जाति न पूछो साधु की पूछि लीजिए ज्ञान / मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।
भारत को इसीलिए अनेक महापुरुषों ने देवों की धरती कहा है क्योंकि यहाँ पर संस्कृति व सभ्यता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है और हजारों वर्ष बाद भी भारतीय संस्कृति उतने ही सशक्त व जीवंत रूप में विद्यमान है। जब भी कोई कहता है मेरा भारत महान तो हमें गर्व की अनूभुति होती है। भले ही हमारे देश में अनेको बोलियां, भाषाएं बोली जाती है, अनेको परम्पराओं को निभाया जाता है। फिर भी हम सभी एक ही सूत्र में बंधे हुए है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतवर्ष अपने आप में एक छोटी दुनिया के समान है। हमें गर्व है कि विश्व की सबसे पुरानी भाषा संस्कृत यहीं पर सबसे पहले बोली गई। पहली पुस्तक ऋग्वेद यही पर लिखी गई। दुनिया का पहला विश्वविद्यालय भी यहीं पर तो खुला। कुल मिलाकर कहें तो भारत में वह हर सर्वश्रेष्ठ कार्य हुआ है। जिसे याद करके हम गौरवान्वित महसूस करते हैं।
2500 साल के पूर्व के भारत के विशाल इतिहास के साहित्य में किसी सम्प्रदाय का नामो निशान नही मिलेगा। ना हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इत्यादि। सिर्फ और सिर्फ “धर्म” शब्द का उच्चारण मिलेगा। क्या मतलब होता है धर्म का? ‘धर्म’ मतलब है कुदरत का कानून।
जैसे आग का धर्म जलना और जलाना है। यह उसका धर्म है उसे हम हिंदू धर्म नहीं कह सकते हैं, उसे हम बौद्ध धर्म नहीं कह सकते हैं, उसे हम जैन धर्म नहीं कह सकते हैं। यह आग का धर्म है उसका स्वभाव है। तो “धर्म” शब्द ही हमें मिलेगा और जैसे कहा जाता है कि हमें सार को महत्व देना होगा। जैसे ‘केला’ है तो उसके छिलके को महत्व दे रहे हैं।
यही कारण है जो इंसान ने खुद को खुद ने बनाए हुए बंधन में बांधा है। और वह बंधन मैं, मेरे और हमारी मान्यता, इससे बंधा हुआ है। जानता तो कुछ नहीं सिर्फ मानता है तो वह भी कितनी असक्ति होती है। इस बंधन को हमने खुद के अज्ञान से बांधा हुआ है तो इस बंधन को हमें ही अपने ज्ञान के प्रकाश से खोलना होगा।
सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद जो अपौरुषेय जिसका संकलन वेदव्यास जी ने किया। जो मल्लाहिन के गर्भ से उत्पन्न हुए। अठरहों पुराण, महाभारत, गीता सब व्यास विरचित है जिसमें वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था दी गई है। रचनाकार व्यास ब्राह्मण जाति से नही थे। ऐसे ही कालीदासादि कई कवि जो वर्णव्यवस्था और जाति-व्यवस्था के पक्षधर थे और जन्मजात ब्राह्मण नहीं थे।
मुझे पता है आप मनु स्मृति का ही नाम लेंगे, जिसके लेखक मनु महाराज थे, जोकि क्षत्रिय थे, मनु स्मृति जिसे आपने कभी पढ़ा ही नहीं और पढ़ा भी तो टुकड़ों में! कुछ श्लोकों को जिसके कहने का प्रयोजन कुछ अन्य होता है और हम समझते अपने विचारानुसार है। मनु स्मृति पूर्वाग्रह रहित होकर सांगोपांग पढ़ें। छिद्रान्वेषण की अपेक्षा गुणग्राही बनकर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
