नीलू के पिता जनसांख्यिकी विभाग में क्लर्क थे। इधर डाकखाने के पास ही एक स्लम बस्ती थी। जब भी नीलू अपने घर से उस डाकखाने के पास से गुजरती तो उसकी नाक दुर्गंध से भर जाती। नीलू को आश्चर्य होता कि इतनी गँदी बस्ती में लोग आखिरकार कैसे रहते हैं। उसी बस्ती में नीतेश नाम का एक लड़का नीलू के स्कूल में पढता था। उस स्कूल में उस बस्ती के और भी बहुत सारे बच्चे पढ़ते थे। नीलू की दोस्ती उन बच्चों से बहुत अच्छे से हो गई थी। उसकी प्रिय सखियों में से कल्पना, रेखा, रिंकल, माधवी, मन्नू थे। वहीं नीलू के और बहुत से लड़के भी दोस्ती हो गयी थी । जिनके नाम राघवेंद्र, रणधीर, विक्की, मीलू , विनोद और जीतू थे। नीलू के पिता चूकि जनसांख्यिकीय विभाग में थे। इसलिए उनके पास एक सर्वे का काम आया था। कि वे अपने एरिया से गरीब बच्चों के हित में सरकार कौन – कौन से काम कर सकती है। उन लोगों की सूची बनाकर अपने ऑफिस में रिपोर्ट करें। उसके पिता को प्राय: अपने कार्यालय के कामों से ही फुर्सत नहीं मिल पाती थी। तो वे भला सर्वे का काम कैसे करते। फिर भी उनको तो वो काम करना ही था। एक दिन वो उस बस्ती में गये। और उन्होंने दो तीन दिन तक लगातार सर्वे करके वो लिस्ट आखिरकार बना ही ली। जब वे घर आये तो उन्होनें उस बस्ती के लोगों की आर्थिक स्थिति के बारे में नीलू और उसकी माँ को बताया।
नीलू के पिता कह रहें थे की उस बस्ती में बहुत गरीबी है। और कई लोग उस बस्ती में बहुत गरीब और कुपोषित भी हैं। उसी समय डाकिया चाचा जिनका नाम मनोहर चाचा भी था। और नीलू भी उनको कभी डाकिया चाचा तो कभी मनोहर चाचा कहकर पुकारती थी। वो , पिताजी की कोई डाक लेकर आये हुए थे। उन्होंने पिताजी को कई सरकारी डाक दिये। और चले गये। जाते समय डाकिया चाचा भी बहुत अफसोस के साथ ये बता गये कि सचमुच में उन बस्ती के लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब है। इनके लिए कोई कुछ करता भी तो नहीं। उस दिन ये बात आई गई हो गई। उस रात नीलू को अपने दोस्तों की बहुत याद आ रही थी। ये वही दोस्त थे जो उसके साथ उसके विधालय में पढ़ते थे। नीलू को अपने पिताजी और डाकिया चाचा की कही बातें बार – बार याद आ रही थी। अभी-अभी तो रक्षाबंधन का त्योहार आने वाला था। नीलू को उस स्कूल आये में तीन- चार साल का समय हो गया था। इस कारण उसकी बहुत से लोगों से दोस्ती हो गयी थी। नीतेश भी उसके प्रिय मित्रों में से एक था। नीतेश बहुत ही गरीब लड़का था। उसके माता पिता नहीं थे। वो उसी बस्ती में रहता था। और नीलू की कक्षा में ही पढ़ता था। उसके पास पहनने के लिये कोई ढँग का यूनिफॉर्म भी नहीं था। नीलू जब से स्कूल में आई थी। उसको एक ही यूनिफॉर्म में स्कूल आते जाते देखती थी। नीतेश की यूनिफॉर्म जगह जगह से चीकट होकर फटने लगी थी। नीलू को नीतेश से बहुत ही सहानुभूति थी। लेकिन नीतेश बहुत ही स्वाभिमानी किस्म का लड़का था। वो पढ़ने में भी बहुत ही मेघावी छात्र था। नीलू उसे अपने छोटे भाई की तरह ही मानती थी। नीलू बार – बार नीतेश के बारे में ही सोचती रहती थी। वह सोचती नीतेश इस रक्षाबंधन में भला कौन सा कपड़ा पहनेगा। उसकी यूनिफॉर्म भी तो फट गई है।
रात भर नीलू उस बस्ती के लोगों के बारे में ही सोचती रही। लेकिन बस्ती के लोग रक्षाबंधन जैसा त्योहार कैसे खुशी – खुशी से मनायेंगे। इसको लेकर ही नीलू बहुत चिंतित थी। नीलू को रोज पाॅकेट मनी के रूप में दस- बीस रूपये मिलते थे। वो रोज उन रूपयों को गुल्लक में जमा करती जाती थी। इस तरह उसने दो तीन साल में आठ से नौ हजार रूपये जोड़ लिए थे। रात भर में ही उसने बस्ती के लोगों और राखी के त्योहार को उन बस्ती वालों के लिए एक यादगार रक्षाबंधन कि तरह कैसे मनाया जाये इसकी तरकीब सोच ली। अगले दिन रविवार था। संयोग से उस दिन डाकिया चाचा भी नीलू के घर आये थे। शायद उनको नीलू के पिताजी से कुछ जरूरी काम था। उसने अपनी तरकीब अपने पिताजी को बताई। उसने अपने पिताजी से कहा पिताजी क्यों ना हम गरीब बस्ती वालों की मदद इस रक्षाबंधन पर करें। और उनके रक्षाबंधन को एक यादगार रक्षाबंधन बनायें। नीलू के पिताजी और डाकिया चाचा आश्चर्य से नीलू की बातें सुन रहे थे। डाकिया चाचा मुझे एक तरकीब सूझी है। क्यों ना हम एक डब्बे में एक राखी , कपूर की गोली , अक्षत , रोली , और पाँच छ: मिठाईयों के अलग- अलग पैकेट बना दें। और उनको बाँट दें। कुछ जरूरत मँदों के लिये जिनके पास पहनने के लिये ठीक ढँग कपड़े भी नहीं हैं। उनको कुछ कपड़े या स्कूल का यूनिफॉर्म भी दे दें। जिनसे उनकी मदद हो सके।
लेकिन भला वो हमारे दिये पैकेट क्यों लेंगें। तुम्हें नहीं पता है कि नीतेश और उसके साथी कितने स्वाभिमानी किस्म के लोग हैं। नीलू ने एक बार अपने जन्मदिन पर अपने दोस्तों को अपने घर खाने के पर बुलाया था। तभी उसके पिता को नीतेश और उसके दोस्तों की बातों से लगा था कि वे लोग रहते जरूर गरीब बस्ती में हैं। लेकिन वे लोग हैं बहुत ही स्वाभिमानी। मुझे लगता है बेटी कि तुम्हारे दोस्त बहुत ही स्वाभिमानी किस्म के लोग हैंl ऐसे लोगों ये पैकेट नहीं लेंगे। और फिर बजट की भी तो बात भी है। इतने लोगों के लिये मिठाई और कपड़ा और राखी का बजट दस-बीस हजार से कम में नहीं होगा। इतने पैसे तो मेरे पास नहीं हैं। छोडो बेटी रहने दो। फिर कभी देखेंगे। उस दिन बात आई गई हो गई।
अभी राखी में सप्ताह भर का समय था। इधर नीलू ने अपनी माँ से आँख मिलाया और कुछ साँकेतिक भाषख में दोनों ने बात की। फिर माँ -बेटी दोनों मुस्कुरा पडीं । राखी से दो दिन पहले। नीलू और उसकी माँ ने राखी और मिठाईयों को पैक करने का डब्बा घर में लाकर रख दिया था। शाम को जब नीलू के पिता दफ्तर से आये तो माँ बेटी को तैयारी करते देखा। उन्होंने नीलू से पूछा बेटी इतने पैसे तुम्हारे पास आखिर कहाँ से आ गये। जो तुम इतनी सारी मिठाईयाँ , कपड़े , राखी खरीदकर लायी हो। नीलू मुस्कुराते हुए बोली। आप जो मुझे पैकेट मनी के तौर पर दस – बीस रूपये रोज देते थे। ये वही पैसे हैं। ये पैसे मैनें दो तीन सालों से अपने गुल्लक में जमा करके रखे थे। जिनसे मैनें ये कपड़े , मिठाईयाँ और राखियाँ खरीदीं है। पिताजी नीलू की समझदारी और मदद करने की उसकी भावना से बहुत ही प्रभावित हुए। वे भी नीलू और उसकी मम्मी के साथ राखी , मिठाई , और कपड़ों को डब्बे में पैक करने लगे। तभी डाकिया चाचा भी नीलू के घर उसके पिताजी से मिलने चले आये थे। वे भी पैकेट को पैक करके सहेजने में नीलू और उसके परिवार का साथ देने लगे। लगभग एक घँटे के बाद लगभग सारे पैकेट्स तैयार हो गये। अब डाकिया चाचा ने नीलू से पूछा अब बताओ बेटी पैकेट्स तो तैयार हो गये। लेकिन इन पैकेट्स को कौन लेकर बस्ती में पहुँचायेगा। नीलू ने तपाक से कहा कि आप ही पहुँचायेंगे ये पैकेट्स और कौन पहुँचायेगा। लेकिन रक्षाबंधन तो रविवार को है। और उस दिन तो मेरी छुट्टी रहती है। नीलू के पास इसका भी जबाब था। डाकिया चाचा आप इन पैकेट्स को अपने घर पर ले जाकर शनिवार को ही रख लीजियेगा। और रविवार को बाँट दीजियेगा। लेकिन मैं तो सरकारी काम करता हूँ। वे लोग पूछेंगे तो मैं उसका क्या जबाब दूँगा। कह दीजियेगा कि डाक से आये हैं।
लेकिन डाक वाले डिब्बे पर तो डाक टिकट होते हैं । तुम्हारे डिब्बों पर तो टिकट भी नहीं हैं। वे पूछेंगे तो मैं क्या जबाब दूँगा। नीलू के पास इसका जबाब भी था। नीलू को उसके पिताजी बच्चों की ज्ञानवर्धक और तकनीक से जुड़ी पठनीय अखबार और पत्रिकाएँ मँगवाकर डाक से देते थे। ये अखबार पाक्षिक होते थें और बाल पत्रिकाएँ मासिक होतीं थीं। उसमें से बहुत से टिकट को नीलू ने दराज में जमा करके रखा हुआ था। उसने उन टिकटों को उन पैकेट्स पर बारी – बारी से चिपका दिया था। जिनसे कि वो सचमुच में डाक से ही आये दिखें। और ऐसा उसके दोस्तों को भी लगे। फिर नीलू ने बारी- बारी से सभी पैकेट्स पर अपने दोस्तों के नाम लिख दिये । जिस दिन रक्षाबंधन था , उस दिन रविवार था। इसलिए उस दिन सरकारी कामकाज का कोई हर्ज नहीं था। इसलिए डाकिया चाचा भी खुशी – खुशी वो पैकेट्स बाँटने को राजी हो गये। नीलू को ऐसा करके उस दिन बड़ा मजा आया। उसको उस दिन बहुत संतुष्टि मिली।