संस्कृत के आलादर्ज़ा के युवा ग़ज़लकारों में एक बहुचर्चित नाम है-डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’ । आपका जन्म बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी(वाराणसी) में हुआ है | सम्प्रति आप केन्द्रीय संस्कृत संस्थान पलवल हरियाणा में संस्कृत के प्रोफेसर हैं | कहन की ख़ूबसूरती और ख़यालों की बुलंदी डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’को बड़ा शायर बनाती है। डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’ से मिलना और बतियाना किसी ज़िंदा ग़ज़ल से रूबरू होने की मानिंद है|
‘सङ्गता’ के पूर्व आचार्यडॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’ का एक और ग़ज़ल संग्रह ‘अभिज्ञानम्’ प्रकाशित हो चुका है । बहरहाल, मैं अपनी बात को डॉ.राजकुमार मिश्र के नये ग़ज़ल संग्रह ‘सङ्गता’ पर केंद्रित करना चाहूँगा।
ग़ज़लकार डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’ का यह दूसरा ग़ज़ल संग्रह कई अर्थों में अनूठा, अपूर्व, विशिष्ट और विरल है। इस संग्रह की ग़ज़लों की सोच, संवेदना और प्रस्तुति का स्तर बहुत ऊँचा है। इनके शेरों में जहाँ भावबोध का विस्तार, विचारबोध की गहराई और कलाबोध की ऊँचाई तीनों नज़र आते हैं। वरना देखने में तो यह नज़र आता रहा है कि जहाँ कहीं विस्तार है तो गहराई नहीं और गहराई है तो विस्तार नहीं। इसी प्रकार विस्तार एवं गहराई दोनों है तो ऊँचाइयाँ नहीं।
डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’ की ख़ास बात यह भी है कि इनकी ग़ज़लें इतनी प्रौढ़ और परिपक्व हैं कि इन्हें युवा शायर मानने को जी नहीं करता।
डॉ.राजकुमार मिश्र ‘कुमार’ पूर्णरूप से समकालीन शायर हैं। आज का समय और समाज अपनी तमाम विसंगतियों और विडंबनाओं के साथ इनकी शायरी में मौजूद है। आज के लगभग सभी नामवर शायर और समीक्षकों ने- जैसे कि पद्मश्री प्रो.अभिराज राजेन्द्र मिश्र, प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी, प्रो.रहस बिहारी द्विवेदी, डॉ.हर्षदेव माधव प्रभृति साहित्यकारों ने डॉ.राजकुमार मिश्र ‘कुमार’की शायरी की बेहद तारीफ़ की है।
डॉ.राजकुमार मिश्रजी हिन्दी, संस्कृत, के काव्य जगत में बरसों से सक्रिय हैं। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों में इनकी रचनाएँ बराबर छपती रही हैं । ‘सङ्गता‘डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’जी का नवीन प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है । यह हाल ही में यहसत्यम् पब्लिशिंग हाऊस दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’की ग़ज़लें सलीक़े से कही गयी ख़ूबसूरत ग़ज़लें होती हैं । इनकी ग़ज़लों में भरपूर ग़ज़लियत के साथ-साथ समकालीन भावबोध भी व्यापकता के साथ मिलता है । प्रस्तुत संग्रह की ग़ज़लें भी इन्हीं विशेषताओं से निबद्ध, सरोकार सम्पन्न ग़ज़लें हैं|
इस संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ते हुए मेरा पहला ध्यान इनके समकालीन कथ्य पर गया । डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’जी का जागरूक ग़ज़लकार वर्तमान समय के विभिन्न विमर्शों के साथ ही हमारे समय की कई समस्याओं पर भी बेबाकी से अपनी बात रखता नज़र आता है । चाहे वर्तमान में पनपती नफ़रत की भावना हो या सियासत का अनिश्चित स्वभाव, सामाजिक विसंगतियाँ हों अथवा व्यक्तिगत स्वार्थ; डॉ.राजकुमार मिश्र ‘कुमार’जी खुलकर अपनी ग़ज़लों में इन सब पर प्रहार करते हैं।
वर्षतो यच्चलित्वाऽपि नाऽसादयत्
शासनं निर्धनान्, तद्गति: कीदृशी ? ||पृष्ठ 28
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सुशासनस्यास्य गुणान् लिखामि |
कूपं खनित्वाऽथ जलं पिबामि ||पृष्ठ 34
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नैव पूर्वं रुचिर्यस्य तस्मिन् बके
तस्य सङ्गे स लीनोऽ द्य चित्रा स्थिति ||पृष्ठ 40
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यस्य राज्ञस्समासीनाश्चाटुकारा: खला: पुर:
पुरोहितास्स्थिता: पृष्ठे तदा दुःखं महत्तरम् ||पृष्ठ 98
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येऽर्थतस्करा: पुराऽभवन् न तेपराधिन:
लुण्ठकास्स्वदेशवासका अहो विचित्रता ||पृष्ठ 100
आशा और उम्मीद हर एक दौर में आदमी का एक बड़ा हथियार रहे हैं । हमने पत्थरों के बीच भी अंकुरण होते देखा है । हिन्दी के महान कवि रहीम ने भी समय आने पर काम होने की बात कह उम्मीद और धैर्य के साथ बने रहने की सलाह दी है । सच भी है कि जिसने धैर्य धारण कर लिया, उसने ख़ुद को पर्वत कर लिया यानी अब उसे मुश्किलों के कितने ही चक्रवात आएं नहीं हिला पाएँगे । आशा, धैर्य और उम्मीद की सलाह हमें हमारे परिवेश में हर समय मिली है और शायद इसीलिए मिली है कि हम यह याद रखें कि हर अँधेरी रात के बाद सवेरा होता ही है । डॉ.राजकुमार मिश्र ’कुमार’जी अपने समय के विसंगत से दु:खी और निराश तो होते हैं लेकिन इसी उम्मीद के सहारे ख़ुद को और आम जनमानस को मायूस होने से बचाए रखते हैं ।
झञ्झा विनङ्क्ष्यतीयं दीपस्य रोधिनी
चित्ते निधाय सारं कुर्यास्सखे स्थितिम् ||पृष्ठ 72
कविता में अपनी बात रखने का अंदाज़ बहुत महत्त्वपूर्ण अंग होता है । ग़ज़ल में इसका और ज़्यादा महत्त्व है । हज़ारों-लाखों सृजकों के बीच अपनी बात कहने का ढंग ही एक रचनाकार को ख़ास बनाता है ।डॉ.राजकुमार मिश्र ‘कुमार’जी के पास कहीं-कहीं अपनी विशिष्ट शैली के दर्शन होते हैं । इनके पास परम्परागत कहन के इतर अपना एक विशिष्ट अंदाज़ मिलता है । ये किसी भी संवेदना को शेर करते समय बात को घुमाने की बजाय सीधा और साफ़-साफ़ कहना पसंद करते हैं । लेकिन ऐसा ये अपने अंदाज़ में करते हैं और ऐसा करते हुए ये अन्य रचनाकारों से अलग खड़े होते हैं।
सखे ! मे जीवनं जातं श्मशानं जीवतस्साक्षात्
सुखं चिन्ताचितायां मेऽभवत् दग्धं वियोगे ते ||पृष्ठ 64
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रोटिकाया महत्त्वं तत: पृच्छ्यताम्
तामवाप्तुं निदाघे जनो यो रत: ||पृष्ठ 90
अपने दौर की विसंगतियों से टकराना, उनके कारणों की पहचान कर सवाल खड़े करना तथा समाज को उनसे सचेत करना डॉ.राजकुमार मिश्र ’कुमार’जी की ग़ज़लों का हासिल है। इसके साथ ही अपने समकालीन जीवन पर नज़र बनाए रखना भी इनकी ग़ज़लों का सकारात्मक पक्ष है।
असमञ्जसं निम्नोन्नतं घटते समाजेस्मिन् यदा
सञ्जायते तद् वीक्ष्य तद् रोद्धुं तदा कश्चित् कवि ||पृष्ठ 80
बढ़ती हुई घोर सांप्रदायिकता और टूटती-बिखरती भाईचारे की भावना को व्यक्त करते हुए डॉ.राजकुमार मिश्र ’कुमार’के ये अशआर बेहद पुरअसर बन पड़े हैं। वे कहते हैं-
न विद्यते सौम्यनिधिर्मनुष्ये
हन्त क्व सौजन्यकृते व्रजामि ||पृष्ठ 34
इसी प्रकार वेदना, दर्द, पीड़ा और कसक को अपने शेर में शामिल करते हुए कवि डॉ.राजकुमार मिश्र ‘कुमार’जी कहते हैं-
नाऽधुना स्मिन् वने निज: कश्चित्
वीक्ष्य कण्टान् ततस्सरेर्बन्धो ||पृष्ठ 26
कविता में अपनी बात रखने का अंदाज़ बहुत महत्त्वपूर्ण अंग होता है। ग़ज़ल में इसका और ज़्यादा महत्त्व है। हज़ारों-लाखों सृजकों के बीच अपनी बात कहने का ढंग ही एक रचनाकार को ख़ास बनाता है। डॉ.राजकुमार मिश्र के पास कहीं-कहीं अपनी विशिष्ट शैली के दर्शन होते हैं। इनके पास परंपरागत कहन के इतर अपना एक विशिष्ट अंदाज़ मिलता है। ये किसी भी संवेदना को शेर करते समय बात को घुमाने की बजाय सीधा और साफ़-साफ़ कहना पसंद करते हैं। लेकिन ऐसा ये अपने अंदाज़ में करते हैं और ऐसा करते हुए ये अन्य रचनाकारों से अलग खड़े होते हैं।
विशन्त्याश्रमे यत्र शास्त्रप्रबोधोत्सुका बालवृद्धा:
शठा मद्यपास्तत्र भूयो विशन्त :, कथं नैव जाने ||पृष्ठ 44
हमारे राष्ट्रीय परिदृश्य में एक चीज़, जो अमन पसंद लोगों को सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली है, वह है विषैली मानसिकता । इंसान की इंसान के ख़िलाफ़ जिस तरह की ज़हर उगलती भावनाएँ नज़र आ रही हैं, वह हैरान करने वाला है । यह ज़हर चाहे जाति-धर्म के नाम पर हो या क्षेत्रवाद के नाम पर हर कहीं शिकार हो रहा है तो वह है इंसानियत । यहाँ सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात है कि इस दम तोड़ती इंसानियत की ज़िम्मेदार राजनीति है । वह राजनीति जिसका जन्म ही राज्य की जनता का हित सोचने के लिए हुआ है । राजनीति चाहे सत्ता के उच्च प्रतिष्ठानों में हो या निम्न स्तर की सस्थाओं में, अगर अपने मूल उद्देश्य से भटकती है तो बहुत बिगाड़ करती है, यह हम आज़ादी के बाद लगातार देखते आ रहे हैं ।
कुर्वते स्वोन्नतिं वञ्चयित्वाऽबलान्
नायकास्ते विचित्रा विचित्रो जय: ||पृष्ठ 46
इन तमाम ग़ज़लों के साथ-साथ इस संग्रह की बहुत सारी ग़ज़लें हैं, जो पाठकों द्वारा बहुत-बहुत पसंद की जाएँगी, लेखकों द्वारा सराही जाएँगी, समीक्षकों द्वारा भी फिर-फिर उद्धृत की जाएँगी। कहा जा सकता है कि यह संग्रह अपने समय के लेखन, अपने समय की ग़ज़लों का संग्रह है। बेहतरीन ग़ज़ल संग्रह के लिए अग्रजवर्य डॉ.राजकुमार मिश्र‘कुमार’जी को बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ। हमें इनके आगामी प्रकाशन की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी।