छावा फिल्म की समीक्षा क्यों की जाए पहला तो प्रश्न यही उठना चाहिए। ऐसी फिल्में समीक्षाओं से परे की होती हैं क्योंकि आम दर्शक को ऐसी फिल्मों के रिव्यू से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे नेगेटिव हैं या पॉजिटिव। होना भी यही चाहिए सभी फिल्में रिव्यू के लिए बनी हों यह जरूरी तो नहीं?
यह फिल्म है छत्रपति शिवाजी महाराज के दुनिया से चले जाने के बाद। एक ऐसा राजा जिसे आज भी पूरा देश हिंदवी स्वराज का सबसे बड़ा रक्षक और प्रणेता मान उसे पूजता है। पर क्या वजह है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में हम सभी ने जितना भी पढ़ा, जाना, समझा वह इस फिल्म को देखने के बाद कम लगता है।वजह है इतिहास में शिवाजी के बाद मराठा साम्राज्य के परिवार का क्या हुआ, उनके ठीक बाद छत्रपति बने उनके पुत्र संभाजी, शिवाजी की शादियां, शिवाजी के बाद बनने वाले कई छत्रपति जैसी बातें आज तक बहुतों को नहीं पता होंगी। क्योंकि इतिहास की किताबों तक लोग पहुंच न सके या कह लें कायदे से इतिहास नहीं लिखा गया। वजह जो भी हो लेकिन मराठी में “छावा” नाम से रचे गए उपन्यास पर आधारित यह फिल्म इतिहास को पर्दे पर परोसती है तो हमारे उन यौद्धाओं की जीवटता को नमन करने को दिल चाहता है।
बताते चलें कि शेर के बच्चे को छावा कहा जाता है। इतिहास में भी शिवाजी को शेर व संभाजी को छावा की ही उपाधि दी जाती रही है। फिल्म पूरी तरह से कवितामयी तो नहीं है किंतु जब आप दर्शक सिनेमाघरों से बाहर आते हैं तो सबसे पहले कुछ संवादों और कविताओं की ही बात करते हैं।
तू माटी का लाल है कंकड़ या धूल नहीं
तू समय बदलकर रख देगा इतिहास लिखेगा भूल नहीं
तू भोर का पहला तारा है, परिवर्तन का एक नारा है
ये अंधकार कुछ पल का है फिर सब कुछ तुम्हारा है।
पूरी फिल्म में इस तरह के कई कविता पाठ हैं जो फिल्म की भव्यता के साथ-साथ कलाकारों के अभिनय से तालमेल बैठाते हुए प्रभावी बन पड़ी है। पूरी फिल्म हिंदवी स्वराज के लिए अपनी जान तक की बाजी लगा देने की कहानी बता रही हो और उसमें मुगल बादशाह औरंगज़ेब की कैद में यातनाएं सह रहे छत्रपति संभाजी से जब औरंगज़ेब कह रहा हो- हमारी तरफ आ जाओ, आराम से ज़िंदगी जियो, अपना धर्म बदल कर इस्लाम अपना लो…! तब संभाजी जवाब उस हिंदवी स्वराज की परिकल्पना को भी उजागर करता है। वे कहते हैं- हमारी तरफ आ जाओ, आराम से ज़िंदगी जियो और तुम्हें अपना धर्म बदलने की भी ज़रूरत नहीं है…!