इसी समृद्धि की वजह से प्राचीन समय से लेकर मध्यकालीन युग तक भारत पर अनेको आक्रमण हुए, लेकिन यह हमारे पूर्वजो का प्रताप है कि हम आज भी अपनी संस्कृति को गर्व के साथ निभा रहे है। न जाने कितनेही वीर-वीरांगनाओं ने अपने प्राण देश की सुरक्षा के नाम पर कुर्बान कर दिए। हालांकि कुछ लोगो ने खुद को बेचते हुए देश के साथ गद्दारी की, जिसको लेकर हमें आज भी क्रोध आता है। लेकिन शहीदों के गौरवशाली इतिहास को जानकर हमें गर्व महसूस होता है। ये वीर किसी एक क्षेत्र के ही नहीं बल्कि पूरे भारतवर्ष के है।
सन 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद देश की सभी छोटी-बड़ी रियासतों का विलय कर सरदार पटेल ने एकीकृत भारत के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया है। आजादी के पश्चात देश में कोई भी राजा या जमींदार नहीं रहा, उनका स्थान हमारे राजनीतिज्ञों ने एवं प्रबुद्ध समाज सेवियों ने ले लिया। अब अपने भुगाग को बचाने के लिए युद्ध नहीं बल्कि विकास के नए-नए रास्ते तलाशे/खोजे जाते हैं। जिसमें हमारे राजनीतिज्ञों का अहम् योगदान रहा है। विदेशी मानसिकता से ग्रसित कमनिष्ठों (वामपंथियों) ने कुचक्र रचकर गलत तथ्य पेश किए। आजादी के बाद इतिहास संरचना इनके हाथों सौपी गई और ये विदेश संचालित षड़यन्त्रों के तहत देश में जहर बोने लगे।
पूजन कर लेना, उत्सव मना लेना, जुलूस निकाल लेना, महापुरुषों के जीवन प्रसंगों की चर्चा कर लेना ही क्या पर्याप्त है? महत्वपूर्ण दिन केवल रस्म बनकर क्यों रह गए हैं और प्रेरणात्मक बातें क्यों दरकिनार हो गई हैं? स्वामी विवेकानंद से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों के साथ भी तो यही हो रहा है। निश्चित रूप से महापुरुषों की जयंती मनाने की शुरूआत का कारण यही रहा होगा कि उनके सदविचारों से आने बाली पीढ़ियां प्रेरित होती रहें। महापुरुषों के बताए रास्ते पर लोग चलें लेकिन वक्त के साथ आयोजनों की भीड़ में महापुरुषों के विचार खोते चले गए। हमें जिस राघ्ते पर जाना था, लोगों ने वो रास्ते ही छोड़ दिए।
यदि मैं पुरानी बात करूं तो भगवान श्रीराम ने अन्याय के खिलाफ लड़ाई के लिए, वनवासियों के जीवन के उत्थान के लिए और राक्षसी प्रवृत्ति को समाप्त करने के लिए तो अपना संपूर्ण जीवन न्यौखबर किया ही, न्याय की भी नई मिसाल कायम की। माता सीता पर राज्य के एक नागरिक ने कोई टिप्पणी कर दी तो माता सीता को भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। भीलनी के बेर खाकर उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संदेश दिया। क्या प्रभु श्रीराम के इन संदेशों को हमने आत्मसात किया? कहते हैं कि उनके राज में हर कोई प्रसन्न था। सुख सुविधाओं से परिपूर्ण था। आज भी राम राज की बात तो बहुत होती है लेकिन क्या हमारी शासन व्यवस्था ने प्रभु श्रीराम की शासन प्रणाली के सद्गुणों को अपनाया? भगवान महावीर ने अहिंसा की बात की, क्षमा की बात की, दया की जात की। इंसानियत और प्रकृति की रक्षा के साथ अपरिग्रह का सिद्धांत हमें दिया।
