फ़िल्म समीक्षा – गुलाबो सिताबो
कोरोना वैश्विक महामारी के दौर में गुलाबो सिताबो पहली फ़िल्म बन गई है जो सीधा ओ टी टी प्लेटफॉर्म (अमेजन) पर रिलीज की गई है। अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की यह फ़िल्म पिछले काफी समय से चर्चित रही है और आखिरकार इसे लंबे समय बाद रिलीज कर दिया गया है। शूजित सरकार और जूही चतुर्वेदी जब भी एक साथ फिल्म बनाते हैं तो कहानी में कुछ नयापन जरूर होता है। फिर ‘गुलाबो सिताबो’ में जिस अंदाज में कहानी को कहा गया है, वह अपने आप में काफी काबिलेतारीफ है। फिल्म की कहानी काफी सटीक और सधी हुई सी है। लेकिन कुछ झोल मोल के साथ।
फ़िल्म की कहानी मिर्जा (अमिताभ बच्चन) और बांके (आयुष्मान खुराना) के इर्द-गिर्द घूमती है। बांके किराया समय पर नहीं देता है और मिर्जा उसकी नाक में हरदम दम किए रखता है। इस तरह दोनों की नोकझोंक चलती रहती है, तब मिर्जा उस हवेली को बेचने का फैसला लेता है। जो कि मिर्जा की बेगम फातिमा उर्फ फत्तो (फारूक जफर) के नाम है। मिर्जा हवेली को अपने नाम करने की कोशिश भी करता है। तभी लेखागार विभाग वालों की नजर हवेली पर पड़ती है तब तक मिर्जा बिल्डर को अपनी हवेली बेच देता है। लेकिन फातिमा उर्फ फत्तो कुछ ऐसे घाव मिर्जा को देती है, जो फिल्म की पूरी कहानी ही बदलकर रख देती है। मिर्जा और बांके के बारे में कहा जा सकता है कि वे दोनों जब तक आपस में भिड़ ना ले तब तक इनके दिन की शुरूआत ही नहीं होती है। मिर्जा करीब 75 साल का बुर्जुग, है किंतु है वह लालची, झगड़ालू, कंजूस और चिड़चिड़े स्वाभाव का। वहीं बांके भी कुछ कमतर नहीं है। मिर्जा की हवेली में बांके किराए पर अपनी मां और तीन बहनों के साथ रहता है। वही मिर्जा हवेली में रहने वाले किराएदारों से अक्सर झगड़ता रहता है जिससे वो हवेली खाली करके चले जाए। फ़िल्म ‘जाने भी दो यारों’ की याद भी दिलाती है।
फ़िल्म में अमिताभ बच्चन मिर्जा के रोल में कुछ इस तरह रचे-बसे हैं कि हम बारगी भूल जाते हैं वह एक्टिंग कर रहे हैं। वहीं आयुष्मान खुराना इस तरह के किरदारों में माहिर हैं। इन दोनों में भी फारूक जफर का किरदार और एक्टिंग दोनों ही अव्वल दर्जे के हैं। फ़िल्म में सपोर्टिंग रोल में बिजेंद्र काला और विजय राज ने भी अच्छा काम किया है या यों कहें कि फ़िल्म मुख्य किरदारों की बजाए स्पोर्टिंग एक्टर पर ही टिकी हुई नजर आती है। देखा जाए तो फ़िल्म की कहानी और डायरेक्शन दोनों औसत दर्जे के हैं। कभी कभी तो यह फ़िल्म फ़िल्म न होकर कोई टीवी ड्रामा सा लगती है। इसकी शुरुआत काफी धीमी है लेकिन इंटरवेल के बाद फ़िल्म गति पकड़ती है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर और पुराने लखनऊ को उन्होंने बखूबी पेश किया है। फिल्म में कुछ ऐसे सीन्स है जो काफी मजेदार भी हैं। अगर आप अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना के फैन है और पहली बार एक साथ दोनों को काम करते हुए देखना चाहते है तो आप फिल्म जरूर देख सकते हैं।
एक बात और फिल्म के नोस्टेल्जिया से सिर्फ लखनऊ वाले ही नहीं, बल्कि कानपुर, बरेली, बनारस, दिल्ली या ऐसे किसी भी पुराने शहर में बड़े हवेलीनुमा घरों में रहने वाले ही अपने को जुड़ा हुआ महसूस कर पाते हैं। फिल्म में सबसे बड़ी कमी है लखनऊ का लखनवीपन न दिखाई देना। लखनऊ तहज़ीब का शहर कहा जाता है जहाँ नज़ाकत भरी बोली है, गूंजती इमारतें हैं। दिलचस्प ये है कि फिल्म में सब कुछ होने पर भी किसी चीज़ से मोहब्बत सी नहीं होती। लोग तो लखनवी हैं पर भाषा कोई और ही जगह की बोलते दिखाई देते हैं। अमिताभ बच्चन तो सीधा इलाहाबादी ही बोलते दिखाई देते हैं और ये सारी चीज़ें आपको फिल्म से दूर करती जाती हैं। फ़िल्म के गाने भी याद रखने लायक नहीं हैं। किंतु फ़िल्म के दो चार डायलॉग तो मजेदार किस्म के हैं मसलन-
‘और शुक्ला जी बड़े दिनों बाद टपके!’
‘भैया पके थे तो टपक गए’
‘खानदान है हमारा, भौकाल है हमारा’
‘बल्ब न हुआ निगोड़ी जायदाद हो गयी’