परीक्षाएं चल रहीं हैं। यह एक ऐसा समय है जहाँ बच्चे के साथ-साथ उसके माता-पिता भी तनाव में आ जाते हैं। तनाव ‘परिणाम’ का है। दसवीं-बारहवीं की परीक्षाओं का तो हमने हौआ ही बना रखा है लेकिन छोटी कक्षाओं की परीक्षा में भी लोग घर, सिर पर उठा लेते हैं। बच्चा, परीक्षा में कैसा प्रदर्शन करेगा! यह सोच मारे चिंता के माँ के गले से खाना नीचे ही नहीं उतर रहा। घर में जैसे अघोषित कर्फ्यू है। आना-जाना सब बंद। खेलना भी नहीं और टीवी का तो प्लग ही उखाड़ रखा है। कहीं गलती से बच्चा मोबाईल में कुछ खेलता दिख गया, फिर तो उसकी खैर नहीं! उस पर यह ताना भी कि ‘बताइए, पढ़ाई के समय जनाब को यह सब सूझा है!’ ‘कुछ दिन अच्छे से पढ़ ले, नाक मत कटा देना! याद है न, इस बार टॉप करना है!’
क्या बच्चों को इतना तनाव देना आवश्यक है? उसे विषय समझ आ गया। पढ़ाई में रुचि रखता है और उसने अच्छे से पढ़ा भी है; क्या इतना पर्याप्त नहीं? प्री-स्कूल, जूनियर स्कूल या किसी भी कक्षा में टॉप करके क्या कर लेगा वह? किस नौकरी में उसे आगे जाकर बताना है कि मैंने कक्षा एक में टॉप किया था! या कि पाँचवीं में ‘बेस्ट स्टूडेंट’ का खिताब जीता था! हाँ, अगर वह अपनी इच्छा और पूरे मन से स्वयं पढ़ता है और टॉप करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं, उसके लिए प्रसन्न होना स्वाभाविक है। लेकिन पढ़ाई के लिए उसे दिन-रात कोंचिए मत! उम्र के साथ समझदारी स्वयं आती है और वे पूरी जिम्मेदारी से मेहनत कर आगे बढ़ते हैं। कहीं ऐसा न हो कि उनके शुरुआती जीवन के अठारह वर्ष उन्हें युद्ध मैदान ही लगने लगें, जहाँ हर लड़ाई में उन्हें विजय मुकुट पहनकर ही लौटना है! जीतना उनके लिए इतना जरूरी न बन जाए कि वे हार बर्दाश्त ही न कर सकें। ध्यान रहे; हमें उन्हें अच्छा इंसान बनाना है, चक्रवर्ती सम्राट नहीं!
बच्चों को हारने दीजिए, अपनी भूलों से सीखने दीजिए। ये हार ही है जो उन्हें अनुभव देती है, अहंकार से दूर रखती है, झुकना सिखाती है। वैसे भी सच तो यह है कि यदि घर के लोग दबाव न डालें, तो बच्चों को कोई तनाव कभी होता ही नहीं। आप किसी भी उम्र के बच्चे से बात करके देख लीजिए, परीक्षा के समय भी वह मस्त ही होगा। उसे किसी बात से अंतर नहीं पड़ता। लेकिन उसे गंभीर दिखना पड़ता है क्योंकि माता-पिता की उम्मीद पर खरा उतरना है। माता-पिता पर यह दबाव कि समाज के, परिवार के सामने अपनी नाक ऊँची रखनी है कि लोग उनके बच्चे का उदाहरण दें कि ‘देखो, फलाने के बेटे-बेटी ने कैसे घर का, खानदान का नाम रोशन किया है!’
लेकिन बात इतने पर ही कहाँ रुकती है। डाँटते समय एक पंक्ति और जुड़ जाती है कि ‘….एक तू है, हमारी नाक कटवा दी!’ बस, यही एक वो बात है जिसके कारण हम परीक्षा-परिणामों के दौरान आए दिन बच्चों द्वारा आत्महत्या की खबरें देखते हैं। क्या सचमुच किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होना, सर्वोच्च अंक प्राप्त करना, एक बच्चे के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है? क्या एक वर्ष नष्ट होने का अर्थ यह है कि जीवन ही नष्ट कर दिया जाए? पर ऐसा क्यों होता है फिर? बच्चों के मस्तिष्क में आखिर यह बात आई कैसे कि असफल हुए, तो मुँह दिखाने लायक़ ही नहीं रहे! जरा कुरेदकर देखिए, इसकी जड़ में हम ही मिलेंगे! हमारी महत्वाकांक्षाओं की पोटली हमने उन नन्हे, नाजुक कंधों पर लाद रखी है। परीक्षा परिणाम घोषित होते हैं। अखबार कोचिंग सेंटर के टॉप रैंक वाले बच्चों की तस्वीरों से भर जाते हैं क्योंकि व्यवसाय ही ऐसा है कि जितना प्रचार, उतने एडमिशन।
वहीं अंतिम पेज पर कहीं कोने में यह खबर भी छपती है कि ‘निराशा में डूबकर एक छात्र ने ….!’ यह हर बार होता है, बार-बार होता है और हम इसे ईश्वर की मर्ज़ी कह संतोष धर लिया करते हैं। क्या सचमुच इसका कारण यही है?
