बीते दिनों एक और आम घटना हुई है. एक प्रेमी जोड़े की, उनके ही घर में घुसकर हत्या कर दी गई. शायद अब आप नाम जानने को उत्सुक हों, पर नाम, शहर जानने से क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा? ये रोज़मर्रा की ख़बर ही तो है. ऐसा कौन सा दिन बीता है जब थोथी इज़्ज़त के नाम पर प्रेम की हत्या न हुई हो? सरसराती निग़ाहों से इसे देख-सुन हमें तो अपनी दुनिया में मस्त हो ही जाना है. वैसे भी जब परिवार के ही लोग, अपने ‘जिग़र के टुकड़े’ को गोलियों से भून दें तो किसी और का संवेदनहीन हो जाना कौन सी बड़ी बात है!
मरने वालों का ग़ुनाह बस यही कि उन्होंने ‘प्रेम’ किया था. अपनी मर्ज़ी से विवाह कर सुख का जीवन बिताने के सपने बुन लिए थे. लेकिन हमारा इज़्ज़तदार, संस्कारी समाज है न! जिससे किसी की ख़ुशी बर्दाश्त ही नहीं होती! ख़ासतौर से वो, जो उसने चुनकर न थमाई हो! इसलिए कुछ लोगों को ये यक़ीन हो गया है कि उन्हें दूसरों के सपनों को चकनाचूर कर देने का पूरा हक़ है. सो, उनकी ही हत्या कर दी, जिनके भले का सोचने का दंभ भरते थे.
आए दिन ऐसी घटनाओं से ये सुनिश्चित हो चुका है कि हर बात में प्रेम और शांति की पैरवी करने वाले समाज को प्रेम से ही नफ़रत है इसलिए प्रेम विवाह को कभी खुले दिल से स्वीकार नहीं कर पाता! माता-पिता को भी कहाँ बर्दाश्त होता है कि उनके बच्चे अपनी पसंद का जीवनसाथी चुन लें! बेटे का तो फिर भी सहन कर लेते हैं लेकिन बेटी के मामले में उनकी भृकुटी तन जाती है. यहाँ पितृसत्तात्मक सोच को भी झुठलाया नहीं जा सकता! घर के पुरुष जो शुरू से ही लड़की को बताते रहे कि उसका रहन-सहन, चाल ढाल, वेशभूषा कैसी रहनी चाहिए, उन्हें कैसे सहन होगा कि उस ‘लाड़ली’ को प्रेम हो जाए! उसे जरूरत ही क्या है ऐसे साथी की, जो उसे समझे, प्यार करे! उन्होंने ‘अरेंज मैरिज’ का प्रावधान कर तो रखा है, जहाँ वे चुनेंगे कि ‘वर’ कौन होगा!
“लड़के का जॉब अच्छा है, घरबार ठीकठाक है. और क्या चाहिए? प्रेम, व्रेम सब बेकार की बातें हैं. अरे, एक कुत्ता पाल लो तो उससे भी हो जाता है, तुम्हारे आदमी को तुमसे क्यों न होगा?” यही सब बातें हर लड़की के कानों में आये दिन डाली जाती हैं. जिससे प्रेम के बारे में सोचने की उसकी हिम्मत ही न हो. बाद में यदि यही लड़की उनके चुने हुए ‘वर’ को लेकर कभी कोई दुःख ज़ाहिर करे, तो उसे समझने के बजाय उल्टा लड़की को ही प्रतिप्रश्नों का सामना करना पड़ता है. “तुम उनके खाने-पीने का ठीक से तो ख़्याल रखती हो न?”, “उनकी बातों का जवाब तो नहीं देती कभी”, “बेटा, गृहस्थी तो समझौतों से ही चलती है. मुझे देखो, झेल रही हूँ न कबसे?” घर आई लड़की को पिता भी लौटा देता है कि “कुछ दिन और उधर रहकर देखो, सब ठीक हो जाएगा. कोई दिक़्क़त हुई तो हम हैं न!”
