अगर मैं यह कहूं कि हमारी पीढ़ी मुंशी प्रेमचंद को पढ़ते और उससे प्रेरित होते हुए बड़ी हुई है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी. हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई साहित्य प्रेमी मुंशी प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों और रचनाओं से गुजरा नहीं होगा.
हिंदी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक मुंशी प्रेमचंद जिनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव उर्फ़ नवाब राय था, का जन्म वाराणसी (तब बनारस) के एक गांव लमही में ३१ जुलाई १८८० को हुआ था. माँ आनंदी देवी गृहिणी थीं और पिता मुंशी अजायब राय लमही में डाक मुंशी थे. उनका बचपन सुखकर नहीं रहा, माँ उनको सात साल की अवस्था में छोड़ कर स्वर्गवासी हो गयीं और पिता १४ साल की अवस्था में. इन्हीं परेशानियों से लड़ते हुए उन्होंने सन १८९८ में मेट्रिक पास किया और एक स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गए. फिर सन १९१९ में बी.ए. करके शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर बने.
१५ साल की उम्र में उनका पहला विवाह हुआ जो सफल नहीं रहा. उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया. उनकी तीन संतानें हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव.
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था. शुरु में कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया. इस तरह प्रेमचंद का साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ – साथ रहा. यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था, पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में “सौत” नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी “कफन” नाम से. बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं. मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की. भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं. प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया जो १९०८ में प्रकाशित हुआ. देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी. मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया, यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये.
उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था. सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे. उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे. उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा “हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे. किन्तु हारने के पश्चात् – पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, “तुम जीते हम हारे. पर फिर लड़ेंगे.” जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था. जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं “कि जाड़े के दिनों में चालीस – चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये. मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें.”
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे.वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे, जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा. बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे. वह आडम्बर एवं दिखावे से मीलों दूर रहते थे, जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी. तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे.
जीवन के प्रति उनकी अगाध आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके. धीरे – धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे. एक बार उन्होंने जैनेन्द जी को लिखा “तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो – जा नहीं रहे पक्के भगत बनते जा रहे हो. मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ.”
मृत्यु के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था – “जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है. पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई.”
गोदान इनकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई. अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया. दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये जिसे आगे चलकर पुत्र अमृत राय ने पूरा किया. सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे. अपने इस बीमारी के समय में ही उन्होंने “प्रगतिशील लेखक संघ” की स्थापना में सहयोग दिया. आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में मुंशी प्रेमचजंद का देहान्त हो गया.
मुंशी प्रेमचंद ने समाज के हर वर्ग की कहानियां लिखी है, चाहे वह ग्रामीण क्षेत्र हो, शहरी हो, किसान हो, मजदूर हो या मिल मालिक आदि. इन्हीं में से एक वर्ग है सरकारी कर्मचारी जिसके बारे में भी उनकी पैनी नज़र उनकी कई कहानियों में मिलती है. उन्हीं में से कुछ चुनी हुई कहानियों का चयन इस भूमिका के लिए किया गया है.
नमक का दारोगा-
संभवतः प्रेमचंद की कर्मचारियों पर लिखी गयी सबसे प्रसिद्ध और बेहतरीन कहानी है “नमक का दारोगा”. किसी भी चीज पर जब रोक टोक लगती है तब उसे येन केन प्रकारेण करने का प्रयास किया जाता है और ऐसे में धन बल से लेकर ताक़त और धमकी इत्यादि का प्रयोग होने लगता है. और समाज चाहे उस समय का (१९०० ईश्वी का) हो या आज का, ऊपरी कमाई या रिश्वत तनख्वाह से कहीं ज्यादा जरुरी चीज समझी जाती थी. इस कहानी के मुख्य पात्र मुंशी वंशीधर को भी उनके पिता ने अपनी जानकारी का सबसे जरुरी ज्ञान दिया था “नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है. निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए. ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो. मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है. ऊपरी आय बहता हुआ श्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है. वेतन मनुष्य देता है इसी से उसमे वृद्धि नहीं होती ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है इसी से उसमें बरकत होती है. तुम स्वयं विद्वान हो, तुमको क्या समझाऊँ”.
