हर विवाह अपनी वेदी के इर्दगिर्द गठबन्धन के मंत्रोच्चार एक जोड़े के बीच अवश्य कराता है, मगर साथ ही साथ ये गठबंधन होता है। दो परिवारों के मान-सम्मान,रीति-रिवाज,आचार-व्यवहार, मान्यताओं,रिश्तेदारों,मित्रों आदि के मध्य भी।
“मङ्गलम् भगवान विष्णुः,मङ्गलम् गरुणध्वजः।
मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः, मङ्गलाय तनो हरिः॥”
इस विष्णु कल्याण मंत्र के उच्चारण से प्रकृति से पूर्णतया भिन्न दो लोग आजीवन एक होने, एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ चलने, एक दूसरे के परिवारों, बड़े-बुजुर्गों सहित सबका खयाल रखने, एक दूजे के परिवारों के रीति-रिवाजो, परंपराओं, तीज-त्योहारों आदि का मान व निर्वहन का वचन एक दूसरे को देते हैं।
इस प्रक्रिया के चलते सगे-सम्बन्धियों के बीच भी एक अलग सा बंधन बन जाता है। वे सब भी एक दूसरे की खुशियों, सुविधाओं, पसंद-नापसंद सबका पूरे दिल से व सुरुचि से खयाल रखते हैं। सही तौर पर कहूँ तो रिश्ते पक रहे होते हैं। धीमे-धीमे विवाह की वेदी में प्रज्वलित समिधा के ताप से, जैसे पकते हैं कच्ची मिट्टी के घड़े अबा में तप कर।
इतनी चहल-पहल,सजती इतराती रौनकें, दूर के रिश्तों में निकाली जाती रिली-मिली रिश्तेदारियों की गपशप! सब कुछ एक दिवास्वप्न सा सुहाना दिखाई पड़ता है। लेकिन होश नदारद हो जाते हैं जब नींद खुलने पर पैरों के नीचे से जमीन खिसकती हुई प्रतीत होती है। जब प्रारंभ होता है विवाहोपरांत अनायास दख़ल,आये दिन वधू पक्ष के लोगों का अपनी ही नवविवाहिता बेटी के ससुराल में!
वर पक्ष जब सहलाना, सहेजना, अपनाना चाहता है नववधू की हर चाहत को, बातों को, इच्छाओं, उम्मीदों को ,ससुराल पक्ष जब स्नेह की नमी में, सहयोग की धरती पर बो देना चाहता है बहू के संग आते खुशनुमा भविष्य के बीज, तभी नववधू के करीबी परिवार का बेवजह दख़ल हिला देता है वर के घर की नींव,उजाड़ देता है वो बगिया, रौंद कर मिट्टी उखाड़ देता है मिट्टी आँगन की।
ऐसे मंज़र तब सदमे के समान प्रतीत होते हैं, जब वर का परिवार जिस बहू के हाथ में अपने घर-परिवार की, बेटे के जीवन की डोर सौंप देता है, वही नवेली बहू उस डोर को काट कर बिखेरने लगती है उसे।
अपवादों के उदाहरण से परे वर्तमान समय के खाँचे में ये स्थिति प्रत्यक्ष जब-तब देखने-सुनने को मिल ही जाती है। यह अत्यंत दुःखद भी है और अजीब भी! इस स्थिति को दुःखद इसलिये कह सकते हैं कि एक तो इसके परिणाम कभी भी एकतरफ़ा नहीं होते! बशर्ते वधू के दखल देने वाले परिवारी वज्र और निर्लज्ज हों! तो भोगने वाला लड़का और परिवार यदि कुछ भोग रहा होता है, तो उसकी सड़ांध व दाग दूसरी तरफ़ भी भले कम पहुँचें पर फैलते तो हैं ही। खुसुर-फुसुर उधर भी अपनी बैठकी लगा लेती है।
अजीब इसलिए कह सकते हैं कि जिस परिवार में वे अपनी बेटी को विदा करके दोनों परिवारों, रिश्तों को सहेजने, संभालने की बड़ी-बड़ी संस्कारी बातें रिश्ता तय होने के समय करते हैं। वे ही विवाह हो जाने के बाद दीमक की तरह उसी की जड़ों को खोखला करने में अविलम्ब जुट जाते हैं।
पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़ लड़की भी मायके के मोह में अंधी होकर भूल जाती है कि इस नये रिश्ते के जुड़ते ही उसने इस परिवार की जिम्मेदारी के संग-संग उसे और बेहतर व खुशहाल करने का सपना भीतर बोया था। बिसरा देती है वह कि उसे नयी नींव को संतुलित मात्रा में तराई भी देनी होगी। वो भूल जाती है कि जहाँ लक्ष्मी की तरह स्वीकार कर के उसके पैरों और हाथों के छापे लिये गये उस आँगन में वह बबूल के काँटे कैसे और क्यूँ बिखेर सकती है?
अपवादों की बात से परे ये मुद्दा है, जहाँ अनायास दख़ल विषबेल की तरह फैलकर पूरे परिवार की सुख-शांति को चरमरा देता है। द्वाराचार या मिलनी के समय जब रिश्तों ने रिश्तों का सम्मान किया था तो कैसे उनके देहरी के भीतर मनते रीति-रिवाज़ों के ऊपर वे अपनी तरफ़ मनाये जाने वाले रिवाज़ों के,चलन के जबरिया राग अलाप सकते हैं?
बात सिर्फ़ समझने की है कि लड़के के परिवार द्वारा यदि आपकी देहरी के भीतर आपके चलन को मान दिया था तो उनकी देहरी के भीतर आपकी कुत्सित दखलंदाजी सरासर गलत ही कही जायेगी।
बरगलाने वाले परिवारियों के इस आचरण से विलग ये समझना और मानना लड़का/लड़की के लिये बहुत आवश्यक है कि वे दोनों आज के समय में गठबंधन में बंधे है, पूरी तरह बालिग हैं। कोई बाल-विवाह नहीं हुआ है जो कि सुध-बुध,सोच-समझ कुछ भी पास में नहीं है, जैसा कहा गया वैसा-वैसा करते गये!
लड़का/लड़की दोनों ही गंठबंधन की देहरी से गृहप्रवेश करके नव-जीवन की शुरूआत करते हैं, फिर कैसे इसे कुछ ही महीनों में ध्वस्त कर सकते हैं?
दोनों एक दूसरे को दिये उनके परिवारों, जुड़े रिश्तों, मान-मर्यादाओं के प्रति,लिये-दिये गये वचन इतनी शीघ्रता से कैसे भूल सकते हैं?
इस विखण्डन को यदि भूकम्प की श्रेणी में रखूँ तो गलत नहीं होगा! कम से कम आँकू तो अमूमन छः से आठ महीने में ही द्वेष, जलन, अहंकार, देखा-देखी और स्वार्थीपन की सीस्मिक तरंगें एकत्र होकर जब विस्फोट के विस्थापन का रूप लेती हैं तब एक क्षण में ये भूकम्प सब कुछ तबाह कर देता है। एक भरा पूरा घर तहस- नहस हो जाता हैं। वहाँ पनपते रिश्तों के बीच पलता प्यार, मान- सम्मान सब पलक झपकते ही विद्रूपता की, नफ़रत, जलन, अहम् के अंधड़ में तब्दील हो जाता है। साथ है ऐसे में हाइपो सेंटर और एपीसेंटर के बीच मानसिक, शारीरिक व आर्थिक विध्वंस जारी रहते हैं।
स्थितियाँ तब समझ से बिल्कुल परे होती हैं जब लड़के का परिवार लड़की को खुले दिल से, मन से बहुत प्यार व सम्मान से अपनाता है।उसकी हर छोटी-बड़ी खुशी का खयाल रखता है,ताकि उसे अपने पीछे छूटे रिश्तों की ,घर की कमी महसूस ही ना हो। परिवार उस पर अपने सो कॉल्ड ससुरालिया तेबर नहीं लादता। जहाँ काम के लिये कोई प्रेशर नहीं, दिनचर्या के लिये कोई पाबन्दी नहीं थोपी जाती। इस प्रेम और अपनेपन के बदले बस एक अदद उम्मीद या मंशा होती है कि बहू संभाले अब अपना घर,रिश्ते,आचार-व्यवहार,भले ही अपनी सहूलियत से कुछ बदलाव भी करे, लेकिन सुख शांति की गेरू पर प्रेम की अल्पना बना कर सजा ले अपना घर-आँगन।
बदलाव किसे बुरे लगते हैं, यदि कुछ भला,कुछ बेहतर छुपा हो उनके पीछे तो।
आज की नारी जहाँ सशक्त हुई है, स्वाबलंबी हुई है वहीं वो कैसे कुछ मतलबी रिश्तों की मंशा को अनदेखा कर के एक कठपुतली बन कर अपनी ही गृहस्थी को सफाचट कर के सब चौपट कर देती है?
इस सबके बीच भूकम्प में हुई तबाही का बचा-खुचा मलवा तब बह जाता है, जब लड़का भी अपने परिवार की सारी ईमानदार कोशिशों को भूल कर,पैदाइश से जुड़े रिश्तों को भूलकर चंद महीनों या साल पहले बने छद्मवेशी शकुनियों की बिसात पर अपना सब कुछ दाँव पर खेल जाता है। फिर हार तो निश्चित है। जिसकी भी हो खामियाज़ा मगर आजीवन भोगना पड़ता है। चंद महीनों की लाग-लपेट के आगे वह भूल जाता है,अपनी परवरिश में लगे सभी हाथ,अपनी जीवन यात्रा में लगे सभी सहारे के पहिये। भूलकर उन्हें वह भी चल पड़ता है उस रास्ते जहाँ एक ना एक दिन वह अकेला रह जाने वाला है।
जमीन-जायदाद,सरकारी नौकरी,पक्के शहरी मकानों,जेवर-गहनों,उपहारों और पैतृक संपत्ति की नींव पर एक सॉलिड कैलकुलेशन से बनाये रिश्ते भला दीर्घायु कैसे हो सकते हैं?
सामने वाला वर का परिवार यदि साधारण, पारदर्शी व्यवहार वाला है, तो क्या वधू के परिवार का अनायास दख़ल उचित कहा जायेगा?
घर-परिवारों का इतनी शीघ्रता से विखंडन क्या सिर्फ़ वर पक्ष के कारण ही संभव है?
ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती, दोनों हथेलियाँ एक समान बल से टकराती हैं, तब जाकर वह ध्वनि गुंजायमान होती है।
बेटी को जब-जब आपके साथ की,परस्पर सहयोग की आवश्यकता हो तो बिल्कुल उस साथ में कोई बुराई नहीं है। लेकिन यही साथ व स्नेह उसके बसे बसाये घर को अपनी बिना किसी कारण के दख़लंदाज़ी से ध्वस्त करे तो ये गलत कहा जायेगा। परिवारों से ज्यादा यहाँ अत्यधिक सोचने की अवश्यकता उन्हें हैं, जो इस मीठे अपितु घृणित प्रपंच का निशाना होते हैं। वक्त रहते चेत जाइये, समय के संग रिश्तों को भी रेत की मानिंद मुट्ठी से फिसलते देर नहीं लगती।
क्रमशः….