अगर आपने चोल वंश की कहानी कभी नहीं पढ़ी या उसके बारे में कुछ नहीं जानते तो यह फिल्म PS 1 आपके सिर के ऊपर से निकल जाएगी। यदि इसके बारे में जानते हैं तो ही यह कुछ समझ आएगी।
गाने फिल्म में एक दो ही जमते हैं। हिंदी वर्जन की फिल्म के साथ यह समस्या तो है ही। साथ ही इसकी डबिंग भी उतनी अच्छी नहीं हो पाती चाहे आप कितना ही पैसा फूंक लें। मणि रत्नम साहब इससे बेहतर फिल्म में जितना पैसा लगाया उतने में ये भी कर लेते कि हिंदी डबिंग तो अच्छी हो जाती।
राहत की सांस है तो हिंदी साहित्य वालों के लिए। दिव्य प्रकाश दुबे के नाम से हिंदी पट्टी में आज शायद ही कोई अनभिज्ञ हो। ‘अक्टूबर जंक्शन’ पढ़ा था तो रिव्यू करते समय नई वाली हिंदी को लेकर भी काफी कुछ कहा था। अब दिव्य का आकाश मणि रत्नम के साथ मिलकर और विस्तृत अवश्य हुआ है।
अगर आप ऐश्वर्या को पसंद करते हैं या मणि रत्नम की फिल्में अच्छी लगती हैं या बहुत भव्य सिनेमैटोग्राफी के साथ कुछ उम्दा दृश्य, बैकग्राउंड स्कोर के साथ देखना पसंद है तो देखिए। बाकी हिंदी की बजाए तमिल, तेलुगु आदि कई भाषाओं में रिलीज हुई इस फिल्म को वे लोग अधिक पसंद करेंगे जिन्हें वे भाषाएं आती हैं।
फिल्म की शुरुआत होती है, चोल साम्राज्य के बारे में बताते हुए। जहां अच्छे खासे चल रहे चोल साम्राज्य के भीतर कुछ षड्यंत्रकारी षड्यंत्र रचने में लगे हैं। वहीं राजा सुंदर अस्वस्थ है और उसके तीन बच्चे आदित्य करिकालन, कुंदवई, अरूणमोली हैं। इनकी भी अपनी कुछ कहानियां हैं। इनमें से एक भाई आदित्य को जब षड्यंत्र की खबर लगी तो उसने इसमें शामिल लोगों का पता करने, अपने एक दोस्त वंदीतेवन वल्ली नारायण को भेजा।
वंदीतेवन की नजर से ही हम पूरे चोल वंश की कहानी को देख पाते हैं। इस बंदे ने क्या खूब काम किया है। पूरी फिल्म में एक अलग ही लेवल रहा कार्ति का। यूं तो मणि रत्नम ने निर्देशक के तौर पर कलाकार तो सभी अच्छे चुने और उन्होंने चेहरे की चमक के साथ ही अभिनय की भी चमक बिखेरी।
लेकिन…. फिल्म के साथ आप जैसे ही बंधने लगते हैं पहला हाफ पूरा हो जाता है। फिर दूसरे हाफ में फिल्म के खत्म होने तक जरूर चीजें कुछ साफ होती हैं। खैर मणि रत्नम का निर्देशन हमेशा की तरह उम्दा है। पानी की तरह बहाया गया पैसा पर्दे पर नज़र भी आता है। जाते जाते इतना ही फिर से कि जिन्होंने चोल वंश के बारे में कुछ भी नहीं पढ़ा उनके लिए यह फिल्म नहीं बनी है। बेहतर होगा वे इसका दूसरा पार्ट बनने दें और दोनों फिल्में बाद में ओटीटी पर एक साथ देखें ।
यह फिल्म ठीक उसी सिंहासन के साए तले सांझ सरीखी नजर आती है जिसकी संध्या के घटाटोप में सब एक समान लगने लगते हैं। और सिंहासन बड़ा, विस्तृत होने के बाद भी उस संध्या से घबरा झुरपुटे में अपने लिए सही जगह खोजता नजर आता है।