मेघालय की भूमि लोक साहित्य की दृष्टि से अत्यंत उर्वर है। यहाँ के आदिवासी पर्वत शिखरों एवं सुदूर जंगलों में प्राकृतिक जीवन व्यतीत करते हैं जहाँ गीत गाते झरनों, बलखाती नदियों, वन्य–जीवों और नयनाभिराम पक्षियों का उन्मुक्त संसार है। यहाँ का जीवन सरल और स्वच्छंद है। यहाँ जीवन की आपाधापी नहीं, समय की व्यस्तता नहीं, कोई कोलाहल नहींI तनावरहित जीवन और न्यूनतम आवश्यकताएं हैं। इन परिस्थितियों में इनके उर्वर मस्तिष्क में कल्पना की ऊंची उड़ान उठती है। फलतः लोकगीतों, लोककथाओं, मिथकों, कहावतों, पहेलियों का सृजन होता है। मेघालय की पुरानी पीढ़ी को लोकसाहित्य का जीवंत भंडार कहा जा सकता है। लोकसाहित्य वाचिक परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है।मेघालय के लोकसाहित्य को मुख्यतः पांच वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-लोकगीत, लोकनृत्य, लोककथा, मिथक और लोकोक्तियाँ।
1.लोकगीत– मेघालय के सभी समुदायों में लोकगीतों की समृद्ध विरासत है। इनके लोकगीत लयात्मक होते हैं और उनमेंकोमल कल्पना की उड़ान होती है। यथार्थ की कसौटी पर भले ही इन गीतों को नकार दिया जाए, लेकिन इनमें भावना का प्रबल आवेग होता है। लोकगीत लयात्मक होते हैं और उनमें कल्पना व भावना का प्राबल्य होता है। मेघालय के लोकगीतों को ग्यारह श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है जिनके नाम हैं-उपासना गीत, संस्कार गीत, श्रम अथवा फसल गीत, प्रणय गीत, युद्ध गीत, ऋतु संबंधी गीत, गाथा गीत, उत्सव गीत, स्वागत गीत, मनोरंजन गीत और लोरी गीत।गारो जनजाति में वीर रसात्मक लोकगीतों की समृद्ध परंपरा है जो आत्म गौरव को जागृतकरनेवाले होते हैं। इस समाज में मुख्य रूप से तीन प्रकार के लोकगीत प्रचलित हैं–संस्कार गीत, त्योहार अथवा उत्सव गीत और प्रणय गीतI
इन लोकगीतों में नदियों, पहाड़ों, वन्य–प्राणियों, देवी–देवताओं का बार–बार उल्लेख मिलता है। प्रणय गीतों में समर्पण भाव है, परस्पर आत्मोत्सर्ग की चरम अभिलाषा है, नारी होने की बेचारगी भी है और कुछ गीतों में पुरुष वर्चस्व को सीधी चुनौती भी है। खासी और जयंतिया समुदाय के लोग अपनी सुख–समृद्धि के लिए प्राकृतिक शक्तियों की पूजा करते हैं तथा उपासना गीत गाते हैं। इन गीतों में विभिन्न प्रकार के परंपरागत वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। गीत-संगीत मेघालय के आदिवासी समाज के लिए हवा-पानी और श्वास के समान है। वे हर्ष और विषाद दोनों स्थितियों में गाते हैं । वर्षा हो या धूप, वसंत हो या शरद, सुख हो या दुख, वे सभी स्थितियों में गीतों द्वारा अपनी भावनाएं संप्रेषित करते हैं । वे समूह में भी गाते हैं और अकेले भी। इस समाज के अधिकांश लोकगीत अभी भी मौखिक परंपरा में ही विद्यमान है और संकलन नहीं किया गया है। कहानियाँ सुनाना और गीत गुनगुनाना इस समाज के लिए मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन हैं। लोकगीतों में जीवन के सभी पहलू शामिल होते हैं। मानवीय भावनाओं को प्रकट करने वाले इन लोकगीतों की अनेक शैलियाँ प्रचलित हैं। भिन्न-भिन्न आदिवासी समूहों की गायन शैली में भी पर्याप्त भिन्नता है। हल चलाते समय, फसल काटते समय अथवा अन्य कार्य करते समय मेघालयवासी श्रमगीत गाते हैं।