वैज्ञानिक जीवन प्रणाली का राघ्ता दिखाया लेकिन क्या हम उनके बताए मार्ग पर चल रहे हैं? यहां मैं एक बात कहना चाहूंगा कि कोई भी महापुरुष या अवतार किसी भी मान्यता के हों लेकिन उनके विचार और उनकी सीख पूरी दुनिया के लिए होती है। उनके विचारों को धर्म की डोर में नहीं बांधा जा सकता है। भगवान महावीर ने यदि अहिंसा की बात की ते पूरी दुनिया के लिए की। आज हम सब उनके विचारों की प्रशंसा करते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी सत्य और अहिंसा की बात की लेकिन सामान्य जनजीबन में देखें तो हर ओर हिंसा का बोलबाला है।
चोरी, डकैती, लूट, हत्या, छाल और कपट ने समाज को नरक बना कर रख दिया है। सत्य गुम होता नजर आ रहा है और जिस अहिंसा के बल पर बापू ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिंदुस्तान से उखाड़ फेंका था वह अहिंसा खतरे में हैं। लोग अत्यंत असहिष्णु हो गए हैं। छोटी –छोटी बातों में धर्म को लेकर आ जाते हैं। अभी रमजान का महीना चल रहा है। जीवन में हम पाकीजगी ला पाएं, एक-दूसरे के गले मिलें और प्रेम का प्रकाश फैला पाएं, इससे बेहतर और क्या हो सकता है? भारत रत्न डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने हमारे संविधान की रचना में तो प्रमुख भूमिका निभाई ही, उन्होंने समता मूलक समाज की सीख भी हमें दी लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमने उनकी मूर्तियां तो खूब स्थापित कीं लेकिन समता के रास्ते पर उस तेजी से न बढ़ सके, जिस रफ्तार से हमें बढ़ना चाहिए था। बाबासाहब की बिलक्षण प्रतिभा के कारण ही इस देश ने उन्हें बड़े सम्मान के साथ महामानव कहा। उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली गई।
उनके योगदान को हर किसी ने सराहा। उनके विचारों को भारत की किस्मत बदलने वाला बताया। समाज और शासन ने उनकी पूजा की, उन्हें नमन किया लेकिन उनके रास्ते को ठीक तरह से नहीं अपनाया। बाबासाहब की सीख केबल हिंदुस्तान के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए है। उन्होंने समानता की बात की तो पूरी दुनिया के लिए की। आज हम देख रहे हैं कि पूरा अफ्रीका तो असमानता की आग में झुलस ही रहा है, अलंत प्रगत राष्ट्र अमेरिका भी जाति की जकड़न में है।
बाबासाहब की सीख को मानते हुए यदि देश और दुनिया ने संकल्प ले लिया होता तो जाति प्रथा को हम समाप्त कर चुके होते। बाबासाहब ने कहा था कि मानवता ही मनुष्य का धर्म है। उन्होंने शासन व्यवस्था को बेहतर बनाने का रास्ता दिखाया था लेकन हमने उसे भी पूरी तरह अंगीकार नहीं किया। इसके लिए किसी सरकार को दोषी ठहराना उचित नहीं है। केंद्र की सत्ता में पहलेकांग्रेस थी, आज भाजपा है। राज्यों में कहींवामपंथी हैं, कहीं आम आदमी पार्टी है तो कहीं तृणमूल कांग्रेस है। सत्ताएं तो बदलती रही हैं, मुद्दे की बात है बेहतर शासन प्रणाली की।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और जैन आचार्य महाप्रज्ञ जी ने संयुक्त रूप से जीबन विज्ञान प्रकल्प हमें दिया लेकिन लोगों ने इस मार्ग का भी हढ़ता के साथ अनुसरण नहीं किया। यदि आप देखें तो सदुणों की सीख को मनुष्य के जीवन में उतार पाने में शिक्षा व्यवस्था भी कमजोर साबित हुई है। हर धर्म और प्रत्येक महापुरुष ने हमें प्रेम की भाषा सिखाई है। मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करने का मार्ग दिखाया है। सुखमय जीवन का सार तत्व हमें दिया है लेकिन हमने सीखों को दरकिनार कर दिया।
महापुरुषों को पाठयपुस्तकों और आयोजन में समेट दिया। नतीजा सामने है। इंसान को इंसान ही जिंदा जला रहा है। घर्म के नाम पर कत्लेआम हो रहा है। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। जो बलशाली है वो हमलावर बन बैठा है।जबकि होना यह चाहिए कि जो जितना शक्तिशाली है उसमें उतनी ही विनम्रता होनी चाहिए, करुणा होनी चाहिए, क्षमा का भाव होना चाहिए, अहिंसा होनी चाहिए।
तो फिर हम हिंसक क्यों हो रहे हैं? अपनी अगली पीढ़ी को हम कैसा समाज और कैसा देश सौंप रहे हैं? इस गंभीर मसले पर एक बार सोचिएगा जरूर। हमारी एक छोटी सी शुरूआत भी परिवर्तन का बड़ा माध्यम बन सकती है। देश की रक्षा करने वाले, देश पर मर मिटने वाले महापुरुषों की कोई जाति नहीं होती। उन्हें भाषा, क्षेत्र या जाति में नहीं बांटना चाहिए। महापुरुषों के लिए राष्ट्रवाद सर्वोपरि होता है। महापुरुषों पर पूरे भारतीय समाज को गौरव की अनुभूति करनी चाहिए।’
इसे मै उदाहरण के तौर पर बताना चाहूंगा, जैसे हमें केला खाना हो तो उसके छिलके निकालकर खाते हैं और फेंक देते हैं। और फिर केले का स्वाद हम लेते हैं। यहां पर उल्टा हो गया है। हमने जो संतों की वाणी का सार है उसे महत्व न देकर जो ऊपर ऊपर के छिलके हैं जैसे अलग-अलग वेशभूषा, अलग-अलग भाषाएं, अलग-अलग मान्यता है इनको प्रधानता दी। जिससे हमारे दुख और सुख का दूर तक का कोई संबंध नहीं है। पर अज्ञान के कारण “सार” को समझ नहीं पाए। कोई ऐसा संप्रदाय नहीं होगा जिसमें अच्छे कर्म करने को नहीं कहा होगा। उसके बावजूद जो कर्म प्रधान है उसे दूर करके वर्ण प्रधान कर दिया है।
लेकिन दुख होता है कि अनजाने में हम अपने वीरो को सिर्फ एक ही क्षेत्र अथवा अपनी जाति से जोड़कर देखना शुरु कर देते है। यह उन वीर शहीदों का अपमान है। वीरों का गुणगान करने के बजाय हमने उन्हें सिर्फ एक सीमित परिधि तक स्थापित कर दिया है। हमें समझना चाहिए कि ऐसा करने से हम अपनी आने वाली पीढ़ियो को क्या जवाब देंगे। इसलिए हमें यह ध्यान रखना होगा कि जिस दिन हम अपने इतिहास को उसके हिस्से का सम्मान देंगे, उस दिन किसी की अभिव्यक्ति पर सवाल खड़े नहीं होगे। तब समस्त भारत अपनी जड़ो से जुड़ाव महसूस करेगा। जब हम अपनी जड़ो से जुड़ जाएंगे, तो किसी की अभिव्यक्ति से कोई गुमराह नहीं होगा।
हमारे शहीदो की गाथाएं बच्चो के पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए ताकि नई पीढ़ी अपने देश की मिट्टी की ताकत को पहचान पाए, उसकी रूह को समझ सके। ऐसा होने पर हमारा देश और मजबूत होकर विश्व के समक्ष खड़ा हो पाएगा। संपूर्ण देश का गौरव है। देश की धरती को उन पर नाज है। जब-जब हम इनकी गौरवगाथाएं पढ़ते है, सुनते है, जानते है, तो हमारा रोम-रोम रोमांचित हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे कुछ भी नामुमकिन नहीं है और स्वयं भी इस हम जोश से भर जाते है।