हालांकि इसके इतर फिल्म यह भी दिखाती है कि इसी देश में शिवाजी और उनके पुत्र संभाजी के काल में भी कई लोग ऐसे थे जिन्होंने ‘धर्म’ त्यागने की बजाय अपने प्राणों को त्यागना उचित समझा किंतु वहीं कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने राज पाने के लिए अपनों से ही गद्दारी की, इतिहास में उनके द्वारा किए गए कृत्यों के परिणामों को भी फिल्म में दिखाया जाता तो यह फिल्म और दर्शनीय हो उठती।
फिल्म ‘छावा’ शिवाजी के देहांत के बाद संभा जी के छत्रपति बनने और अगले कई सालों तक मुगलों की नाक में दम करने की कहानी ही दिखाती है। एक सीन में जब औरंगज़ेब को लगता है कि शिवाजी के जाने के बाद उसके लिए दक्खन को फतेह करना आसान होगा तभी संभाजी उसे बताते हैं कि शेर गया है लेकिन छावा अभी ज़िंदा है। परन्तु अंत में मुगल सेना संभाजी को कैद कर लेती है और औरंगज़ेब के आदेश पर उन्हें घोर यातनाएं देकर तड़पाते हुए मारा जाता है। फिल्म अपने क्लाइमैक्स तक आते-आते इतनी क्रूरता और वीभत्स दृश्य दिखाती है कि उन्हें देखकर आपके दिल में कुछ अजीब मचलने लगता है।
यही वजह है कि यह फिल्म लुभाती जरूर है और सराहनीय भी लगती है क्योंकि यह हमें उस गौरवशाली इतिहास के पन्ने टटोलने पर विवश करती है जिनमें धर्म योद्धाओं ने अपनी ध्वजा को ऊंचा रखने के लिए बलिदान तक देना मंज़ूर किया। फिल्म की पटकथा में कुछ खामियां जरूर उभरती है और इसे देखते हुए प्रतीत होता है कि इसमें शिवाजी के भी कुछ दृश्य होते उसके बाद संभाजी के छत्रपति बनने की घटनाओं सिलसिलेवार तरीके से कहानी रची जाती तो यह और अधिक मार्मिक और अधिक प्रभावी हो उठती।
यह भी वजह रही कि दर्शकों को यह फिल्म पूरा इतिहास भी नहीं परोस पाती। चूंकि छावा नाम के उपन्यास पर आधारित फिल्म है तो जाहिर है इसमें कुछ तथ्य कुछ कथ्य की स्वतंत्रता भी लेखक द्वारा अवश्य ली गई होगी। निर्देशक लक्ष्मण उतेकर का काम प्रभावी दिखता है। फिल्म के सैट्स, वी.एफ.एक्स., सिनेमैटोग्राफी, बैकग्राउंड स्कोर असरदार और फिल्म का प्रभाव गाढ़ा करते रहे तो कुछ जगहों पर उनकी पकड़ कमजोर भी हुई। गीत संगीत के मामले में जरूर निराशा हाथ लगती है और रैप सॉन्ग बिन मतलब का ठेला हुआ लगता है।
युद्ध के बेहतरीन दृश्यों और अद्भुत एक्शन से सजी यह संभाजी के नाखून खींचने, आंखें निकालने, जीभ काटने के दृश्य दिखाते हुए इतनी मार्मिक हो उठती है कि कुछ लोग पर्दे पर इतनी वीभत्सता शायद झेल न पाए। किंतु यह सब इतिहास में घटित हो चुका है इसलिए देखना भी चाहिए ऐसी फिल्मों को और ऐसे रक्तरंजित-इतिहास को।
यह फिल्म कलाकारों के अभिनय के लिए भी देखी जानी चाहिए। विक्की कौशल जिस तरह से संभाजी के चरित्र में उतरे हैं उसके लिए उन्हें ढेरों पुरस्कार और शाबाशियां अवश्य मिलेगीं। अगर उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिले इस फिल्म के लिए तो कोई दोराय नहीं। वहीं औरंगज़ेब के किरदार में अक्षय खन्ना का पर्दे पर जबरदस्त कमबैक देखने को मिला है। आशुतोष राणा, कवि कलश बने विनीत कुमार सिंह, रश्मिका मंदाना, डायना, दिव्या दत्ता, नील भूपालम, प्रदीप रावत, किरण कर्माकर, अनिल जॉर्ज व अन्य कलाकारों का काम भी प्रभावित करता रहा।चूंकि पूरी फिल्म ही कवितामयी है तो इसी फिल्म की कविता के कुछ अंश से इस फिल्म समीक्षा का अंत करना उचित होगा।
तलवार तीर हो, मर्द मराठा शूरवीर हो,
युद्ध में कौशल गजब दिखावे,
रिप दमन कर शंख बजावे,
जनमानस के धूप रहोगे,
चरम चमकती धूप रहोगे,
प्रसन्न रहे माता जगदंबा,
ओ छत्रपति ओ सहचर संभा।
अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार