हरियाणा के रोहतक में आम से परिवार का आम सा छोरा। पढ़ने के ख्वाब देखने वाला सीधा-साधा सा छोरा। जब मां के कहने पर उसे शहर भेज दिया गया तो वहां भी जाकर वह नहीं बदला। फिर एक दिन दोस्तों को पिटते देख वो छो में आ लिया। सीधे-साधे लड़के की पढ़ाई छूटी तो बन गया डीजे वाला अपने उन्हीं दोस्तों के संग। इधर फिर एक दिन एक पार्टी में गलती से एक मंत्री का लड़का मारा गया। इस तरह वह बन गया मुजरिम। वो भी उस जुर्म में, जो उसने किया ही नहीं।
अब क्या वह बेगुनाह साबित हो पाएगा? क्या उसकी सजा माफ हो सकेगी? उसके मुजरिम करार दिए जाने पर परिवार और उसमें बहन का क्या हुआ? इन सब बातों को डीजे वाला बाबू अपनी ही कहानी के माध्यम से बताता है कोर्ट में जज के सामने।इस तरह के हजारों किस्से हमारे देश में है जहां बेगुनाहों को उन गुनाहों की सजा भुगतनी पड़ जाती है जो उन्होंने किए ही नहीं। फिर ऐसे में उनके परिवार तक बिखर जाते हैं। फिल्म की कहानी एक कॉमन मैन की कॉमन कहानी कहती है।
कॉमन मैन की इस कहानी में कुछ दृश्य आंखें नम करते हैं तो कुछ दृश्य आंखों में किरकिरी भी पैदा करते हैं। तेज शोर वाला बी जी एम अच्छा तो लगता है लेकिन इसमें कहीं-कहीं बैकग्राउंड की आवाजें अजीब लगती हैं। कैमरामैन अपना काम ठीक तरीके से करते नजर आते हैं।
फिल्म की कहानी के मुताबिक इसका वी एफ एक्स भी उसके जैसा ही लगता है। दरअसल बात यहां ओटीटी के बारे में भी की जानी जरूरी है। पंजाब का अपना ओटीटी ‘चौपाल’ एप क्षेत्रीय सिनेमा में अच्छी फ़िल्में देने वालों के रूप में जाने जाते हैं। तो वहीं हरियाणा के स्टेज एप ने अभी ओटीटी में ठीक ठाक रूप से शुरुआत की है। अब फिल्म ‘डीजे वाले बाबू’ आई तो सिनेमा घरों में लेकिन बात ओटीटी की इसलिए क्योंकि कुछ समय बाद यह चौपाल पर देखने को मिलेगी।
इधर चौपाल वालों ने इस फिल्म को एक प्रयोग के तौर पर अपनाया है। जिसमें वे हरियाणवी सिनेमा को आगे बढ़ाने के दावे के साथ अपने सुर मिलाने की बात करते नजर आते हैं। हरियाणा के सिनेमा में एक से एक अच्छी फ़िल्में देखने में आईं हैं। एक समय के लिए कहा जा सकता है कि हरियाणवी सिनेमा फिर से जीने लगा है। तो उसे सहारा देने के नाम पर हमें उनका समर्थन भी करना जरूरी है। कभी-कभी कुछ अच्छी या खराब फिल्में भी आती रहें, तभी तो आपको भी दोनों में अंतर मालूम होगा।
फिल्म को भले ही पंजाब के लोगों ने बनाया हो लेकिन जब वे हरियाणा के कलाकारों को लेकर हरियाणवी भाषा में पहली बार ऐसा प्रयोग करने उतरे हैं तो उसका स्वागत तो होना चाहिए। वरना हम तमिल, तेलुगु या दूसरी क्षेत्रीय फ़िल्मों के बराबर पहुंचने के ख्वाब कैसे देख सकेंगे?
गुलज़ार छनिवाला, आशीष नेहरा, आतिश वशिष्ठ, अच्छा काम करते नजर आते हैं। इन सबमें जोगिंदर कुंडू सबसे उम्दा रहे हैं। माही गौड़ अपने पहले सिनेमाई प्रयास के लिए सराही जा सकती है। मुकेश तिवारी, हरजीत वालिया, उर्मिला कौशिक, कुशिका गुप्ता, वैभव मेहंदीरत्ता आदि भी साथी कलाकारों के रूप में अपना साथ निभाने की पूरी कोशिश करते रहे।
गुलज़ार छनिवाला एक सिंगर होने के साथ ही जो इसमें एक्टिंग कर रहे हैं उन्हीं आगे अब एक्टिंग पर ही ज्यादा ध्यान दें तो बड़े एक्टर भी कल को साबित हो सकते हैं। गानों के मामलों में फिल्म लगभग हर जगह फिसली है। गुलज़ार की आवाज़ को पसन्द करने वाले हरियाणा क्या दूसरे आस पास के राज्यों में भी अच्छे खासे फैन्स मौजूद हैं तो क्या केवल मोनोपोली चलाना जरूरी है?
बहुतेरे गाने किसी और से भी गवाए जा सकते थे। लिरिक्स के मामले में दो-एक गाने जमे लेकिन डीजे वाला गाना जो फिल्म के नाम से लिया गया प्रतीत होता है वही इतना हल्का रहा है तो बाकी तो छोड़ ही दें। निर्देशक मनदीप बेनीपाल का निर्देशन ठीक रहा है। राजू वर्मा की लिखी कहानी को स्क्रिप्ट की शक्ल में भी ठीक-ठाक ढाल लिया गया।
पंजाब वाले यदि ओटीटी के साथ-साथ हरियाणवी सिनेमा को पर्दे पर भी लगातार लाते रहना चाहते हैं तो उन्हें इस तरह के प्रयास और प्रयोग करने अवश्य चाहिए बशर्ते वे अपनी बनी हुई साख को हरियाणा में भी बचाए रख सकें। फिल्म हरियाणवी है तो इसका मतलब यह नहीं कि सिनेमा वालों की कोई घणा फैन्स के चलते छो में आ लेवे तो उन सब पर ही सारा भार सौंप दिया जावे। कुछ भार अपने कांधा पर धर ल्वो तो दोना के कांधे तो मजबूत हो ही जावेंगे। साथ में हरियाणा, पंजाब मिलकर कुछ बड़ा भी आणे वाले दिना में कर जावेंगें।