“पढ़ ले तनि,बुआ के बेटे को देख कितना पढ़ता था,तभी तो कलेक्टर बना बैठा है, नाम चमका दिया है उनका।”
“घर के काम-काज में मन लगा, चाचा की बेटी को देखा है, पढाई के साथ-साथ हर काम में सुघड़ है।”
ऐसे अनगिनत वाक्यों के तीरों सी गिरती बौछारों के बाद हमने कभी थोड़ा सा भी सुस्ताकर ये सोचा ही नहीं कि आखिर ये वाक्य किस श्रेणी में रखे जाने चाहिये?
इन्हें बाल-सुधारक कहेंगे या गुस्सासूचक या फिर ताने भरे, शिकायती या कि सीख ग्रहण करने योग्य?
अजी! जाने दीजिये कहाँ माथापच्ची करेंगे अब मेरे संग? पर क्या कभी सच में इतना भी सोचा है कि इन धधकते वाक्यों के प्रयोग से कहीं कुछ जल तो नहीं रहा, कहीं कुछ राख होकर भरभरा कर मिट्टी में तो नहीं मिल गया?
अभिभावक बनने के बाद हम अपनी ही आदतों में से कितना कुछ भूल जाते हैं।अपने बचपन में,किशोरावस्था में हुई बातों,सबकों,अच्छाइयों-बुराइयों के बारे में! हम भूल जाते हैं कि हम में से बहुतों ने अपने कोमल तन और कच्चे मन पर ऐसे अदृश्य तीरों, भालों की बेभाव मार को झेला है। इनके कारण कितनी ही बार मन सारी हदें पार कर इतना उदासीन हुआ होगा कि मृत्यु को ईश्वर से माँगा गया होगा या वरण कर लिया होगा। या फिर इनसे घायल मन कुंठित होकर निकल गया, अपराध की उन भूलभुलैया गलियों में,जहाँ से वापसी नामुमकिन होती है। जानते हैं कोई भी समझाइश या सीख सबसे आसान,सबसे सहज कब बन जाती है? तब, जबकि हम खुद को पहले उस देय सीख के ख़ाके में उतार लें, तब ही तो दूसरे को ठीक तरह से समझा सकेंगे।
बतौर शिक्षक अपनी ट्रेनिंग के दौरान मैंने बच्चों को एक किस्सा सुनाया था आप भी इसमें छुपे गुरूमंत्र को समझिये। एक बार सावरमती आश्रम में बापू के पास एक महिला अपने किशोरवय बच्चे के संग उसके कान खींचते हुये आई और विनती करते हुये बोली -“बापू मेरा बेटा अति का गुड़ (यहाँ मतलब मीठा से है) खाता है, कृपया इसे समझायें, डाँटे या सही राह दिखायें।”बापू ने उस महिला को पंद्रह दिन बाद पुनः आने को कहा। महिला पंद्रह दिन पीछे फिर से आश्रम पहुँची, तब बापू ने उस बच्चे को पास बिठाकर बहुत प्यार से समझाया और बच्चा उनकी बात मानकर प्रसन्न भी हो गया। महिला बच्चे को बाहर खड़ा करके फिर से भीतर आई और बोली- “बापू जी,आपने कुछ ही क्षणों में मेरे बच्चे को समझाकर,उसकी गुड़ से उचित दूरी हेतु हामी भी भरवा ली,परंतु इतनी छोटी सी बात के लिये आपने पंद्रह दिन क्यों लिये?”
