कैंब्रिज यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन ने स्थापित किया है कि कृत्रिम मेधा (ए आई)आधारित मशीनीकृत आवाजों के साथ नियमित संचार बच्चों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह दूसरों के लिए भावनाओं को महसूस करने, करुणामय होने की उनकी क्षमता को बाधित करता है और उनके महत्वपूर्ण सोच कौशल को भी सीमित करता है। एलेक्सा की प्रतिक्रियाएं इसमें खिलाए गए लाखों साउंड कट करने का संग्रह हैं। वे नैतिकता, तत्काल सेटिंग की आवश्यकता, एक-दूसरे की चिंता और माता-पिता या सहकर्मी संस्कृति के दृष्टिकोण के आधार पर मानव मन के विचार से बाहर नहीं आते हैं। गैजेट कभी किसी बच्चे से नहीं कह सकता, आपको क्या लगता है? क्या आपको इन मनोरंजक वीडियो को देखने में इतना समय देना चाहिए? यहीं पर माता-पिता को यह समझने की जरूरत है कि मोबाइल का उपयोग केवल सीखने की गतिविधि को आसान और तेज बनाता है। मोबाइल किसी बौद्धिक आदत या क्षमता का विकास नहीं करता है। बचपन दुनिया और मानवीय उपलब्धियों से विस्मित होकर रुचि विकसित करने का समय है।
मोबाइल के चलन से बच्चों की मासूमियत खत्म होती जा रही है। आज ज्यादातर बच्चे परंपरागत खेलों के बजाय इंटरनेट के जरिये मोबाइल पर गेम्स पर समय बिताते हैं। बचपन एक कमरे तक सिमट कर रह गया है। उनके खेल व मनोरंजन के तरीके बदल गए हैं। बच्चे पहले लुका-छिपी, खो खो, गिल्ली-डंडा, रस्सी कूद, क्रिकेट, फुटबॉल, बालीबाल पतंग उड़ानें जैसे पारंपरिक खेलों से अपना मन बहलाते थे, वहीं अब बच्चे इन खेलों से दूर हो गए हैं। शारीरिक व्यायाम वाले इन सब खेलों की जगह अब पूरी तरह से मोबाइल गेम ने ले ली है। ऐसा लगता है अब मोबाइल ही उनकी जिंदगी का अहम् हिस्सा बन गए है यहाँ तक कि माता-पिता भी बच्चों के हाथों में मोबाइल थमा देते है ताकि व अपने अन्य काम आसानी से कर सके। आज के बच्चे मोबाइल की दुनिया में कैद हैं।
एशियन जर्नल ऑफ मेडिसिन साइंस की एक हालिया रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। देश में 2 से 5 साल के एज ग्रुप के बच्चे रोजाना करीब 4 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं। जबकि 5 से 10 साल की उम्र के बच्चे 5 घंटे से ज्यादा और 10 से 18 वर्ष के बच्चे 6 घंटे से अधिक समय स्क्रीन पर बिताते हें। यह बच्चों के स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन बच्चों का स्क्रीन टाइम ज्यादा है उनमें से 41 फीसदी बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई है स्वास्थ्य की बात करें तो ज्यादा स्क्रीन टाइम बिताने वाले करीब 30 फीसदी बच्चे ओबेसिटी के शिकार हो रहे हैं। जबकि करीब 25 फीसदी बच्चे अंडरवेट और करीब 14 फीसदी बच्चे ओवरवेट के शिकार हो रहे है।
आज बड़ों के साथ-साथ बच्चों में भी जबरदस्त स्मार्टफोन इस्तेमाल करने की लत देखने को मिल रही है। एक मीडिया खबर के अनुसार लगभग 23.80 प्रतिशत बच्चे सोने से पहले बिस्तर पर स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं। लगभग 37.15 प्रतिशत बच्चे स्मार्टफोन के उपयोग के कारण एकाग्रता के स्तर में कमी का अनुभव करते हैं। साथ ही अधिक स्मार्टफोन यूज करने के कारण मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आजकल मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल बच्चों को इंटरनेट एडिक्शन की तरफ ले जा रहा है। इस तरह के एडिक्शन से मानसिक बीमारियां पैदा होती है और ऐसे में बच्चे कोई न कोई गलत कदम उठा लेते हैं। आजकल के बच्चे इंटरनेट लवर हो गए हैं।
एक ताजा सर्वे में भारतीयों ने माना कि मोबाइल फोन के ज्यादा इस्तेमाल से उनकी नींद पर बुरा असर पड़ रहा है। पिछले पांच सालों में दो लाख लोगों ने अपनी सोने की आदतों के बारे में बताया। इस साल 30,000 लोगों ने इस बारे में बताया। ग्रेट इंडियन स्लीप स्कोरकार्ड 2022 सर्वे मार्च 2021 से फरवरी 2022 के बीच किया गया था।
इस सर्वे के अनुसार हर चार में से एक भारतीय को लगता है कि उसे नींद न आने को बीमारी हो चुकी है। भारत के 59 प्रतिशत लोग रात 11 बजे के बाद सोने के लिए जाते हैं। सोशल मीडिया इसकी एक बड़ी वजह है। ३6 प्रतिशत लोगों का मानना है कि डिजिटल मीडिया की वजह से उनकी नींद पर असर पड़ा है। 88 प्रतिशत लोग सोने से ठीक पहले फोन जरूर चेक करते हैं। हालांकि पिछले वर्ष के सर्वे में 92 प्रतिशत लोग ऐसा कर रहे थे।
हर चार में से एक भारतीय को लगता है कि उसे इंसोमनिया यानी नींद न आने की बीमारी हो चुकी है। 31 प्रतिशत महिलाओं और 23 प्रतिशत पुरुषों को लगता है कि उनकी नींद गायब हो चुकी है। 38 प्रतिशत महिलाओं और 31 प्रतिशत पुरुषों को लगता है कि सोशल मीडिया की वजह से वे देर तक जागते रहते हैं। 18 वर्ष से कम के 50 प्रतिशत किशोरों को भी यह लगता है कि उन्हें इंसोमनिया हो चुका है। हाइब्रिड वर्क कल्चर, यानी वर्क फ्रॉम होम के आने के बाद से अब लोगों को काम के दौरान सोया-सोया रहने की या महसूस करने की लत घट गयी है। 2020 के सर्वे में जहां 83 प्रतिशत लोगों को काम के दौरान नींद आती थी, वह अब 2022 में घट कर 48 प्रतिशत रह गया है।
कड़वा सच है कि हम सभी मोबाइल फोन के इतने आदी हो गये हैं कि अपने फोन के बिना एक घंटा भी नहीं बिता सकते। यह हमें मानसिक रूप से कमजोर बना रहा है। दिन भर लोग स्मार्टफोन पर स्क्रॉल करते रहते हैं। मोबाइल फोन की लत के कारण आपको मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, टूटे हुए रिश्तों और पारिवारिक परेशानी का सामना करना पड़ता है। यह हमारी सोच और रचनात्मक क्षमता को कम करता है। मोबाइल फोन या स्मार्टफोन का आविष्कार चीजों को सुलभ बनाने और संचार को बेहतर बनाने के लिए किया गया था, जबकि यह कई मानसिक समस्याओं का कारण बन रहा है।
मनोविज्ञान के अनुसार मोबाइल फोन की लत के लक्षण कुछ इस तरह होते हैं – आप बिना किसी कारण के अपना फोन चैक करते रहें, जब फोन पास न हो तो परेशान हो जायें, आधी रात को उठ कर अपने स्मार्टफोन की जांच करना, फोन पर बहुत अधिक समय बिताने के कारण पढ़ाई या काम पर ध्यान केंद्रित करने में असमर्थ होना, स्मार्टफोन एप्लिकेशन या ईमेल अलर्ट द्वारा आसानी से विचलित होना, आप सुबह उठते ही अपने स्मार्टफोन के साथ बैठ जाते हैं और रात को सोते समय अपना फोन अपने पास रख कर सोते हैं। यदि आप फोन का उपयोग तब तक करते हैं, जब तक उसकी बैटरी एक प्रतिशत भी नहीं रहती और फिर आप चार्जर की खोज करना शुरू करते हैं, तो समझ लें आपको मोबाइल फोन की लत लग गयी है।
एक रिसर्च के मुताबिक, एक यूजर दिन में 25 से 100 बार सोशल मीडिया देखने के लिए अपना फोन चैक करता है। अगर आप मोबाइल फोन को लत को दूर करना चाहते हैं, तो फोन से कुछ गैर-जरूरी एप्स को हटा दें। आजकल यह आम हो गया है कि आप खाना खा रहे हैं या बाथरूम में या किसी पार्टी में गये हैं, आपका फोन निश्चित रूप से आपके साथ रहेगा और आप अधिक से अधिक समय इसे देखने में बितायेंगे।
ऐसे में आप अपना कोई भी काम ढंग से नहीं कर पा सकेंगे। इसलिए फोन को हमेशा हर जगह अपने साथ रखने की इस आदत को बदल दें। इस लत से खुद को दूर करने के लिए अलार्म घड़ी का उपयोग करें और कलाई घड़ी से समय देखने की आदत डालें और दोस्तों के जन्मदिन याद करने के लिए आप डायरी की मदद भी ले सकते हैं। दोस्तों के साथ समय बितायें।
मनोवैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि मोबाइल में इंटरनेट चलाने की यह लत ड्रग्स या शराब की लत जितनी ही खतरनाक और हानिकारक है। शोध के अनुसार इंटरनेट की बुरी लत आपके मस्तिष्क और प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर देती है, जिस कारण आपकी रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो सकती है। ऐसे में आप समझ लें कि मोबाइल की लत से बचना कितना जरूरी है।
इनका बचपन रचनात्मक कार्यों की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है। पिछले कई सालों में सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरक्की की है, इसने मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है बल्कि एक तरह से इसने जीवनशैली को ही बदल डाला हे। बच्चे और युवा एक पल भी स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते। इनमें हर समय एक तरह का नशा सा सवार रहता हे। वैज्ञानिक भाषा में इसे इंटरनेट एडिक्शन डिसऑर्डर कहा गया है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने जून 2018 में ऑनलाइन गेमिंग को एक मानसिक स्वास्थ्य बीमारी घोषित किया था।
अपने बच्चों को मोबाइल और कंप्यूटर पर गेम खेलते अनेक माता-पिता बहुत खुश होते हैं। वे दूसरों को बड़े गर्व के साथ यह बताते तनिक भी नहीं हिचकते की उनका बेटा डिजिटल दुनिया के नए जमाने के साथ दौड़ रहा है। वे बड़े खुशी से बताते हैं कि वह मोबाइल पर फोटो निकाल लेता है। मैसेज भेज देता है। व्हाट्सएप पर बात कर लेता है और फोटो, वीडियो शेयर कर लेता है। यहाँ तक की गूगल पर कुछ भी खोज लेता है। लेकिन शायद वह इस बात से अनजान है कि जिसे वह बच्चे की स्मार्टनेस समझ रहे हैं वह उसके विकास में बाधा भी बन सकता है। विशेषज्ञ मानते है कि इलेक्ट्रॉनिक गैजेट और कंप्यूटर का अत्यधिक प्रयोग बच्चों के लिए अच्छा नहीं है। इससे उनमें संवादहीनता और चिड़चिड़ेपन की प्रवृत्ति बढ़ती है।
पेरेंट्स को बच्चों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। कोरोना काल में 3-4 साल की उम्र में भी बच्चों में एग्रेशन देखने को मिल रहा है ऐसे में यह पेरेंट्स की जिम्मेदारी है कि बच्चों का अधिक ध्यान रखे। बच्चों के सामने खुद ज्यादा मोबाइल न चलाएं, बच्चों को अपना समय जरूर दें, उनसे बात करें, बच्चों के मन में क्या चल रहा है जानने की कोशिश करें।
मौजूदा दौर में बच्चों में खेलकूद का स्थान इंटरनेट ने ले लिया है। इसका सीधा प्रभाव बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ा है। शहरों के साथ अब गांवों में भी मोबाइल की पहुँच होने से बच्चों में इंटरनेट की लत बढ़ गई है। इससे उनमें संवादहीनता का खतरा बढ़ रहा है। बच्चे के ऐसे व्यवहार को अनदेखा करने की जगह इस पर सजग और सावधान होने की जरूरत हे। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इससे बच्चों का स्वाभाविक विकास बुरा प्रभाव पड़ता हे।
एक अभिभावक का कहना हे उसका बेटा स्कूल से आते ही कंप्यूटर पर बैठ जाता है, कई आवाज लगाने पर भी हिलता तक नहीं। बाहर घूमने की जगह उनका बेटा कंप्यूटर पर व्यस्त रहता है, लेकिन अब उसके व्यवहार पर चिंता होने लगी है। वह किसी से बात करना तक पसंद नहीं करता, ज्यादा कुछ बोलो तो चिढ़ जाता है या चिल्ला कर जवाब देता है। एक अन्य अभिभावक अपनी बेटी के व्यवहार से चिंतित है। वह कहते हैं कि अभी आठवीं कक्षा में ही है, लेकिन उसके अंदर इस उम्र के बच्चों सी चपलता और चंचलता नहीं हे। काफी कम बोलती है। इंटरनेट सर्फिंग में उसका खाली समय बीतता है।
देश में इंटरनेट के तेजी से बढ़ते इस्तेमाल में बचपन खोता जा रहा है जिसकी परवाह न सरकार को है और न ही समाज इससे चिंतित है। ऐसा लगता हे जैसे गैर जरूरी मुद्दे हम पर हावी होते जा रहे है ओर वास्तविक समस्याओं से हम अपना मुंह मोड़ रहे है। यदि यह यूँ ही चलता रहा तो हम बचपन को बर्बादी की कगार पर पहुंचा देंगे। देश के साथ यह एक बड़ी नाइंसाफी होगी जिसकी कल्पना भी हमें नहीं है। जब से इंटरनेट हमारे जीवन में आया है तब से बच्चे से बुजुर्ग तक आभासी दुनिया में खो गए है। हम यहाँ बचपन की बात करना चाहते है। देखा जाता है पांच साल का बच्चा भी आँख खोलते ही मोबाइल पर लपकता है। पहले बड़े इसे अपने काम के लिए करते थे। अब बच्चे भी इंटरनेट के शौकीन होते जा रहे हैं। बाजार ने उनके लिए भी इंटरनेट पर इतना कुछ दे दिया है कि वह पढ़ने के अलावा बहुत कुछ इंटरनेट पर करते रहे हैं। पेरेंट्स को बच्चों की ऐसी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए और समय रहते उनकी ऐसी आदत को पॉजिटिव तरीके से दूर करना चाहिए।
अगर आप डिजिटल दुनिया में डूबे रहेंगे तो कहीं ना कहीं आप समाज से कट जाएंगे, संचार जो कि हमारे जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है खत्म होने लगता है। जब हम किसी से संचार करते हैं तो उस वक़्त हम अपने विचार सामने वाले को पहुंचाते हैं एवं उसके विचार भी हमारे मस्तिष्क में आते हैं। अगर हम लगातार डिजिटल मीडिया से जुड़े रहते हैं, ऑनलाइन गेम खेलते हैं, सोशल मीडिया का अतिरिक्त प्रयोग करते हैं तो समाज की मुख्यधारा से कट जाते हैं एवं हमारी संवाद करने की कुशलता और विचार शक्ति भी कम हो जाती है।