यहाँ के लोकगीतों में विषय विविधता है। प्रेम, विवाह, संस्कार, प्राकृतिक घटनाएँ आदि इन लोकगीतों के विषय होते हैं। इन लोकगीतों में प्रदेश का सांस्कृतिक परिदृश्य प्रतिबिंबित होता है और स्थानीय भूगोल साँसें लेता है।गारो जनजाति के लोग ड्रम और बांसुरी की ताल पर जन्म, त्योहार, विवाह, प्रेम और बहादुर पूर्वजों से संबंधित लोकगीत गाते हैं। खासी और जयंतिया समुदाय के लोग प्रकृति प्रेमी होते हैं तथा अपने आस-पास की प्रकृति की प्रशंसा करते हुए गीत गाते हैं। वे झील, पहाड़, झरना, मातृभूमि इत्यादि के प्रति अपने प्रेम का इजहार करते हुए गीत गाते हैं। गायन के समय, विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्र जैसे ड्रम, दुईतारा, गिटार, बांसुरी, पाइप और झांझ जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है।
2.लोकनृत्य– नृत्य मानव की प्राचीनतम अभिव्यक्ति है। गीत से भी पहले नृत्य का उद्भव हुआ है। मेघालय के आदिवासी समुदायों में अच्छी फसल, संतान वृद्धि, भूत–प्रेत उतारने, जादू–टोना, ऋतु का आवाहन आदि के लिए नृत्य प्रस्तुत करते हैं। नृत्य इन समुदायों की जीवन शैली है। मेघालयवासी नृत्यों के द्वारा अपनी भावनाएं प्रकट करते हैं तथा प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। मेघालय के आदिवासी समाज में अंत्येष्टि नृत्य की परंपरा भी मौजूद है जो अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ मृत्यु भी एक उत्सव है और नृत्य शोक प्रकट करने का माध्यम है। अधिकांश नृत्य सामूहिक होते हैं तथा इसमें महिला–पुरुष सभी भाग लेते हैं। मेघालय के लोकनृत्य को सात वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-त्योहार नृत्य, संस्कार नृत्य, मुखौटा नृत्य, मनोरंजन नृत्य, युद्ध नृत्य, स्वागत नृत्य, नृत्य नाटिका।
‘नोंगकरम नृत्य’ मेघालय का प्रसिद्ध पारंपरिक नृत्य हैं। इस नृत्य के माध्यम से अच्छी फसल, शांति और समृद्धि के लिए सर्वशक्तिमान ईश्वर को धन्यवाद दिया जाता है। यह शिलांग के पास स्मीत नामक गाँव में प्रति वर्ष अक्टूबर-नवंबर माह में आयोजित किया जाता है।यह पांच दिनों तक चलता है। इस समुदाय द्वारा वसंत ऋतु के समय एक नृत्योत्सव आयोजित किया जाता है जिसे ‘सादसुकमिनसियम’ कहते हैं। यह धार्मिक से अधिक सामुदायिक उत्सव है। किसी तालाब, झरना अथवा अन्य जल स्रोतों के निकट यह आनंदोत्सव आयोजित किया जाता है। तीन दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में रंग–बिरंगे पारंपरिक परिधानों एवं आभूषणों से सुसज्जित हो पूरी मस्ती और उमंग के साथ नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। महिलाएं मुकुट पहनकर नृत्य करती हैं। अविवाहित लड़कियाँ नर्तक दल के बीच में धीरे–धीरे पद संचालन करते हुए नृत्य करती हैं।इसका उद्देश्य परम सत्ता को धन्यवाद देना है। पारंपरिक और रंग-बिरंगे परिधानों में सजे खासी युवक–युवतियां नृत्य में भाग लेते हैंI खासी समुदाय के पुरुषों द्वारा ‘का शाद लिम्मो’ नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में नर्तकगण अपने हाथों में वृक्ष की डाली लेकर पूरी जीवंतता और तन्मयता के साथ नृत्य करते हैं। मेघालय के अन्य नृत्य हैं–‘दोरेराता’, ‘पोमेलो’ नृत्य आदि। मेघालय के गारो समुदाय द्वारा अंत्येष्टि के बाद ‘मंगोना या चुगना’ नामक मृत्यु उत्सव आयोजित किया जाता है। मृतक की स्मृति में कई दिनों तक यह उत्सव समारोहपूर्वक मनाया जाता है। संस्कार के अंतिम दिन मृतक की आत्मा की शांति के लिए सामुदायिक भोज दिया जाता है। आमंत्रित अतिथियों और ग्रामवासियों को सूअर मांस, चावल, मदिरा आदि खिलाया–पिलाया जाता है। सभी लोग पूरी रात नाचते–गाते हैं। इस संस्कार नृत्य में बाँस से बने परंपरागत वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। ‘ग्रेंगदीकबाअ’ भी अंत्येष्टि के बाद प्रस्तुत किया जाने वाला संस्कार नृत्य है। इसमें मृतक की आत्मा की शांति के लिए ग्रामवासी और अतिथि चावल से बनी मदिरा पीकर पूरी रात नाचते–गाते हैं। नर्तकों द्वारा गाए जानेवाले गीत लयात्मक एवं अर्थपूर्ण होते हैं।
मेघालयके सभी नृत्य विभिन्न त्योहारों और ऋतुओं से संबंधित हैंI सुंदर गीतों और पारंपरिक वाद्ययंत्रों की पृष्ठभूमि में लोकनृत्य अपना जादुई प्रभाव छोड़ता है। मेघालय के नृत्य आम तौर पर मुक्ताकाश में प्रस्तुत किए जाते हैं। ‘बेहदीनखलम’ मेघालय का नृत्य उत्सव है जो खेतों में बुवाई के बाद जुलाई के महीने में मानसून के मौसम में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है। यह जयंतिया जनजाति का सबसे लोकप्रिय नृत्य है। इस त्योहार में अच्छी फसल के लिए और बीमारी इत्यादि से बचने के लिए ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। ‘वंगला’ महोत्सव गारो जनजाति का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। इसका आयोजन फसलों की कटाई के बाद शरद ऋतु में किया जाता है। इस उत्सव में प्रत्येक गाँव में ‘पतिगिपा’ और ‘रारोंगिपा’देवता की आराधना की जाती है। चार दिन और चार रात तक ऊर्जा और उत्साह के साथ इस नृत्य का आयोजन होता है। अंतिम दिन सौ ड्रम के साथ युद्ध नृत्य की प्रस्तुति होती है। ‘डोरसेगाटा’एक अनोखा नृत्य है। जिसमें महिला–पुरुष सभी सम्मिलित होते हैं। इसमें नृत्य करते हुए महिलाएं अपने पुरुष साथियों की पगड़ी बांधने की कोशिश करती हैं। यदि महिलाएं सफल हो जाती हैंतो खूब हँसती हैं। ‘लाहू’ नृत्य मनोरंजन के लिए पुरुष और महिला दोनों द्वारा किया जाता है। अपनी पारंपरिक वेशभूषा में आम तौर पर एक महिला के दोनों ओर दो युवा पुरुष एक साथ हथियार पकड़े हुए नृत्य करते हैं। इसमें महिला–पुरुष सभी शामिल होते हैं। नर्तकगण अपने रंग–बिरंगे पारंपरिक परिधानों एवं आभूषणों से सुसज्जित हो पूरी मस्ती और उमंग के साथ नृत्य करते हैं।