बापू ने मुस्कुराकर कहा-“बहिन तुम्हारे बेटे को मैं कैसे उस कार्य के लिये मना कर सकता था, जो कार्य मैं स्वयं अति के रूप में करता हूँ। मुझे भी मीठा बहुत भाता है, इसीलिए मैं भी गुड़ के मोह में बिंधा था। गुड़ से मोहभंग करने में मुझे पंद्रह दिनों का समय चाहिये था। अपनी आदत छुड़ाकर ही तो मैं आपके बेटे को समझा सकता था।” राष्ट्रपिता ने एक बड़े से बोझ की गठरी को सहजता व सूझबूझ से कितना हल्का कर दिया था,तो फिर हम-आप किस लिये उस बोझ को अपने संग-संग अपने बच्चों के भी काँधों पर लाद रहे हैं।
आप हम सब अलग-अलग सूरत,शीरत,क्षमताओं,विशेषताओं और रुचियों के लोग हैं,तो अगर हमारे बच्चे भी इसी तरह पृथक-पृथक हैं ,फिर इसमें कैसी होड़ा-होड़ी? किसी दूसरे के बच्चे में जो गुण हैं, हो सकता है कि वो आपके बालक में ना हों। इसका मतलब ये तो कतई नहीं कि हम अपने ही बालकों को जबरन बदलना प्रारंभ कर दें या फिर अडोस-पडोस के बच्चों,रिश्तेदारों के बच्चों और आपस में सगे बच्चों में ही तुलना करके उनके भीतर कुंठा के बीज बो दे। बल्कि अभिभावक होने पर हमारा यहाँ ये दायित्व बन जाता है कि-हम अपने बच्चे की छुपी खूबियों का पता लगायें।ढूँढ निकालिये, उसमें भी कुछ ना कुछ तो अवश्य ही खास होगा,जो अब तक हमारी आँखों से ओझल रहा है।
मेरी नज़र से देखेंगे तो पायेंगे-“जिस तरह हर हीरे की अपनी अलग चमक होती है”, उसी तरह हमारे बालकों में भी हुनर की अलग अपितु विशेष चमक समाहित होती हैं, आवश्यकता है तो बस उसे उलछाकर, धोकर, घिसकर उभरा लाने की, निखारने की।
जिस तरह खनन के बाद हर एक हीरे के तराशे जाने की प्रक्रिया,वज़न,चमक, मूल्य सब भिन्न- भिन्न होता है, वैसे ही हमारे बच्चों की भी यही तासीर होती है। मेरी सोच में हर एक बालक हीरा है। देर किस बात की है…पहचानिये ना जौहरी बनकर उसकी विशेषताएँ।
प्रश्न करिये स्वयं से कि-
हम क्यूँ किसी दूसरे के बच्चे से अपने बच्चे की तुलना करें ? या एक बच्चे से दूसरे बच्चे के बीच रेस लगवायें?
यकीन मानिये वो बीस नहीं तो अठ्ठारह भी नहीं होगा कहीं।
आज हमारी बच्ची जिस उम्र में है,उस उम्र में क्या हम पूर्णतः सुघड़,श्रेष्ठ और व्यवस्थित बन चुके थे?
आज बच्चे हमारे सामने गलतियाँ करते हैं,जिनमें सुधार की गुंजाइश है परंतु क्या अपराध या कुंठा की राह पर भी ऐसी कोई सूक्ष्मतम गुंजाइश होगी?
शेखी बघारने वाली अपनी झूठी बातों से पृथक अपने बच्चों को उचित समय दीजिये,उनकी खूबियों और खामियों का पता लगाकर उन्हें चमकाने और तराश कर बेहतर बनाने हेतु।
मत भूलिये कि-हमारा ज़माना कब का गया! तब शहर भी छोटे हुआ करते थे,आबादी भी उतनी ना थी,स्कूल-कॉलेज इतनी दूर भर थे कि हम साइकिल से या पैदल पढ़ने जा सकें। हमको भी तब स्कूटी मिली होती तो, हम भी दो-तीन शहर नाप ही लेते।
गैजेट्स मिले होते तो हम भी बासी ओर्कुट की बातें बता रहे होते सबको।
सच कहूँ तो दूसरों से क्या अपने बच्चों की स्वयं से भी तुलना करना बंद करिये।
आप क्या थे और क्या बन चुके? ये आपके बच्चों के सामने है। बेहतर है -इस पर ही फोकस करें कि-अब हमारे बच्चे उनके सामर्थ्य में कितना बेहतर कर सकते हैं ।
बच्चों का साथ दें, वैचारिक स्वतंत्रता की ढील दें, निर्णय की क्षमता दें, हाथ थामें और देखें कि कैसे ऊँची उड़ान भरती हैं हमारे हीरों की चमचमाती पतंगें। बच्चों पर पकड़ बातों से नहीं बल्कि इरादों और भरोसे से मजबूत बनाइये, कर के देखिये, सच में अच्छा लगता है।