1.
क़िताबों-सा खुला लगता, कहीं मैं राज़ भी होता
जहाँ पर ख़त्म होता हूँ, वहीं आग़ाज़ भी होता
कफ़स मंज़ूर कर लेता अगर ये ‘पर’ नहीं होते
दिया है ‘पर’, तो अम्बर में, दिया परवाज़ भी होता
वही इंसाँ अकेले में, मरे मुस्कान पर मेरी
मगर जो भीड़ में हँस दूँ, तो वो नाराज़ भी होता
मेरे बढ़ते हुए बच्चों में भोलापन अभी भी है
मुझे चिंता इसी की है, इसी पर नाज़ भी होता
जुदा है कद, जुदा काठी, जुदा चेहरा व ‘रंग-ओ-बू’
जुदा सब कुछ है मौला तो, जुदा अंदाज़ भी होता
ज़रा पाकर ज़माने को कहाँ संतोष होता है
जिन्हें ‘सुर’ है मिला, सोचें, मिला इक ‘साज़’ भी होता
कि’ “बादल” ने दबा रक्खे हैं सीने में हज़ारों ग़म
वो किससे ग़म करे साझा, कोई हमराज़ भी होता
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2.
कौन अपनेपन से हमको है पुकारे अब मियां
बेसहारों को कहाँ मिलते सहारे अब मियां
पाँव के छाले तुम्हें जब गुदगुदी करने लगें
तुम समझना पास है मंज़िल तुम्हारे अब मियां
उस नदी ने है सुखाया ख़ुद को, तब ये हो सका
मिल रहे हैं प्यार से दोनों किनारे अब मियां
अब नहीं मुड़ कर वो देखें कुछ ख़फ़ा से हो गये
और करिए छत पे जाकर यूँ इशारे अब मियां
चाँद को ‘बादल’ ने मुश्क़िल से मनाया था अभी
रूठकर हैं मुँह फुलाये ये सितारे अब मियां
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3.
चारागर भी दिखता है वो और कभी बेचारा भी
उम्मीदों से ज़िन्दा भी है उम्मीदों ने मारा भी
कब उसको है चैन मिला, वो कब ऐश-ओ-आराम किया
अपनों से वो जब-जब जीता, अंदर-अंदर हारा भी
सोच हमारी तय करती है, इसको हम कहते हैं क्या
आंसू ख़ुशियों का है मीठा, मानो तो है ख़ारा भी
अपनी कमियां सोच-समझकर दुनिया के आगे रखना
हमने कुछ पर्दे में रक्खीं, कुछ को है स्वीकारा भी
दौर-ए-हाज़िर में पढ़-लिख कर, घर में ख़ाली बैठा है
वो आंखों में चुभता भी है, वो आंखों का तारा भी
क्या कहिए उसकी हस्ती को, एक पहेली है “बादल”
वो ही सबके दिल में रहता, वो ही है आवारा भी