इस तरह की घटनाओं का एकमात्र कारण है कि हमने अपने बच्चों को असफल होना नहीं सिखाया! हमने उन्हें यह तो बता दिया कि जब कुछ जीतते हैं तो ढोल-बाजे बजते हैं, मिठाई बँटती है, गर्व से सीना चौड़ जाता है, घर-बार खुशियों से झूम उठता है। अखबारों में, टीवी पर चर्चे होते हैं और आप सफल लोगों की श्रेणी में आ जाते हो।
लेकिन यह कौन बताएगा कि हारने के बाद क्या करना है? “अरे! ये तो सीखा ही नहीं हमने! कहाँ जाएं भई? किसी कोने में बैठ सुबकते रहें? सबसे मिलना-जुलना छोड़ दें? अवसाद में डूब जाएं? कहीं से छलांग लगा दें या गले में रस्सी बाँध लटक जाना ही विकल्प है? ओह! नंबर कम आए हैं, तो हम सबके बीच रहने लायक नहीं रहे!” यह डर कैसे आया बच्चों के दिमाग में? निराशा के दौर में उन मासूम दिलों पर न जाने क्या गुजरती होगी!
क्योंकि समाज ने असफलता से डील करना तो कभी सिखाया ही नहीं? उसे किसी दौड़ में पीछे छूट गए लोगों का उपहास उड़ाना ही आया है, उनकी वहाँ पहुँचने तक की यात्रा से किसी को कोई मतलब नहीं। बाज़ार भी बस जीतने के ही गुर सिखाता है। सोशल मीडिया आपको दिन-रात यह बताता है कि ‘कैसे घर बैठे-बैठे घंटों में लखपति बना जाए। दो दिन में नामी लेखक बन जाएं। कैसे आपके घर सात दिनों में होगी धन वर्षा। फलाना काम कर लो, फिर जीत निश्चित है।‘
पुस्तकें भी ‘सफलता के सौ मंत्र’, ‘शिखर तक पहुँचने के एक हजार तरीकों’ से भरी पड़ी हैं लेकिन ‘जो न पहुँचे तो क्या ही हो जाएगा?’ यह कोई नहीं समझाना चाहता। क्या एक रास्ता बंद होने से दूसरा नहीं खुल जाएगा? क्या एक प्रयास में अपेक्षित परिणाम न मिलने से दोबारा प्रयास नहीं किया जा सकता? अब तो इतने अधिक विकल्प हैं कि बच्चा अपनी पसंद के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है।
अजी वह ढूंढ लेगा अपने रास्ते, आप मार्गदर्शक बन उसके साथ रहिए, वो कभी लड़खड़ाए, गिरे तो यह भरोसा दीजिए कि आप हैं उसे संभालने को। और उसे इस बात का भी विश्वास होना चाहिए कि समाज की तथाकथित इज़्ज़त से कहीं अधिक ऊँची आपके जीवन में उसकी उपस्थिति है। यक़ीन मानिए जब अपने यह भरोसा देते हैं तो हार-जीत का खेल बहुत पीछे छूट जाता है और जीना अच्छा लगने लगता है। और लड़ाई तो जीते जी ही लड़ी जाएगी न! देख लेंगे। सब हो जाएगा।
आप तो बस जीवन की किसी भी परीक्षा में जाते इंसान को गले लगा इतना बता दीजिए कि वह आपके लिए कितना महत्वपूर्ण है, आप उसे कितना प्यार करते हैं और कोई सफलता-असफलता इस नेह बंधन को रत्ती भर भी विचलित नहीं कर सकती।
कई वर्षों से लगातार कह रही हूँ कि सफ़लता को मारिये गोली, पहले असफ़ल होना सीखिए!