3.लोककथा–मेघालय की वाचिक परंपरा में असंख्य लोककथाएँ विद्यमान हैं। लोककथाओं का फलक बहुत विस्तृत है। इस क्षेत्र के सभी समुदायों में अपने देशांतर गमन, पूर्वजों, देवी–देवताओं आदि से संबंधित लोककथाएँ प्रचलित हैं। इन कथाओं में जीवन के सभी पहलू चित्रित हैं। रोचकता और जिज्ञासा इनके प्रमुख गुण हैं। कथाएँ प्राकृतिक जीवन पर आधारित होती हैं। पशु–पक्षियों, भूत–प्रेतों, देवी–देवताओं के साथ–साथ जड़ वस्तुओं को भी इन कथाओं में नायक-नायिका बनाया गया है। यहाँ आत्मा का पृथक संसार है, स्वर्ग–नरक की परिकल्पना है, पशु–पक्षियों की प्रणय लीला है, धूर्त लोमड़ी, उदार हाथी, मायावी जंगल, दयालु बाघ, चतुर बन्दर आदि की रोचक कथाएँ हैं। मेघालय की लोककथाओं को सात वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-वन्य प्राणियों से सबंधित लोककथाएँ, वनस्पतियों एवं जड़ वस्तुओं से सबंधित लोककथाएँ, असीम शक्तिसंपन्न मनुष्य की लोककथाएँ, प्राकृतिक शक्तियोंसे संबंधित लोककथाएँ, देशांतरगमन, पूर्वजों एवं अतीत में घटित युद्ध से सबंधित लोककथाएँ,भूत–प्रेतों, देवी–देवताओं और ईश्वरीय प्रतीकों से संबंधित लोककथाएँ और सृष्टि की विभिन्न वस्तुओं की उत्पत्ति से सबंधित लोककथाएँ।
4.मिथक–मिथक की दृष्टि से मेघालय अत्यंत समृद्ध है। यहाँ की वाचिक परंपरा में असंख्य मिथक विद्यमान हैं।मेघालय की मौखिक परंपरा में संसार की सभी वस्तुओं की उत्पत्ति से सबंधित कोई न कोई मिथक अवश्य उपलब्ध है।इन मिथकों में आदिवासी समाज के पूर्वजों के आख्यान हैं। मिथकों के विश्लेषण से इन समुदायों के देशांतरगमन, मूल निवास, अतीत की घटनाओं, गाँव की बसावट आदि पर कुछ रोशनी पड़ती है। प्रायः सभी समुदायों में सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी मिथकों में समानता है। सभी मिथकों में वर्णित है कि सृष्टि के आरम्भ में सर्वत्र जल और अंधकार था, धरती की रचना बाद में हुई। मेघालय में जल, सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, आकाशगंगा, इन्द्रधनुष, बंदर, भालू, पर्वत, वन इत्यादि के संबंध में असंख्य मिथक मौजूद हैं।
सात वंश, सात झोपड़ियों की कहानी
(खासी जनजाति का मिथक)
सृष्टि के आरंभ में पृथ्वी पर खालीपन था। सर्वप्रथम ईश्वर ने ‘राम-एव’एवं उसके पति ‘बासा’की उत्पत्ति की। बासा संरक्षक और ग्राम देवता थेI ईश्वर ने उन्हें पांच शक्तिशाली बच्चों का आशीर्वाद दिया। उनसे सूर्य, चंद्रमा, जल, पवन और अंत में अग्नि का जन्म हुआ। सबसे छोटी होने के कारण अग्नि घर पर रहकर घर की देखभाल करती थीI वह सबकी प्यारी थी। माँ बनने से राम-एवं बहुत प्रसन्न रहती थी। अपने बच्चों को बड़े होते देखकर उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। वह इसलिए भी बहुत प्रसन्न रहती थी कि उसके बच्चे दुनिया को अपने उपहारों से समृद्ध कर रहे थे ।