्वी महाकवि थे।