लेकिन सच्चाई यह है कि “हम हैं न!” सर्वाधिक ओवररेटेड वाक्य है. क्योंकि ये कहने वाले लोग कभी आपके साथ नहीं होते! हाँ, जब लड़की की लाश मिलती है तो बुक्का फाड़कर रोने में इनका कोई सानी नहीं! ये जमाने भर को चीख-चीखकर बताते हैं कि कैसे नाज़ों से पाला था हमने, हमारी फ़ूल सी बच्ची को.
जी हाँ, वही फ़ूल, जिसके मुरझाये चेहरे को समझने वाला कोई न था, जिसकी पीड़ा कभी किसी तक न पहुँची, जिसका दर्द उसके भीतर ही गाँठ बनता रहा, जिसके आँसुओं ने उसका मन और सारे सपने सुखा दिए.
प्रेम और प्रेम विवाह से आपत्ति करने वाले लोगों के लिए उनका अहंकार प्रमुख है. किसी के प्रेम को स्वीकारने में उनकी नाक जो आड़े आती है. उन्हें लड़की का हर निर्णय लेने की आदत पड़ी हुई है. ऐसे में यदि उसने स्वयं ही कुछ तय कर लिया तो उन्हें चुभेगा ही. आख़िर पितृसत्ता की स्टैम्प लगे बिना कुछ क़ुबूल हो भी तो कैसे!
ऐसे में प्रेम को कौन बचाएगा? कौन उस समाज से प्रश्न करेगा जिसके लिए उसकी तथाकथित इज़्ज़त को बचाने का एकमात्र जरिया, प्रेम को ख़त्म कर देना है. क्या प्रेम की हत्या करने से समाज में मान बढ़ जाता है? यदि नहीं तो ऑनर किलिंग करने वालों को इतनी हिम्मत कहाँ से मिलती है? कहाँ से उपज आती है इतनी नफ़रत कि अपने ही ख़ून का ख़ून कर देते हैं? क्या प्रेम के इन निर्मम हत्यारों को फांसी हुई है कभी? क्या इनके लिए कभी कोई संगठन अनशन/धरने पर बैठा है? क्या कभी किसी ने इनके खिलाफ़ कोई फ़तवा निकाला है?
सरकारों से क्या उम्मीद! उन्होंने तो अपनी कुर्सी बचाने के जतन के अलावा कुछ न किया. वैसे भी अधिकांश नेता तो नफ़रत को पोषित करने में विश्वास रखते हैं, प्रेमियों की आह उन तक क्या ख़ाक़ पहुंचेगी! सरेआम बलात्कार और जघन्य हत्याओं के बीच प्रेम को बचा लेने की गुहार लगाना भी बेमानी है. क्या है ऐसा कोई कानून जो प्रेम को बचा सके? कहाँ खो जाते हैं वे लोग जो प्रेम और शांति से जीने की बात करते हैं?
नहीं है, तो तब तक होने दीजिए. हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है क्योंकि-
* हमारी भुजाएं तो तब फड़कती हैं जब किसी कट्टर हिन्दू/मुस्लिम को ठिकाने लगाने की बात हो.
* हम उन मामलों में तुरंत अपनी राय दे देते हैं जिनसे हमें सीधे-सीधे कोई दिक्कत हुई हो.
* हम वहाँ जरूर हँसते हुए एक इमोजी बना आते हैं जहाँ कोई पप्पू या फ़ेंकू सिद्ध हो रहा हो.
* हम उनसे भी क्या ही उम्मीद रखें जिन्हें जनता ने अपने भले के लिए चुना है उन नेताओं की ज़ुबान केवल अपने दल के फ़ायदे के आधार पर ही खुलती है. जिधर से राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद हो, वे तुरंत ही विमान में बैठ उधर पहुँच जाते हैं.
* आम आदमी प्याज और पेट्रोल में ही इस क़दर उलझा हुआ है कि बाकी विषयों पर बोलने की गुंजाइश ही न बची उसके पास. जो थोड़ा बहुत समय है भी, उसमें वह फ़िल्म, क्रिकेट और आने वाली वेब सीरीज़ की चर्चा करके प्रसन्न रहना चाहता है.
आइए एक और प्रेमी जोड़े की हत्या पर नमन और विनम्र श्रद्धांजलि लिख अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर लें!