राम-एव को दुनिया बहुत आकर्षक और प्यारी लगती थी, लेकिन यह सोचकर उसे दुःख होता था कि दुनिया की देखभाल करनेवाला कोई नहीं हैI एक दिन राम-एवईश्वर के पास गई और उनसे कहा कि भले ही भगवान ने जो कुछ किया है उसके लिए वह उनका कृतज्ञ है और उन्हें आभार व्यक्त करती है, लेकिन दुःख की बात है कि संसार की देखभाल करनेवाला कोई नहीं है। ईश्वर ने सहानुभूति और बुद्धिमत्ता के साथ राम-एव की दलील सुनी और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वह स्वर्ग में रह रहे उन सोलह कुलों में से सात कुलों को पृथ्वी पर भेजेंगे जो पृथ्वी की देखभाल करेंगे । ऐसा करने से पृथ्वी पर शांति और समृद्धि आएगी।
ईश्वर इन सात कुलों को भेजकर इतने खुश थे कि उन्होंने ‘लुमोसपेटबिनेंग’पर्वत पर एक पवित्र दिव्य वृक्ष लगा दिया जो मनुष्य और भगवान के बीच स्वर्ण की सीढ़ी के रूप में काम करता था । भगवान ने उन सात कुलों के साथ एक समझौता किया कि यह सीढ़ी तब तक सुरक्षित रहेगी जब तक लोग जीवन जीने के धार्मिक तरीके का पालन करते रहेंगे । वे स्वर्ग में रहने वाले नौ कुलों के पास जा सकते हैं और उनसे मिल सकते हैं । सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन कुछ समय बाद मनुष्य असंतुष्ट रहने लगेI मानव अपने जीवन से ऊबने लगे और उन्हें ऐसा महसूस होने लगा कि वे परतंत्र हो गए हैं एवं वे अपने तरीके से जीने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं । आदमी के दिल में लालच और बुराई का प्रवेश हो गया । मानव के मन में ईश्वर या स्वर्ग में रहनेवाले नौकरों के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं था। परमेश्वर मनुष्य के विद्रोह से बहुत दुखी हुए और उन्होंने आदमी के साथ हुए समझौते कोभंग कर दिया। ईश्वर ने सोने से निर्मित उस सीढ़ी को हमेशा के लिए तोड़ दिया ।पृथ्वी के सातों वंश सभी प्रकार की बुराइयों के शिकार हो गए। मानव असहाय हो गया ।इस प्रकार एक स्वर्ण युग का समापन हो गया।
5.लोकोक्ति अथवा कहावत– लोकोक्तियाँ किसी भी समाज और संस्कृति के भाव-बोध का दर्पण होती हैंI वे किसी समाज के सदियों के जीवन निष्कर्षों को कुछ शब्दों अथवा एक वाक्य में व्यक्त कर देती हैं।शिक्षित समाज की अपेक्षा अशिक्षित ग्रामीण जनता अपने दैनिक जीवन में कहावतों का अधिक प्रयोग करती है। कम शब्दों में अधिक भाव राशि समेटे ये लोकोक्तियां लोगों को दिशा दिखाती हैं और उन्हें कुमार्ग पर जाने से रोकती हैं।मेघालय के लोग दैनिक जीवन में लोकोक्तियों का खूब प्रयोग करते हैं। लोकोक्तियों से उनकी बातें प्रमाण पुष्ट होती हैं। मेघालय में पांच प्रकार की लोकोक्तियाँ और कहावतें प्रचलित हैं-नैतिक कहावतें, सामाजिक कहावतें, दार्शनिक कहावतें, मौसम संबंधी कहावतें और विविध कहावतें।
संदर्भ:
1.श्री वीरेन्द्र परमार-मेघालय:लोकजीवन और संस्कृति (2021)-हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली