आखिरी बार हम कब रोए थे, आखिरी बार हम कब हंसे थे? आपको मालूम है… जब हम अपनी फ़ीलिंग को दबा लेते हैं तब एक समय ऐसा आता है कि हम कुछ भी फील नहीं कर पाते। उस समय हम जिन्दगी को जीते नहीं काटने लग जाते हैं। खुशी जो दूसरों की हँसी में झलकती है। जब उस हँसी या खुशी की वजह आप हो तो संतोष होता है। दु:ख सब कुछ पाने की चाहत में जो आपके पास है हम उसे भी नजर अंदाज कर दें वही है।
सफलता हमारे किए हुए काम हमारी कही हुई बात से किसी में पॉजिटिव चेंज आ सके। और नॉलेज पढ़ाई, अनुभव या संगति से जो हम सीखते हैं उसे समाज में और अपने लिए लागू कर सकें। इन सबसे ऊपर सुंदरता मन की जरूरी है तन की नहीं। मन की सुंदरता जो मन, वचन और कर्म से झलकती है। और जीवन जो बेसहारा लोगों के काम आ सके, जो खुद का सहारा नहीं बन सकता वह दूसरों का सहारा कैसे बनेगा!
यह कुछ संवाद के रूप में बातचीत है जो आप ‘रब्ब दी आवाज़’ में सुनते, देखते हैं। एडमिटेड फ़िल्म के लिए पिछले बरस 68 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कारों में ‘रजत कमल’ जीत चुके फ़िल्म निर्माता, निर्देशक ओजस्वी शर्मा हमेशा लीक से हटकर फ़िल्म बनाने वाले निर्देशकों की श्रेणी में गिने जाते हैं।
‘रब्ब दी आवाज़’ फ़िल्म में भी उन्होंने एक मुद्दा उठाने का प्रयास किया है। कहानी है एक आर जे की और रेडियो स्टेशन की। जहाँ कोरोना के बाद रेडियो स्टेशन की रेटिंग गिरने लगी हैं और तरह-तरह के प्रचार होने लगे हैं। आर जे करन एकमात्र आर जे है जो बाकियों से कुछ हटकर सोचता है। यही वजह है कि उसके सोशल मीडिया पर लोगों का जो एक समय जमावड़ा हुआ करता था वह अब ख़त्म हो चुका है। कैसे उसकी सोच बदलती चली गई और कैसे वह अपनी जिंदगी के दु:खों को दबा कर रेडियो स्टेशन में लोगों की लव लाइफ के सुझाव दे रहा है। इसके साथ ही उसकी खुद की नौकरी खतरे में भी जाती दिख रही है। यह सब फ़िल्म दिखाते हुए आपको एक कार्यक्रम की ओर लेकर जाती है जहाँ एक दिन के लिए रेडियो जॉकी चुना जाना है। कौन होगा वह? क्या करन खुद? क्या कोई आएगा उसका फ़रिश्ता बनकर? क्या होगा आखिर इस ‘रब्ब की आवाज़’ का?
रोलिंग फ्रेम्स एंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी यह फ़िल्म एक मुद्दा उठाती है। दिव्यांगों के सहारे उठे इस मुद्दे को ओजस्वी ने जिस सरलता से परोसा है वह आपके चेहरे पर हँसी बिखेरती है। नेत्रहीन भी किस तरह समाज दुनिया के लिए बहुपयोगी हो सकते हैं? कैसे वे भी आम जीवन में समानता का अधिकार रखते हैं? कैसे ये नेत्रहीन अपने जीवन को जीते हैं और क्या सोच रखते हैं? कैसे इनकी सोच एक बड़े वर्ग को प्रभावित कर सकती है? इन तमाम सवालों के जवाब ओजस्वी अपनी इस फ़िल्म से दर्शकों को उपलब्ध करवाते हैं।
यह फ़िल्म बताती है, सिखाती है, दिखाती है कि जिस आवाज़ को आप बाहर खोज रहे हैं वह आपके भीतर ही है। यही वजह है कि फ़िल्म की कहानी, पटकथा और इसका निर्देशन करते हुए ‘ओजस्वी शर्मा’ की सोच, समझ बतौर लेखक, निर्देशक साफ़ झलकती है। फ़िल्म की एडिटिंग इसकी कहानी में जान फूंकती है। भास्कर पाण्डेय की एडिटिंग फ़िल्म को कहीं भी बोझिल नहीं होने देती। सोनेश्वर डेका, संदीप कुमार का छायांकन तथा अभिनव शर्मा, शिव कुमार शर्मा, राजीव शर्मा द्वारा निर्देशक के साथ मिलकर लिखे गये इसके संवाद आपको भीतर से जगाते हैं।
आर जे बने अभिनव शर्मा अपने किरदार में पूरी तरह रमे नजर आते हैं और प्रभावित करते हैं। शिव कुमार शर्मा, मोहित वर्मा, अभिलाशा सिडाना, जगदीप सिंह लांबा, सिम्मी आदि मिलकर कहीं भी फ़िल्म में महसूस नहीं होने देते की वे कोई अभिनय कर रहे हैं। यही इस फ़िल्म की खासियत है। साथ ही इस फ़िल्म को दिव्यांगों के लिए भी रिलीज किया गया है। यह भारत में पहला प्रयास है जो निर्देशक ओजस्वी ने किया है कि एक ही फ़िल्म तीन अलग-अलग तरह से आप दर्शकों के लिए उपलब्ध है।
यदि आप अपने और अपनों के चेहरों पर खुशियाँ बिखेरना चाहते हैं तो इस फ़िल्म को यू ट्यूब पर देखा जा सकता है।