विस्मृत रचनाकारों की सूची हिंदी साहित्य में अनंत है। इन रचनाकारों को प्रकाश में लाने की इसी कड़ी में आज चर्चा भक्तिकालीन रचनाकार गंगाबाई पर। गंगाबाई को कुछ लोग विट्ठल गिरिधरन के नाम से भी जानते हैं। मिश्र बंधुओं ने अपने इतिहास में इनके नाम का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त डॉ0 पितांबर दत्त बड़थ्वाल के संपादन में हस्तलिखित ग्रंथों की खोज रिपोर्ट में भी इनका नाम मिलता है। यह विट्ठलदास की शिष्या मानी जाती हैं इसीलिए इनका समय सन 1550 ई0 के आस-पास माना जा सकता है। इनका एक स्वतंत्र ग्रंथ गंगाबाई के पद नाम से मिलता है। इसमें वात्सल्य रस की ही रचनाएं प्रधान रूप से हैं। वह कहती हैं –
रानी जूं सुख पायो सुत जाय,
बड़े गोप वधुन की रानी हंसि हंसि लागत पाय
बैठी महरी गोद लिये ढोटा आछी सेज बिछाय
बोलि लिये ब्रजरास सबनि मिलि यह सुख देखि आय
जेई जेई बदन बदी तुम हमसों ते सब देहु चुकाय
ताते लेहु चौगुनी हम पै कहत जाइ मुसकाइ
हम तो मुदित भये सुख पायो चिरजीवो दोऊ भाइ
श्री विट्ठल गिरधरन कहत ये बाबा तुम माइ
गीत सागर और बधाई सागर में भी इनके कुछ पद प्राप्त होते हैं। बाल लीलाओं के अलावा इन्होंने दानलीला, राधा, वामन अवतार, रामनवमी और कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव से संबंधित पद भी गाए हैं। जन्म दिवस के अवसर पर इनका यह पद बहुत ही सुंदर बन पड़ा है –
जसुमति सब दिन देत बधाई
मेरे लाल की मोहि विधाता बरसगांठ दिखाई
बैठी चौक गोद ले ढोटा आछी लगनि धराई
बहुत दान पावन सब विप्रन लालन देखि सिहाई
रुचि करि देहु असीस ललन को अप अपने मन चाई
श्री विट्ठल गिरधरन गहि कनिया खेलत रहहि सदाई
वात्सल्य वर्णन में यह सूरदास से कहीं भी कमतर नहीं प्रतीत होती हैं। हां यह अवश्य है की सूरदास की भांति इनका नाम हिंदी साहित्य के इतिहास में उल्लिखित नहीं है। वात्सल्य का एक और उदाहरण देखा जा सकता है –
सब कोई नाचत करत बधाये
नर नारी आपसु में ले ले हरद दही लपटाये
गावत गीत भांति भांतिन के अप अपने मन भाये
काहु नहीं संभार रही तन प्रेम पुलकि सुख पाये
नंद की रानी ने यह ढोटा भले नक्षत्रहि जाये
श्री विट्ठल गिरधरन खिलौना हमरे भागन पाये
कृष्ण की बाल लीलाओं में हास परिहास और मधुरता का जो चित्रण हमें सूरदास में दिखाई देता है वैसा ही चित्रण गंगाबाई में भी मिलता है। बाल लीलाओं के वर्णन में कृष्ण का मनोहारी चित्र गंगाबाई उपस्थित करती हैं। वह कहती हैं –
लाल तुम पकरी कैसी बान
जब ही हम आवत दधि बेचन तब ही रोकत आन
मन आनंद कहत मुंह की सी नंद नंदन सो बात
घूंघट की ओझल ह्वै देखन मन मोहन करि घात
हंसि लाल गह्यो तब अंचरा बदन दही जु चखाई
श्री विट्ठल गिरधरन लाल ने खाइ के दियो लुटाई
