बिहार का एक परिवार पंजाब में रहता है। परिवार के नाम पर दो बेटी और माँ है। बड़ी वाली मसाज पार्लर में काम करती है जिसके ब्याह को लेकर माँ चिंता में है। माँ मोमे बेचती है…ओह सॉरी…मोमो…उफ़्फ़.. यार मोमोज। जैरी की छोटी बहन चैरी पढ़ रही है अभी घर में इन तीन स्त्रियों के अलावा कोई मर्द नहीं है तो पड़ोस के एक पंजाबी अंकल उन बेटियों की माँ से प्यार कर बैठे हैं। लेकिन फिर आता है अचानक से एक मोड़ और फिल्म आपको बीच-बीच में ‘उड़ता पंजाब’ की याद दिलाती हुई भी पूरी तरह ‘उड़ता पंजाब’ न होकर तमाशा सा बनकर रह जाती है। कैंसर से लड़ रही माँ को बचाती हुई इस फिल्म की कहानी ज्यादा समय तक हँसाती हुई और तमाशा सा दिखाती हुई कब खत्म हो जाती है पता ही नहीं लगता।
यह फिल्म एक तमिल फिल्म ‘कोलामावू कोकिला’ की रीमेक है जिसमें हंसाने के लिए थोड़े मसाले इस तरह मिलाये गए हैं कि चाइनीज मोमो की कहानी की आड़ में नशे से होती हुई यह बस तमाशा सा लगती है। जिसमें न ज्यादा आप खुल कर हंस पाते हैं, न ही एक्शन सीन देखकर आप के दिल में हौल उठते हैं। फिल्म की कहानी को जिस तरह दक्षिण भारत से उठाकर पंजाब के बैक ग्राउंड से सेट किया गया है और उसमें बिहार तथा पूर्वोत्तर भारत का तड़का लगाया गया है वह जरूर इसकी कहानी को गुड बनाता है।
तमिल सिनेमा के चर्चित निर्देशक ‘नेल्सन दिलीप कुमार’ की लिखी इस कहानी को हिंदी और पंजाबी, भोजपुरी के मिश्रण से इसके लेखक ‘पंकज मट्टा’ ने अच्छे से बुना। बावजूद इसके स्क्रिप्ट तथा सिनेमैटोग्राफी के हल्के-फुल्के झोल के कारण यह उतनी उम्दा नहीं बन पाई है। टाइम पास मनोरंजन के लिए इसे देखा जरूर जा सकता है। फिल्म की कलरिंग और सेट डिजाइनिंग के साथ-साथ इसका गीत-संगीत आपको बोरियत महसूस नहीं होने देता। अच्छे और गहरे रंगों का चयन जिस तरह से फिल्म में किया गया है उसके लिए तारीफ की जानी चाहिए।
एडिटर, कैमरामैन, कास्टिंग करने वालों सुनने लायक गीत देने वालों की तारीफ भले आप खुलकर न कर पाएं लेकिन ये निराश कतई नहीं करते। सिनेमा की अच्छी पहचान रखने वाले इसे एकदम से नकार तो नहीं सकते लेकिन कई दिनों से कचरा फिल्मों का ड्रग्स सूँघे बैठे दर्शकों के लिए फिर से बता दूँ यह टाइम पास फिल्म जरूर है।
‘जान्हवी कपूर’ काफी समय बाद अच्छा अभिनय करती नजर आती है। थियेटर की बड़ी कलाकार ‘मीता वशिष्ठ’ सबसे उम्दा जमी हैं माँ के किरदार को उन्होंने हर जगह अच्छे से पकड़ा है। ‘सुशांत सिंह’ , ‘दीपक डोबरियाल’ , ‘सौरभ सचदेव’ , ‘मोहन कंबोज’ , ‘शिवम गौड़’, ‘सुशांत सिंह’ , ‘ जसवंत सिंह दलाल’ , ‘नीरज सूद’ , ‘ मोहन कम्बोज’ , ‘संदीप नायक’ आदि भी फिल्म को भरपूर सहारा देते हैं।
निर्देशक ‘सिद्धार्थ सेन’ ने फिल्म का निर्देशन तो अच्छा किया लेकिन स्क्रिप्ट को पर्दे पर उतारते समय थोड़ा और इमोशन, थोड़ा और अच्छा एक्शन, थोड़ा और कहानी के ट्विस्ट एंड टर्न्स में कायदे से बदलाव करते तो फिल्म और अच्छा गुड लक अपने साथ ला सकती थी। इस शुक्रवार को सिनेमाघरों में रिलीज हुई ‘ विक्रांत रोणा’ तथा ‘ एक विलेन रिटर्न्स’ पर अपने कीमती रुपये लगाने से पहले ‘गुड लक जेरी’ देख ली जाए तो इस सप्ताह का यह कहीं बेहतर चुनाव होगा। बाकी आपकी मर्जी आपका रुपया आपका है हमारा थोड़े है।
लेकिन जाते-जाते कह दूँ “डर से बस दो-तीन कदम आगे ही एक दुनिया है जहां जाने के लिए ना रिक्शा लगता है ना ऑटो! लगता है तो बस हिम्मत। लेकिन एक बार वहां पहुंच गये ना तो कसम से मजा आ जाता है।” तो सिनेमाघर इस सप्ताह अपने घर को ही बनाइये बेहतर रहेगा। वरना जैसे फिल्म अपने शुरुआत में कहती है “मोमोज दार्जिलिंग के हैं, बना बिहारी रहे हैं और पेल पंजाबी रहे हैं। तो सिनेमाघरों में बेवजह अपने आपको पेलवाना चाहते हैं तो जाइये वरना आराम से घर बैठिये। है कि नहीं!