मुंशी वंशीधर को नमक के दारोगा की नौकरी मिली जो उस समय ऊपरी कमाई के लिए सबसे मुफ़ीद जगह थी. अपनी नौकरी पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करते हुए उनका सामना एक दिन पंडिन अलोपीदीन से हो गया जो समाज में बहुत प्रतिष्ठित और बड़े व्यक्ति थे. उस रात उन्होंने पंडित अलोपीदीन की नमक की गाड़ियां पकड़ लीं और उनके हर तरह के प्रलोभन और धमकी के बाद भी नहीं छोड़ी. पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार किया गया लेकिन अपने धन बल और प्रभाव से वह अदालत से छूट गए. मुंशी वंशीधर को अदालत ने फटकार लगायी और इसके कुछ दिन बाद ही उनको मुअत्तल कर दिया गया. इस समाचार के मिलते ही उनके पिताजी ने उनकी जम कर लानत मलामत की और उनकी नासमझी के लिए बहुत कोसा. यहाँ तक कि पत्नी भी रुष्ट हो गयी और मुंशी वंशीधर हर तरफ से अकेले पड़ गए. फिर एक सप्ताह बाद पंडित अलोपीदीन मुंशी वंशीधर के घर पहुंचे और बड़े इज्जत और बड़ी तनख्वाह के साथ उनको अपने पूरे जायजाद का स्थायी मैनेजर बना दिया.
प्रेमचंद के कहानियों की सबसे बड़ी खूबी उनकी भाषा शैली, तमाम प्रचलित मुहावरों का यथोचित प्रयोग और उस समाज का बिलकुल जीवंत चित्रण. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि अगर हिन्दुस्तान से इतिहास की पुस्तकें गायब भी हो जाएँ तो भी प्रेमचंद का साहित्य पढ़कर इतिहास के बारे में सब पता लगाया जा सकता है. इस कहानी का नायक नौकरी में बेहद ईमानदार है लेकिन उसके अलावा बेहद व्यावहारिक है और लोगों को यथोचित सम्मान भी देता है. इसे पढ़ते समय उस समय का समाज और देश आपकी आँखों के सामने सजीव हो उठता है और यही मुंशी प्रेमचंद की सबसे बड़ी खासियत है. इस कहानी को जितना मान सम्मान मिलना चाहिए, उससे कम कदाचित नहीं मिला है और हिंदी साहित्य के लिए यह बेहद सुखद है.
जुलूस-
यह कहानी आज़ादी की लड़ाई के दौरान एक व्यक्ति इब्राहिम अली जिसने देश के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर कर दिए, दारोगा बीरबल सिंह जो अपनी नौकरी के चलते अपनों पर ही जुल्म ढाने को अभिशप्त है और उसकी पत्नी मिट्ठन बाई जो एक भारतीय पत्नी होने के साथ साथ एक हिंदुस्तानी महिला भी हैं, को लेकर लिखी गयी है. देश उस समय अंग्रेजों का गुलाम था और गांधीजी के आवाहन पर देश के तमाम नौजवान और बुजुर्ग महिला और पुरुष पूर्ण स्वराज्य के जुलूस में शामिल होते थे. अपने प्राणों की परवाह किये बिना बुजुर्ग इब्राहिम अली उस जुलूस का नेतृत्व करते हैं जिसे रोकने का जिम्मा दारोगा बीरबल सिंह पर है. दारोगा को अपनी तरक्की की भी चिंता है जिसके लिए उसे अपने अंग्रेज अफसरों को खुश करना जरुरी है. और इसी सिलसिले में वह इब्राहिम अली पर वार करके उनके ऊपर अपना घोड़ा चढ़ा देता है जिससे उनकी मौत हो जाती है. इस वाकये से मिट्ठन बाई बहुत आक्रोशित होती है और दारोगा बीरबल सिंह को खरी खोटी सुनाती है. इब्राहिम अली को सुपुर्दे खाक किया जाता है और उसमें शहर के तमाम लोग इकठ्ठा होते हैं. दारोगा के मातहत कर्मचारी उसकी बहादुरी की तारीफ करते हैं लेकिन उसे एहसास हो जाता है कि उसने कोई बहादुरी नहीं बल्कि कायरता की है. अंत में दारोगा बीरबल सिंह इब्राहिम अली की विधवा से माफ़ी मांगने जाता है और उसके बाद मिट्ठन बाई भी वहां पहुँचती है और उसे बीरबल सिंह को देखकर तसल्ली होती है.