इनके पदों में सूरदास की भांति रागात्मकता का गुण है। अपनी बातों को यह बिंब के माध्यम से व्यक्त करती हैं। साधारण और सहज भाषा में बिंब उपस्थित करना इनके काव्य की बड़ी विशेषता मानी जाती है। खासतौर पर उस समय जब महिला लेखन का अभाव था और अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए, उसको परिष्कृत करने के लिए साधन उस तरह से उपलब्ध नहीं थे जिस तरह से आज उपलब्ध हैं। अनुप्रास अलंकार इनके काव्य में सबसे ज्यादा प्रयुक्त हुआ है। अलंकारों के चित्रण में सहजता का आभास समय होता है। इनकी भाषा ब्रजभाषा रही है जिसके कारण मधुरता भाषा की सर्व प्रधान विशेषता बनकर आती है। इनके काव्य को पढ़ करके यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि इन्होंने बड़े परिपक्व रूप से काव्य को लिखा है। शब्दों से खेलना भी इन्हे भरपूर आता है। व्यंजना शब्द शक्ति का एक उदाहरण देखा जा सकता है – “मन आनंद कहत मुंह की सी मुंह की सी नंद नंदन सो बात।“ आनंद विनोद की अभिव्यक्ति के लिए कितनी सुंदर अभिव्यक्ति है।
इनका सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है अलंकरण। अपनी सहजता के लिए गंगाबाई ज्यादा जानी जाती हैं । आज समीक्षा के मानदंड के अनुसार इनके पदों को रखना व्यर्थ है क्योंकि तत्कालीन परिवेश में स्त्री रचनाकार का मिलना और उनके कुछ उपलब्ध पदों का ही प्राप्त होना ही बहुत बड़ी बात है। उनकी समीक्षा और आलोचना कुछ पदों के आधार पर नहीं की जा सकती है। इनके पदों में हमें उत्श्रृंखलता नहीं दिखाई देती है। इनके पदों को देखकर यह एहसास होता है कि पुष्टिमार्ग का प्रभाव इनके ऊपर अवश्य था जो इनके जीवन शैली और रचनाओं दोनों को प्रभावित करता था। इनकी रचनाओं से यह दोनों बातें प्रमाणित होती हैं।
डॉ. सावित्री सिन्हा का मानना है कि “इसमें संदेह नहीं कि सूरदास के वात्सल्य संबंधी पद मानव की इस शाश्वत भाव की अमर अभिव्यक्ति हैं परंतु इसमें भी संदेह नहीं है कि उनके तद्विषयक अनेक पदों में केवल भोज्य पदार्थों और व्यंजनों का परीगणन मात्र है। गंगाबाई के पद सूर के उन पदों से निसंदेह अच्छे हैं।“ यहां इस उक्ति को कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि गंगा बाई के पद सूरदास से श्रेष्ठ हैं बल्कि उनके कुछ पद अवश्य गंगाबाई ने श्रेष्ठ लिखे हैं। यहां सूरदास और गंगाबाई का तुलनात्मक अध्ययन करना आशय नहीं है बल्कि यह कहा जा सकता है कि गंगाबाई के कुछ पद सूरदास से श्रेष्ठ भी हैं और कुछ कमतर भी हैं। परन्तु जिस वात्सल्य वर्णन के कारण सूरदास हिंदी साहित्य के इतिहास में अपना अमिट नाम लिखा लेते हैं और अग्रणी कवि के रूप में उभरते हैं उसी वात्सल्य वर्णन करने पर और उसी स्तर का वात्सल्य वर्णन करने पर भी गंगाबाई हिंदी साहित्य के इतिहास में अपना नाम तक न लिखा पाई। जाहिर सी बात है स्त्री रचनाकार होने के कारण उनके साथ पक्षपात किया गया है। न तो उनकी रचनाओं को ढूंढने का प्रयास किया गया और न ही उनका नामोल्लेख तक किया गया है जबकि उनकी रचनाएं परिपक्व रही हैं।