अचानक ही फेसबुक में हुई हलचल से इस साल फिर इस पर ध्यान गया कि देश में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत परीक्षाओं के नतीजे घोषित हो चुके हैं। इस परिणाम के साथ ही आशा, निराशा, उल्लास और क्रोध के भाव भी चारों तरफ देखने को मिल रहे हैं। यह भाव विद्यार्थियों से ज्यादा अभिभावकों के बीच देखने को मिल रहे हैं।
कहीं 97 फीसद अंकों के साथ उत्तीर्ण हुए विद्यार्थी और अभिभावक परिणाम में तीन फीसद कम अंक आने का अफसोस मना रहे हैं और विद्यार्थी उस कमी को पूरा न कर पाने के बोझ से दब रहे हैं तो कहीं असफल विद्यार्थी इसे जीवन का अंतिम परिणाम मानकर हताश होकर तनाव में जी रहे हैं। इन दोनों ही स्थितियों में कई बार कुछ विद्यार्थी आत्महत्या तक पहुंच जाते हैं। जबकि यह सबको अंदाजा होगा कि अंकों से तय होती प्रतिभा की परिभाषा विद्यार्थी पर मानसिक दबाव बनाती है।
वर्तमान समय में हमारी शिक्षा व्यवस्था ही अंकों पर प्रतिभा का मानक तैयार करने वाली प्रणाली बन गई है। अगर कोई विद्यार्थी निन्यानबे या फिर सौ में सौ फीसद अंक लाता है तो समाज उसे सिर-आंखों पर रखता है। वहीं अंकों की दौड़ में अगर कोई पिछड़ जाता है तो समाज और खुद उस बच्चे का परिवार भी बच्चे के आत्मविश्वास की हत्या कर देता है।
दरअसल, हमारे समाज की तुलनात्मक अध्ययन की मानसिकता रही है और यह मानसिकता बच्चों में किसी भी प्रकार का विभेद नहीं करती है, बल्कि हमेशा उनका तुलनात्मक स्तर पर मूल्यांकन करती रही है। इस पूरी व्यवस्था में जो सर्वाधिक दोषी है, वह है हमारी शिक्षा प्रणाली जो आज भी पहली कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में विद्यार्थी के मूल्यांकन का आधार उसके द्वारा प्राप्त परीक्षा परिणाम से आंकता है।
वह उस परीक्षा से इतर उसके भीतर की प्रतिभा को मूल्यांकन का आधार नहीं बना पाता है। यही कारण है कि शिक्षा व्यवस्था में सीखने से अधिक अंकों की प्राप्ति पर जोर दिया जाने लगा है। हमने साक्षरता दर बढ़ाने के लिए पहले पांचवीं और फिर आठवीं कक्षा में अनिवार्य रूप से पास करने की नीति को अपनाया, उसी का परिणाम नौवीं और दसवीं कक्षा में विद्यार्थियों का अधिक फेल होना और बीच में स्कूल छोड़ने वालों की तादाद का बढ़ना रहा।
हमने इसके समाधान के तौर पर प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा में सभी को पास करने की नीति में बदलाव करने की अपेक्षा पाठ्यक्रम को अधिक छोटा बना दिया। शिक्षा की गुणवत्ता को मजबूत बनाने की अपेक्षा शिक्षा में मात्रात्मक बदलाव पर जोर दिया और उसी के अनुरूप मूल्यांकन पद्धति को सरल बनाया। क्या कभी हमने सोचा कि शिक्षा पर बनाई गई नीतियां हमेशा नाकाम क्यों होती हैं?
वर्ष 1950 में, जब भारत के संविधान को अपनाया गया था, शिक्षा को एक बुनियादी व्यक्तिगत अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी। राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत, अनुच्छेद 45 में कहा गया है कि राज्य इस संविधान के प्रारंभ से 10 वर्ष की अवधि के भीतर, सभी बच्चों के लिए 14 वर्ष की आयु पूरी होने तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा। सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की देश की प्रतिबद्धता के अनुरूप, स्वतंत्रता के बाद की अवधि में, विशेष रूप से प्राथमिक स्तर पर, शैक्षिक सुविधाओं का जबरदस्त विस्तार हुआ है।
प्राथमिक शिक्षा औपचारिक शिक्षा की पहली सीढ़ी है। गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों में पढ़ने, लिखने और अंकगणित के बारे में बुनियादी ज्ञान को शामिल करना है। यह अपेक्षा की जाती है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा सफलतापूर्वक पूरी करने के बाद, एक बच्चा पढ़ने, लिखने और साधारण अंकगणितीय समस्या को हल करने में सक्षम होना चाहिए। आज भारत में प्राथमिक शिक्षा का बहुत ही निराशाजनक परिदृश्य है। भाषा और गणित में छात्रों की सीखने की उपलब्धि अर्थात गुणवत्ता को मापने के लिए भारत के सभी राज्यों (केंद्र शासित प्रदेशों, मिजोरम और सिक्किम को छोड़कर) में प्राथमिक स्कूलों में दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के संबंध में कई अध्ययन किए गए। एक शोध अध्ययन के अनुसार- भारत में प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद 11 प्रतिशत छात्र कुछ भी नहीं पहचान पा रहे थे, 14.1 प्रतिशत केवल अक्षर पहचानते थे, 14.9 प्रतिशत एक शब्द पढ़ सकते थे, और 17 प्रतिशत कहानी का पैराग्राफ पढ़ सकते थे और 42.8 प्रतिशत पूरी कहानी पढ़ सकते हैं।
ऐसा इसलिए है कि ये नीतियां जमीनी स्तर पर कारगर नहीं होती हैं। हमने आठवीं कक्षा तक पास करने की नीति को तो अपनाया और साक्षरता सूचकांक में अपना नंबर भी बढ़ाया, लेकिन क्या हमारा विद्यार्थी साक्षर हो सका? इसी पास करने की नीति के कारण आज विद्यालयों में कई बार छठी या आठवीं कक्षा के विद्यार्थी भी अपना नाम शुद्ध नहीं लिख पाते हैं।
हममें से बहुत से लोग इसका दोष भी शिक्षक को देंगे, लेकिन हम भूल जाते हैं कि शिक्षक भी इसी व्यवस्था के अधीन कार्य करने वाला कर्मचारी है, जो आदेशों से बंधा है। हम शिक्षा नीति में शिक्षक और विद्यार्थी संख्या अनुपात व उसके माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता पर बहस करते हैं लेकिन हमने कभी इसे व्यावहारिक धरातल पर लागू नहीं किया।
विद्यार्थियों की प्रतिभाओं को तलाशने एवं तराशने के लिए वार्षिक परीक्षा प्रणाली एकमात्र पैमाना या मानदण्ड नहीं हो सकता है। समय के साथ हर एक तरीका, प्रणाली एवं नियम पुराना हो जाता है। वक्त की तासीर एवं जरूरत के अनुसार उसमें सुधार करना ही अंतिम विकल्प होता है। वैसे भी हमारी शिक्षा, परीक्षा, अध्ययन-अध्यापन, मूल्यांकन इत्यादि सभी व्यवस्था ओं एवं पद्धतियों में आमूलचूल बदलाव करने की दरकार तो वर्षों से लंबित है।
सरकारी विद्यालय इस पूरे विवरण का यथार्थ हैं, जहां विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात से लेकर आधारभूत संरचना तक का अभाव देखा जाता है। अंकों के मानक मूल्यांकन है आधार से उच्च शिक्षा विभाग भी अछूता नहीं रहा है। अंकों के महिमामंडन में उच्च शिक्षा तक में मानक निर्धारित कर दिया गया। उच्च शिक्षा की मूल्यवान उपाधियों को भारतीय शिक्षा व्यवस्था की जमीनी स्थिति को समझे बिना समाप्त कर दिया गया। यह बेबजह नहीं है कि हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था में ज्ञानार्जन से अधिक अंक अर्जन और चाटुकारिता की परंपरा बढ़ने लगी है। हमने इस परंपरा को बढ़ावा दिया है और इसी प्रणाली को विद्यार्थी और शिक्षक के मूल्यांकन का आधार बनाया है। वर्तमान समय में शिक्षक, व्यवस्था की कठपुतली बन गया है।
अगर वह ऐसा नहीं करता है तो निष्कासन और तबादला जैसे भारी-भरकम शब्दों से उसका परिचय करा दिया जाता है और विद्यार्थी इस व्यवस्था में अंकों की दौड़ में पिछड़ने पर कई बार जीवन की दौड़ भी हार जाता है। ज्ञान अंकों से अधिक जीवन जीने की कला है, जिसे हम भूलते जा रहे हैं, क्योंकि इस पूंजीवादी दौर में जीने से अधिक जीने के लिए आवश्यक ‘मूलभूत आवश्यकताओं की दौड़ में मनुष्य लगा है और वह उसी दौड़ में अपने बच्चे को पिछड़ता नहीं देखना चाहता है। यही वजह है कि आज शिक्षा बाजार के केंद्र में हैं और हम पूंजी के अधीन मजदूर बनकर रह गए हैं।
इस अत्यधिक प्रतिस्पर्धी दुनिया में अकादमिक उपलब्धि बच्चे के भविष्य का सूचकांक बन गई है। शैक्षिक उपलब्धि शैक्षिक प्रक्रिया के सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक रही है। नब्बे के दशक ने अधिकांश आर्थिक गतिविधियों के उदारीकरण का अनुभव किया है। नई सहस्राब्दी में, हमने अपनी आर्थिक नीतियों में दूसरी पीढ़ी के बदलाव पहले ही शुरू कर दिए हैं। सरकारी क्षेत्र से निजी क्षेत्र में बदलाव दिन-ब-दिन गति पकड़ रहा है। इसलिए, शिक्षा के क्षेत्र में भी, निजी क्षेत्र अपने गुणवत्ता के कारण फल-फूल रहा है, जैसा कि अधिकांश माता-पिता मानते हैं।
आज अभिवावक अपने समर्थ से बढ़कर बच्चों की शिक्षा के लिए बेहतर शिक्षण-संस्थानों का चयन कर रहे हैं, जिसका अनुचित लाभ उठाकर निजी विद्यालय प्रशासन क्रमशः अभिवावक एवं छात्र दोनों का शोषण करने में हिचकते नहीं हैं क्यूंकि उनका प्रयोजन शिक्षा देना नहीं अपितु आज शिक्षण-संस्थान व्यापार का एक बेहतर सुरक्षित साधन है।
सरकारी विद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक विद्यार्थी को केवल इसलिए पढ़ाते हैं कि उसकी नौकरी बनी रहे, उसके भले-बुरे से उन्हें कोई मतलब नहीं। वे हमेशा अपने ट्यूशन की चिन्ता में लगे रहते हैं और धन कमाने के लालच में अपने स्वाभिमान, गुरुत्व और शिक्षक पदवी के महत्व को गंवा बैठते हैं।किसी भी देश की संस्कृति और इतिहास को क्षत-विक्षत करना हो तो उसका सबसे सरल उपाय है कि उसके शिक्षा के स्तर को गिरा दिया जाये।
स्कूली शिक्षा संपूर्ण शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण खंड है जो व्यक्ति के साथ-साथ राष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है। ऐसे में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर मानव जीवन के सभी पहलुओं में सुधार लाने के लिए विशेष जोर दिया जाना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए भी एक ठोस आधार प्रदान करती है। दूसरी ओर माध्यमिक शिक्षा संपूर्ण शिक्षा प्रणाली में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि यह व्यक्ति के व्यापक विकास का आधार बनती है माध्यमिक शिक्षा को उच्च शिक्षा की प्रारंभिक शिक्षा कहा जाता है और इसकी गुणवत्ता का उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है।
स्वतंत्रता के दशकों के बाद भारत में शिक्षा की स्थिति का उचित मूल्यांकन जरूरी हो गया है क्योंकि शैक्षिक विकास जनता में उत्पन्न अपेक्षाओं का जवाब देना था, दोनों मात्रात्मक और गुणात्मक शिक्षा इस देश में प्रचलित स्कूल प्रणाली पर निर्भर करती है। क्योंकि स्कूल ऐसी संस्था हैं जो बच्चों के जीवन के निर्माण काल में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
शिक्षा को ज्ञान का समुद्र कहा जाता है जो विषय की विभिन्न धाराओं को वहन करती है जो हमारे राष्ट्र को मजबूत करने के लिए समुद्र में एक साथ विलीन हो जाती है। शिक्षा की अवधारणा अभी भी मूल्यांकन की प्रक्रिया में है और यह प्रक्रिया शाश्वत है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को आकार देने के लिए शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। यह भौतिक और मानव विकास का प्रबल स्रोत है। विशेष रूप से माध्यमिक शिक्षा जीवन के लिए एक अनिवार्य पासपोर्ट है जिस पर आगे की शिक्षा और जीवन की गुणवत्ता निर्भर करती है।
हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था ज्ञानार्जन पर नहीं, प्रतियोगिता पर आधारित है। जहाँ प्रतियोगिता होगी वहां ज्ञान-अर्जन हो ही नहीं हो सकता है। प्रतिस्पर्धा तो ईर्ष्या का रूप है। एक बच्चा प्रथम आ जाता है तो दूसरे बच्चे से कहते हैं देखो तुम पीछे रह गए और वह तुमसे आगे निकल गया। आखिर हम-आप क्या सिखा रहे है बच्चों को? हम अहंकार सिखा रहे है कि जो आगे है, सफल है वह बड़ा है और जो पीछे छुट गया वह छोटा है। लेकिन किताबों में लिख रहे हैं कि ज्ञान-अर्जित करो; और हमारी पूरी व्यवस्था सिखा रही है प्रथम आओ और आगे निकलो। और हमारी पूरी व्यवस्था उनको पुरस्कृत कर रही है जो आगे निकल गए। जो आगे निकल गये उनको गोल्ड मैडल दे रही है, उनको सर्टिफिकेट दे रही है और अप्रत्यक्ष रूप से जो उनको अपमानित कर रही है जो पीछे खड़े हैं।
बच्चों को सांचों में नहीं ढाला जा सकता। बच्चे मशीन नहीं है। मारुति-होंडा की कारें एक जैसी हो सकती हैं, लाखों कारें एक जैसी हो सकती है, लेकिन हर बच्चा एक जैसा नहीं हो सकता है। दुर्भाग्य होगा उस दिन जिस दिन हम एक जैसे बच्चे ढालने में समर्थ हो जायेंगे। लेकिन हमारी कोशिश यही है कि एक जैसे ढाल हम ढाल दें। सब बच्चे एक जैसे हो जायें।
पाठशाला में जाकर बच्चे सदाचरण सीखेंगे, ऐसी आशा करना व्यर्थ है। बच्चा जिस क्षण जन्म लेता है, उसी क्षण से उसकी शिक्षा शुरू हो जाती है और उसी समय से उसे शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक या धार्मिक शिक्षा मिलने लगती है। यदि माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन करें, तो वे कितने ऊँचे उठ सकते हैं, इसका अनुमान लगाना भी संभव नहीं है। भारत वर्ष का आधा भविष्य माता-पिता के हाथ में है। पर आज के अभिभावक भी वही गलती दुहरा रहे है जो गलती हमारी पिछली पीढ़ी ने किया था। दूसरे बच्चों से तुलना करने की हमारी आदत जा नहीं रही है, जिसकी कितनी बड़ी कीमत इस मुल्क को चुकानी पड़ेगी यह अभी हम समझ नहीं रहे। अब तक की सारी शिक्षा महत्वकांक्षा, तुलना और दूसरे के प्रतिस्पर्धा पर खड़ी है। अगर शिक्षा की यह व्यवस्था अगले 50 वर्षों तक और चलती रही, धरती पर (विशेषकर भारत) पागलों की पूरी फौज खड़ी हो जायेगी।