इस कहानी में भी उस समय के समाज का, लोगों का और घटित होने वाली घटनाओं का बेहद सजीव चित्रण किया गया है. बड़े आदमी और असली नायक का चित्रण भी उन्होंने बखूबी किया है “हमारा बड़ा आदमी तो वही है जो लंगोटी बांधे नंगे पांव घूमता है, जो हमारी दशा सुधरने के लिए अपनी जान हथेली पर लिए फिरता है. और हमें किसी बड़े आदमी की परवाह नहीं है. सच पूछो तो इन बड़े आदमियों ने ही हमारी मिटटी खराब कर रखी है”. गांधीजी के आह्वान का प्रभाव कितना था और उनके विचारों को उस समय के लोग किस तरह से आत्मसात करते थे, इसका वर्णन भी इस कहानी में जगह जगह मिलता है. मिट्ठन बाई ने भी अपने पति को उसके करतूत के लिए खूब फटकारा है जो उस समय के आम औरतों की मनोदशा का सटीक चित्रण है जिनके लिए देश भी कम महत्वपूर्ण नहीं था.
और अंत में जिस तरह से दारोगा बीरबल सिंह अपने गुनाहों की माफ़ी के लिए इब्राहिम की विधवा के पास जाता है, उससे यह कहानी एक अलग स्तर पर पहुँच जाती है.
इस्तीफा–
इस कहानी का मुख्य पात्र फतहचन्द एक बाबू है जिससे निरीह प्राणी उस समय सरकारी तंत्र में और कोई नहीं होता था. बाबू को न तो अफसर के किसी बात का विरोध करने का हक़ है और न उसके बेतुके आदेशों का पालन न करने का. एक तरह से बाबू फतहचन्द उस समय अंग्रेजों के शासन में भारतीय बाबुओं की हालत का जीता जागता उदहारण है जिसे प्रेमचंद ने अपनी कलम से हुबहू कागज पर उतार दिया है.
अंग्रेज अफसर जो चाहे करते थे, जब चाहे बाबुओं को बंगले पर बुला लेते थे और उनको बुरी तरह डाँटते फटकारते भी थे. यह उस समय के समाज की कड़वी सच्चाई तो है ही, कमोबेश आज के समाज की भी बहुत हद तक सच्चाई है. आज भी बड़े अफसर अपने आप को अंग्रेजी शासन के अफसरों से कम नहीं समझते और अपनी मनमानी करते हैं.
चपरासी का किरदार अंत में आकर एक ऐसा मोड़ ले लेता है जिसे पढ़कर अच्छा लगता है. वह भले नौकरी करता है लेकिन किसी की बेइज़्ज़ती में भागिदार नहीं बनता. फतहचन्द की पत्नी ने भी अपने पति को दो टूक समझा दिया कि इज़्ज़त से बढ़कर कुछ भी नहीं और अगर वह अफसर को उसके ही लहजे में जवाब देकर आया है तो उससे बढ़कर कुछ भी नहीं.
एक आम महिला भी अपनी इज़्ज़त को लेकर किस तरह सचेत रह सकती है, उसका बेहतरीन उदाहरण यह कहानी है. और अंत में जब फतहचन्द को एहसास होता है कि इज़्ज़त गंवाकर नौकरी भी बचा ली तो पत्नी की निगाहों में गिर जायेंगे तो वह दुगुने जोशो खरोश से अफसर से अपनी बेइज़्ज़ती का बदला लेने चल पड़ते हैं और फिर उसे अपनी गलती की माफ़ी मांगने पर मजबूर करके ही लौटते हैं.
कुल मिलाकर यह कहानी उस समय के सरकारी कार्यालयों में बाबू की दयनीय दशा का बहुत सटीक और मार्मिक चित्रण करता है.
बड़े बाबू-
जहाँ मुंशी प्रेमचंद ने एक बाबू के निरीह रूप का बहुत सटीक वर्णन अपनी कहानी “इस्तीफा” में किया है तो “बड़े बाबू” कहानी के माध्यम से बाबू के दूसरे रूप का भी बहुत जीवंत वर्णन किया है. दरअसल यह एक कहानी कम, चुटीली व्यंग्य रचना ज्यादा लगती है लेकिन इस रचना में उर्दू शब्दों का जिस तरह प्रयोग किया गया है और वह इसके असर को कितनी ऊंचाई तक पहुंचा देते हैं, इसे पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है. उर्दू जबान पर प्रेमचंद को जिस तरह से महारत हासिल थी, यह रचना उसकी एक बेहतरीन और मुक़म्मल बानगी है.
एक बेरोजगार पढ़ा लिखा युवक बड़े बाबू के पास अपनी नौकरी की आस लेकर पहुँचता है और अपने शब्दों की लफ़्फ़ाज़ी से उनको प्रभावित करने का प्रयास करता है. लेकिन घाट घाट का पानी पिए हुए बड़े बाबू ऐसे वाकयों और उम्मीदवारों से रोज ही दो चार होते हैं तो उनके ऊपर इस चमचागिरी का कोई असर नहीं पड़ता. फिर उस युवक को याद आता है कि उसके पास सिफारिशी चिट्ठियां भी हैं तो वह उन्हें निकालकर बड़ी चतुराई से बड़े बाबू के सामने पेश करता है. लेकिन घाघ बड़े बाबू के पास हर चीज का तोड़ है और वह उस युवक को नौकरी पाने की शर्तों के बारे में समझाना शुरू कर देते हैं. जिन जिन चीजों को त्यागने के लिए बड़े बाबू उसको समझाते हैं, उनको त्यागने के बाद कोई भी इंसान अपना जमीर बचा नहीं सकता. और आखिर में बड़े बाबू उसे बताते हैं कि अपने साहबों के लिए संगीत और सुंदरी की व्यवस्था भी करनी होगी तो उनका दिल रो पड़ता है. लेकिन जब उसे घर पर मौजूद भूख से परेशान बीबी और बच्चों का ख्याल आता है तो वह हर शर्त मानने को तैयार हो जाता है.
इस रचना में दो अलग अलग व्यक्तियों के मनोभावों का इतनी खूबसूरती से वर्णन हुआ है कि पढ़ते समय पाठक ऐसा महसूस करता है जैसे वह घटना उसके समक्ष ही हो रही हों. जिस तरह के रूपक का प्रयोग इस रचना में शुरू से अंत तक किया गया है, वह चमत्कृत करने वाला है. इसमें व्यंग्य भी है तो समाज में फैली कुरीतियों पर प्रहार भी. धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड को भी इस रचना में खूब चुटीले तरीके से उठाया गया है. “बड़े बाबू में दोपहर के सूरज की गर्मी और रौशनी थी और मैं क्या मेरी बिसात क्या दो मुट्ठी खाक”, वाक्य जैसे तमाम दफ्तरों के बड़े बाबुओं और अपने काम के लिए सालों से चक्कर लगा रहे व्यक्ति का सजीव वर्णन है. एक मुसलमान युवक के लिए यह पंक्तियाँ “किसी हिन्दू औरत, खासकर नौजवान बेवा पर डोरे डालिये. आप उसकी अँधेरी जिंदगी के लिए एक मशाल साबित होंगे. वह उज्र नहीं करती, शौक से इस्लाम क़ुबूल कर लेगी. बस अब आप शहीदों में दाखिल हो गए. जनाब लीडर बन जायेंगे, एक हफ्ते में आपका शुमार नमी गिरामी लोगों में होने लगेगा, दिन के सच्चे पैरोकार”, उस समय और कमोबेश आज के समय की भी हक़ीक़त बयान करती है कि धर्म के नाम पर क्या कुछ नहीं कराया जा सकता. किस तरह से दफ्तरों के बाबू सीधे सीधे न कह के दूसरे तरीके से सबके सामने जलील करते हैं और सामने वाला व्यक्ति कुछ कह भी नहीं पाता.
कुल मिलाकर मुंशी प्रेमचंद की सबसे बेहतरीन व्यंग्य रचनाओं में से इस रचना को शुमार किया जा सकता है.
कप्तान साहब-
प्रेमचंद की रचनाओं की सबसे बड़ी खासियत उनका देश काल और उस समय की परिस्थितियों से पूर्ण साम्य स्थापित करना है. आप उनकी किसी भी कहानी को पढ़कर उस समय के समाज में क्या क्या घटित हो रहा है, यह बखूबी जान सकते हैं. इस कहानी में भी दो मुख्य पात्र हैं “भक्त सिंह और उनका बेटा जगत सिंह”. भक्त सिंह अपने कस्बे के डाक मुंशी थे और उनका बेटा पढ़ाई लिखाई से कोसों दूर भागता था. इसी वजह से उसे घर में भी कोई पसंद नहीं करता था और पैसे की जरुरत पूरा करने के लिए वह घर से चोरी इत्यादि करने लगा.
एक बार उसने पिता की जेब से एक रुपये से भरा लिफाफा चुराया और उसे लेकर बम्बई निकल गया. पिता गबन के आरोप में जेल गए और वह फ़ौज में भर्ती होकर अदन के लिए रवाना हो गया. वहां से उसने पात्र लिखा जिसके जवाब में उसे पता चला कि उसके पिता जेल में हैं और उसकी माँ मरणासन्न है. पिता कि जेल कि रिहाई के समय वह पहुँच जाता है और पिता से माफ़ी मांग लेता है.
एक सरकारी मुलाजिम तनख्वाह के अलावा ऊपरी कमाई के लिए ही किसी खास जगह अपनी पोस्टिंग चाहता है और डाक मुंशी भक्त सिंह भी इसी इरादे से अपना तबादला शहर कराते हैं. एक कर्मचारी की मानसिकता का बहुत सटीक वर्णन है इस कहानी में. बाद में उस समय चल रहे विश्व युद्ध, किस तरह घर पर हालचाल के लिए सिर्फ खत का ही सहारा होता था और जेल से रिहाई के समय जिसका कोई नहीं होता उसकी क्या मानसिक अवस्था होती है, का बहुत सजीव चित्रण इस कहानी में मिलता है.
एक पिता आखिर में अपने पुत्र का ही सहारा ढूंढता है और इसे भी बखूबी इसमें दर्शाया गया है. भाषा शैली और तमाम मुहावरों का प्रयोग प्रेमचंद की कहानियों को सबसे अलग बनाता है. “सहसा उन्होंने एक सैनिक अफसर को घोड़े पर सवार, जेल की तरफ आते देखा. उसकी देह पर खाकी वर्दी थी, सिर पर कारचोबी साफा. अजीब शान से घोड़े पर बैठा हुआ था. उसके पीछे पीछे एक फ़िटन आ रही थी”, इन पंक्तियों में उस समय के सैनिक की वेशभूषा का एकदम जीवंत वर्णन हुआ है. और कहानी की अंतिम पंक्तियाँ पढ़ने वाले को भावुक कर देती हैं और यही एक सफल रचनाकार की पहचान होती है.
होली की छुट्टी–
किसी रचनाकार की कल्पना की उड़ान की हद देखना हो तो आप इस कहानी को पढ़ कर देखिये. एक मास्टर जिसकी नयी नयी नौकरी लगी है और जिसे छुट्टी पर घर जाना है, वह बिना अपने हेड मास्टर को बताये ट्रैन पकड़ने निकल जाता है और फिर ट्रैन के छूटने पर पैदल ही घर जाने के लिए निकल जाता है. इस सफर में वह बहुत भटकता है और साथ ही साथ उसका मन भी भटकता रहता है. इस छोटे से विषय को लेकर कितनी बेहतरीन कल्पना की जा सकती है और किन किन पहलुओं को इसमें समेटा जा सकता है, उसका उदाहरण यह सशक्त कहानी है. हेड मास्टर नए मुलाजिम को किस तरह तंग करता है और जब पहली बार छुट्टी में कोई घर जाता है तो उसकी क्या मानसिक अवस्था होती है, बहुत बारीकी से इसका चित्रण किया गया है.
ट्रैन छूट जाने के बाद घर जाने के लिए उतावले व्यक्ति को बारह मील की दूरी भी कुछ नहीं लगती और वह पैदल ही घर जाने के लिए निकल पड़ता है. नाव पर बीतता एक एक मिनट ऐसे में कितना भारी पड़ता है, अँधेरा होने पर किस तरह किसी के मन में भी पछतावा आ सकता है, ५ किलो का सामान भी थकान होने पर मनों भारी लगता है, भूख लगने पर ऐसे में यथोचित जगह भी नहीं मिलती है और रास्ते में अगर कहीं पकते हुए खाने के पदार्थ जैसे गुड़ की गंध किस तरह किसी को भी विचलित कर देती है, सब कुछ है इसमें.
जिन लोगों ने गांव में गुड़ को पकते हुए नहीं देखा होगा या जिनको गांव का ताजा गुड़ खाने को नहीं मिला होगा, वह शायद इसके उस आकर्षण को नहीं समझ पाएंगे जिसे मुंशी प्रेमचंद ने इतने विस्तार से इसमें दर्शाया है. गांव में गुड़ बनाने के बाद उसे किस तरह मिटटी के बर्तन में रखा जाता था और जिसे गुड़ खाने की जबरदस्त तलब लगी हो, उसे अपने आप को रोक पाना किसी भी हालत में संभव नहीं होता, यह सब बहुत बेहतरीन तरीके से इसमें लिखा गया है. “मैंने मटके की पिण्डियों को कुछ इस तरह कैंची लगाकर रखा जैसे बाज दुकानदार दियासलाई की डिब्बियां भर देते हैं. एक हांड़ी गुड़ खली हो जाने पर भी मटका मुँहों मुँह भरा था. मगर दिल और जान में वह खींच तान शुरू हुई कि क्या कहूं और हर बात जीत जबान के ही हाथ रहती. यह दो अंगुल की जीभ दिल जैसे शहजोर पहलवान को नचा रही थी, जैसे मदारी बन्दर को नचाये उसको”.
और कहानी इसके बाद और चौंका देती है जब उसमें मिस्टर जैक्सन का किरदार आता है. रात के घने अँधेरे में जब मिस्टर जैक्सन का कुत्ता मास्टर को काटने लपकता है, तब मिस्टर जैक्सन ही उसे बचाते हैं और आगे की कहानी उस समय हुए युद्ध, उसके कारण और उसके परिणाम की पड़ताल करती है. युद्ध में शामिल सैनिक बिना वजह एक दूसरे को मारते हैं और फायदा व्यापारियों को होता है. फ़ौज से निकलने के बाद मिस्टर जैक्सन के जीवन में बदलाव आता है और वह जानवरों से किसानों के फसल की रखवाली करने लगता है और अंत में वह मास्टर को भी अपने कंधे पर उठाकर नदी को पार कराता है.
कुल मिलाकर यह कहानी अपने आप में बहुत से आयामों को समेटे एक कालजयी रचना है जिसे पढ़कर प्रेमचंद के लेखन कौशल का कोई भी मुरीद हो सकता है.
डिप्टी श्यामाचरण–
यह कहानी एक ईमानदार डिप्टी साहब और उनके परिवार को केंद्र में रखकर लिखी गयी है लेकिन साथ ही साथ यह उस समय की तमाम सामाजिक स्थिति का भी बखूबी चित्रण करती है. डिप्टी साहब बहुत मिलनसार और स्वाभिमानी व्यक्ति थे और एक बार एक अंग्रेज अफसर ने उनकी थोड़ी तौहीन कर दी तो उन्होंने किसी भी अंग्रेज अफसर के यहाँ जाने से तौबा कर ली. बाहर उनकी चाहे जितनी भी धाक हो, घर में उनके पत्नी की ही चलती थी. तीन बच्चों में से सबसे छोटा माँ के लाड़ प्यार के चलते बिगड़ गया था और उस समय के सभी व्यसन जैसे कबूतर उड़ाना, पतंगबाजी, बटेर लड़ाना और जुआ इत्यादि में लिप्त हो गया.
उसकी शादी एक १३ वर्षीय लड़की से तंय होती है जिससे पता चलता है कि उस समय तक बाल विवाह प्रचलन में था. और अगर लड़की सुंदर हो तो उसे दान दहेज़ की जरुरत नहीं होती, वर्ना यह सब आवश्यक हो जाता है.
बहू “क्यों अम्मा, क्या आप इसी साल व्याह करेंगी?
प्रेमवती “और क्या, तुम्हारे लालजी के मानने की देर है”.
बहू “कुछ तिलक दहेज़ भी ठहरा”.
प्रेमवती “तिलक दहेज़ ऐसी लड़कियों के लिए नहीं ठहराया जाता. जब तुला पर लड़की लड़के के बराबर नहीं ठहरती, तभी दहेज़ का पासंग बनाकर उसे बराबर कर देते हैं”.
समाज की इन्हीं विसंगतियों को प्रेमचंद अपनी कहानियों में बखूबी दिखाते थे और इसी लिए उनकी कहानियों से उस समय के समाज को करीब से समझा जा सकता है.
घर के अंदर महिलाओं की चुहल, बड़ी बहू गाने में कमजोर तो छोटी बहू रूप गुण और गाने में प्रवीण. बड़ी बहू के लिए इसीलिए दहेज़ की बंदिश तो छोटी के लिए दहेज़ का कोई जिक्र नहीं, यह सब भी बहुत बारीकी से चीजों को देखकर ही महसूस किया जा सकता है. हर छोटी से छोटी चीज से उनकी कलम अछूती नहीं रहती थी और भाषा शैली से वह हर चित्रण को सजीव कर देने में पारंगत थे. और कहानी के अंत में उसी नालायक लड़के ने बुलबुल के खेल में नवाब साहब को पटखनी दे दिया, यह भी इस बात को दर्शाता है कि हर व्यक्ति में कुछ न कुछ खूबी रहती ही है.
कुल मिलाकर घर गृहस्थी के तमाम पहलुओं को रेखांकित करती यह प्रेमचंद की अच्छी कहानियों में से एक है.
समस्या-
इस कहानी में जो बातें लिखी हैं वह आज भी जस की तस दिखाई देती हैं, या अगर ये कहें कि समस्या थोड़ी बढ़ ही गयी है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. हर दफ्तर में ऐसे एकाध सीधे और डरपोंक कर्मचारी या चपरासी होते हैं जिनसे ही वह दफ्तर चलता है. और सबसे ज्यादा फटकार भी उन्हीं को मिलती है क्यूंकि वह विरोध नहीं कर पाते.
इस कहानी में भी मुख्य पात्र चपरासी “गरीब” है जो सीधा, आज्ञाकारी, चौकस और घुड़की खाकर चुप रह जाने वाला व्यक्ति है. लिहाज़ा हर व्यक्ति उसी को काम सौंपता है, यहाँ तक कि बाकी चपरासी भी अपना काम उसको सौंप कर मजे करते हैं. और अगर कोई त्रुटि हो गयी तो उसकी सब मिलकर लानत मलामत करते हैं. उसकी तनख्वाह भी सबसे कम है और सबसे ज्यादा काम भी उसके ही जिम्मे है.
एक दिन वह बड़े बाबू के टेबल पर स्याही गिरा देता है तो बड़े बाबू उसको जमकर खरी खोटी सुनाते हैं. सबके मन में है कि वह अपने घर से दूध, सब्जी इत्यादि जो उसके यहाँ होता है, लेकर दे. वह डर के मारे यह काम नहीं करता लेकिन उसे जब यहाँ समझाया जाता है कि इससे उसके दुःख दर्द दूर हो जायेंगे तो वह तैयार हो जाता है. फिर तो वह धीरे धीरे सभी बुराईयों को सिख जाता है और चोरी बेईमानी में भी माहिर हो जाता है.
हर कहानी की तरह इस कहानी में भी उनकी भाषा देखते ही बनती है. “दैवयोग से झाड़न का झटका लगा तो दवात उलट गयी और रोशनाई मेज पर फ़ैल गयी. बड़े बाबू यह देखते ही जामे से बाहर हो गए, उसके कान पकड़कर खूब ऐंठे और भारतवर्ष की सभी प्रचलित भाषाओँ से दुर्वचन चुन चुन कर उसे सुनाने लगे”.
बड़े बाबू सामान लेना भी चाहते हैं लेकिन यूँ जताते हैं गोया उनको यह सब अच्छा नहीं लगता. “मैंने उसकी ओर से छमा प्रार्थना की. बहुत कहने सुनने पर बड़े बाबू राजी हुए. सब चीजों में से आधी आधी अपने घर भिजवाई. आधी में अन्य लोगों के हिस्से लगाए गए. इस प्रकार यह अभिनय समाप्त हुआ”.
लेकिन कहानी के अंत में लेखक यह सन्देश भी देता है कि ऐसे भोले भाले लोगों को दुनियादारी नहीं सिखानी चाहिए, वर्ना वह गलत रास्ता पकड़ लेते हैं. यही प्रेमचंद के लेखन की खासियत भी है कि वह रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ उस समय का सटीक खाका खींचते हैं बल्कि एक सार्थक सन्देश भी देते हैं.
प्रायश्चित–
प्रेमचंद की कहानियों में अक्सर कठोर यथार्थ तो होता ही है, कभी कभी उनकी रचनाएँ इतनी भावपूर्ण होती हैं कि पढ़कर आंख से आंसू निकल जाते हैं. “प्रायश्चित” भी उनकी ऐसी ही कहानी है जिसे पढ़कर ऑंखें नम हो जाती हैं. यह कहानी सुबोधचन्द्र और मदारीलाल नमक दो व्यक्तियों की है जिन्होंने साथ साथ पढ़ाई की थी और उसके बाद काफी समय बाद एक ही दफ्तर में साथ हुए. सुबोधचन्द्र पढ़ने लिखने और बाकी चीजों में भी बहुत जहीन थे और इसी वजह से मदारीलाल उनसे बहुत जलते थे, लेकिन प्रकट में कुछ नहीं कह पाते थे.
बाद में सुबोधचन्द्र मदारीलाल के दफ्तर में ही उनके अफसर बनकर आते हैं और मदारीलाल उनके बारे में लोगों को भड़काते हैं. “सुबोध के ये सारे गुण मदारीलाल की आँखों में खटकते रहते हैं. उसके विरुद्ध कुछ न कुछ गुप्त खड्यंत्र रचते ही रहते हैं. पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए. बोर्ड के मेम्बरों को भड़काना चाहा, मुंह की खायी. ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित हुए”.
सुबोधचन्द्र अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लेते हैं और वह मदारीलाल को भी अपना सहपाठी और दोस्त ही समझते हैं. एक दिन मदारीलाल सुबोधचन्द्र के केबिन से ५००० रुपये चुरा लेते हैं और उसके चलते सुबोधचन्द्र आत्महत्या कर लेते हैं. इसके बाद उनको बहुत आत्मग्लानि होती है और वह सुबोधचन्द्र की बेवा और उनके बच्चों को अपने घर लेजाकर उनका भरण पोषण करते हैं और अपने पापों का प्रायश्चित भी करते हैं.
इस कहानी में भी उस समय के समाज का बहुत प्रभावशाली चित्रण है और इसे पढ़ते समय उस समय का वातावरण आपकी आँखों के सामने जीवंत हो उठता है. “बड़े बड़े सब अफसर जमा हैं. हुजूर लहास की ओर ताकते नहीं बनता, कैसा भलामानुष हीरा आदमी था. सब लोग रो रहे हैं, छोटे छोटे दो बच्चे हैं. एक सयानी लड़की है, ब्याहने लायक. बहूजी को लोग कितना रोक रहे हैं लेकिन बार बार दौड़ कर लहास के पास आ जाती हैं. कोई ऐसा न हो जो रुमाल से ऑंखें न पोंछ रहा हो”.
“विधवा का कोई उज्र न सुना गया. मदारीलाल सबको अपने साथ ले गए और आज दस साल से उनका पालन कर रहे हैं. दोनों बच्चे कालेज में पढ़ते हैं और कन्या का प्रतिष्ठित कुल में ब्याह हो गया है”. इस तरह मदारीलाल अपने पाप का प्रायश्चित कर रहे हैं.