दिसंबर का महीना और 16 तारीख जैसे ही कैलेंडर में हर बरस आती है वैसे ही दरिंदगी और हैवानियत की वह घटना अतीत के झरोखे से निकल कर सामने आ जाती है। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में घटित निर्भया कांड को अब 10 वर्ष पूर्ण हो चुके है। इन दस वर्षों की यात्रा में महिला सुरक्षा के नाम पर नैतिक और कानूनी तौर पर बातें तो बहुत हुई मगर समाज में महिलाओं की स्थिति में खासा परिवर्तन नहीं आया। एक समय जहां देश भर में सड़कों पर गुस्सा था तो वहीं महिला अपराधों को लेकर कानून में संशोधन के साथ निर्भया फंड बनाने जैसे कार्य किये गए। इन नीतियों के फलस्वरूप समाज का नैतिक पक्ष प्रबल और कानूनी के चाबुक से अपराधियों के हौसले पस्त होना चाहिए थे, मगर अपराध के वर्तमान आंकड़े समाज की बदतर स्थिति को बयां कर रहे है। आज भी सुर्खियों में इसी तरह की घटनाएं होती है अंतर बस यह है कि भारतीय समाज के लिए यह खबरें अब आम हो गई है।
महिला अपराधों को रोकने की कानूनी पहल
जस्टिस जेएस वर्मा समिति की अनुशंसा पर एंटी रेप बिल का निर्माण कर मंजूरी दे दी गई। साथ ही निर्भया कोष की स्थापना भी गई है। वर्ष 2019 में पॉक्सो कानून में संशोधन कर 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के यौन शोषण पर सजा-ए-मौत के प्रावधान को मंजूर कर दिया गया। कानून का निर्माण और संशोधन यह वे वैधानिक प्रयास थे जिनका लक्ष्य अपराधियों को कठोर दंड के भय से अपराध करने से रोकना और अपराध करने पर दंडित करना था। अब प्रश्न उठता है कि वर्ष 2012 की घटना के बाद से आज तक के महिला अपराध के आंकड़ों ने इस लक्ष्य को पूरा करने में सार्थक भूमिका निभाई है?
यह सवाल इसलिए भी है क्योंकि निर्भया मामलेे के बाद महिला अपराध के आंकड़ें बेहद दुखी करने वाले है। केंद्र सरकार ने संसद के मानसून सत्र में वर्ष 2015 से 2019 के बीच देश में बलात्कार के 1.71 लाख मामले दर्ज होने की जानकारी दी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में वर्ष 2019 में हर दिन बलात्कार के 88 मामले दर्ज किए गए। वर्ष 2019 में देश में बलात्कार के कुल 32,033 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2010 से 2019 के बीच पूरे भारत में कुल 3,13,289 बलात्कार की घटनाएँ दर्ज की गई। पिछले 10 वर्षों में बलात्कार का खतरा 44 फीसदी तक बढ़ गया है। 2019 में ही आधे से अधिक मामले पाँच राज्य राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल के थे। यह वे मामले है जो पुलिस थानों में दर्ज हुए है। सामाजिक प्रतिष्ठा या अन्य कारणों के डर से जो अपराध रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं है वह तो अलग ही है। वर्ष 2021 में बलात्कार के मामलों में 13.2 फीसदी वृद्धि हुई है। देश में हर दिन 87 रेप की घटनाएं हो रही है।
हमारी यही धारणा है कि अपराध को रोकने में सख्त कानून प्रभावी भूमिका निभाएंगे। इसी क्रम में एंटी रेप बिल के निर्माण साथ पॉक्सो कानून में संशोधन भी किया गया किन्तु धरातल की वास्तविकता अपराध की स्थिति से साक्षात्कार करवाने हेतु पर्याप्त है। ऐसे में अब इन प्रश्नों के उत्तर की खोज होनी चाहिए कि कानून में सख्त सजा के प्रावधान, शीघ्र न्याय के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना, निर्भया कोष में प्रतिवर्ष धनराशि के आवंटन के बाद भी हालात बद से बदतर क्यों होते जा रहे है?
जब भी बलात्कार की किसी घटना पर बात होगी निर्भया कांड का उल्लेख जरूर किया जायेगा। एक ऐसी घटना जिसके पश्चात् देश में महिला अपराध की रोकथाम में बहस छिड़ी, कानून बना किंतु उस घटना के आरोपियों को सजा देने में आठ वर्ष का समय लग गया। न्याय में विलम्ब का होना भी फरियादी के साथ अन्याय ही है। जब सर्वाधिक सुर्ख़ियों वाले मामले में न्याय की प्रक्रिया इतनी सुस्त है तो अनेक गुमनामी वाले मामलों में स्थिति का आंकलन किया जा सकता है।
नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन की जरूरत
महिला अपराधों की रोकथाम हेतु कानून का पालन और शीघ्र न्याय जितना जरूरी है उतना ही महिला अपराधों की रोकथाम के लिए बनाई नीतियों का प्रभावी क्रियान्वयन भी आवश्यक है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत किये गए आँकड़ों के अनुसार, भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने निर्भया फंड के तहत आवंटित कुल बजट के 20 प्रतिशत से भी कम हिस्से का उपयोग किया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 से 2018 के बीच केंद्र सरकार द्वारा निर्भया फंड के अंतर्गत महिलाओं की सुरक्षा के लिये कुल 854.66 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की गई थी। जिसमें से मात्र 165.48 करोड़ रुपए ही राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा खर्च किये गए है। निर्भया फंड में मुख्य रूप से इमरजेंसी रिस्पॉन्स सपोर्ट सिस्टम, केंद्रीय पीड़ित मुआवजा निधि, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ साइबर अपराध रोकथाम, वन स्टॉप स्कीम, महिला पुलिस वालंटियर जैसी योजनाओं पर खर्च का प्रावधान था। लेकिन कई राज्य तो ऐसे भी है जिन्होंने इस कोष में से एक भी रुपया इन योजनाओं पर खर्च करना जरूरी ही नहीं समझा, इन राज्यों में महाराष्ट्र, मणिपुर और केंद्र शासित राज्य लक्षद्वीप के नाम आते हैं। अब ऐसे में इस फंड का औचित्य ही क्या रह गया?
लंबित मामलों का बोझ
वर्तमान में भारत की निचली अदालतों में लगभग 2,91,63,220 मामले लंबित हैं। न्यायाधीशों की उच्च रिक्तियों तथा आबादी की तुलना में न्यायाधीशों की कम संख्या वाले राज्यों जैसे- उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार में लंबित मामलों की संख्या सबसे अधिक है।
इनमें सिविल मामले की संख्या 84,57,325 तथा क्रिमिनल मामले मामलो की संख्या 2,07,05,895 है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, तमिलनाडु, राजस्थान और केरल ऐसे राज्य हैं जहाँ लंबित मामलों की संख्या अधिक होने का मुख्य कारण न्यायाधीशों की संख्या कम होना है। उत्तर प्रदेश में प्रति न्यायाधीश लगभग 3,500 मामले लंबित हैं। इसके विपरीत पंजाब, मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम और मिज़ोरम ऐसे राज्य हैं जहां राज्यों में लंबित मामलों की संख्या कम होने का मुख्य कारण न्यायाधीशों की संख्या अधिक होना है। साथ ही दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक ऐसे राज्य हैं जहां न्यायाधीशों की संख्या अधिक होने के बावजूद लंबित मामलों की संख्या ज़्यादा है। जबकि मेघालय, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ऐसे राज्य हैं जहां न्यायाधीशों की संख्या कम होने के बावजूद लंबित मामलों की संख्या कम है।
भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश भी न्यायालय से संबंधित समस्याओं को लेकर प्रधानमंत्री को पत्र लिख चुके है जिसमें उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाकर उच्चतम न्यायाधीशों के समान 65 वर्ष करने तथा न्यायालयों में रिक्त पदों को शीघ्र भरने का अनुरोध किया गया था। ज्ञात हो कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर भी इस तरह के सुधारों को लेकर चिंता व्यक्त कर चुके हैं।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार, उच्चतम न्यायालय में 58,700 तथा उच्च न्यायालयों में करीब 44 लाख और ज़िला अदालतों तथा निचली अदालतों में लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इन कुल लंबित मामलों में से 80 प्रतिशत से अधिक मामले ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में हैं। इसका मुख्य कारण भारत में न्यायालयों की कमी, न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों का कम होना तथा पदों की रिक्त्तता का होना है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश हैं। विधि आयोग की एक रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या तकरीबन 50 होनी चाहिये। इस स्थिति तक पहुँचने के लिये पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी।
न्याय में देरी तथा विचाराधीन कैदियों की समस्या
भारत की जेलों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी बंद है, जिनके मामले में अब तक निर्णय नहीं दिया जा सका है। कई बार ऐसी स्थिति भी आती है जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय कैद में बिता देते है। साथ ही इतने वर्ष जेल में रहने के पश्चात् उसे न्यायालय से आरोप मुक्त कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति न्याय की दृष्टि से अन्याय को जन्म देती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के जेल आंकड़े-2016 के अनुसार देश की 1,400 जेलों में बंद 4.33 लाख कैदियों में से 67 प्रतिशत कैदी विचाराधीन थे। इसके अलावा 1,942 बच्चे ऐसे थे जो अपनी माताओं के साथ जेल में रह रहे थे। 31 दिसंबर, 2016 तक कुल 4,33,003 कैदी जेल में बंद थे। इन कैदियों में से 1,35,683 कैदी दोषी, 2,93,058 कैदी विचाराधीन और 3,089 निरुद्ध किए गए थे। जेल में बंद विचाराधीन और दोषी कैदियों की संख्या के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है।
न्यायपालिका में रिक्त पद
देश में 10 लाख की जनसंख्या पर 50 न्यायाधीशों की आवश्यकता है, किंतु वर्तमान में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 18 न्यायाधीश ही है। ऐसे में किसी भी न्यायपालिका से समय पर न्याय देने की उम्मीद करना उचित नहीं हो सकता है। विधि आयोग की सिफारिश के अनुसार इन पदों की संख्या में वृद्धि किये जाने की आवश्यकता है। वर्तमान न्यायपालिका एकमात्र ऐसा सार्वजनिक संस्थान है जिसमें शीतकालीन एवं ग्रीष्मकालीन अवकाश की व्यवस्था है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा इस संदर्भ में अपनी चिंता व्यक्त कर चुके हैं कि न्यायपालिका को अपने कार्यभार को कम करने लिये 365 दिन खोला जाना चाहिये। न्यायालयों के कार्य दिवसों में वृद्धि एवं अवकाशों में कमी वर्तमान परिस्थितियों में एक प्रगतिशील कदम हो सकता है। अमेरिका के पेंसिलवेनिया में रात्रि तक न्यायालय खुले रहते हैं। न्यायपालिकाओं में रिक्त पद भी चिंता का विषय है। आंकड़ों के अनुसार बात की जाए तो वर्तमान में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ न्यायालयों में जजों के तकरीबन 4,655 पद रिक्त हैं। एक तरफ अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ता चला जा रहा है, तो दूसरी ओर अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति ही नहीं की जा रही है। ऐसी स्थिति में लंबित मुकदमों के निपटारे एवं त्वरित न्याय की कल्पना कैसे की जा सकती है? मुकदमों की बढ़ती संख्या के आधार पर अनुमान है कि आगामी 10 वर्षों में देश में 10 लाख जजों की जरूरत होगी। आबादी के ताजा आंकड़ों के हिसाब से 135 करोड़ भारतीयों के लिए हमें देश में 65 हजार अधीनस्थ न्यायालयों की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में 15 हजार न्यायालय भी नहीं हैं। यदि अमेरिका की बात करें तो वहां पर 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं और ब्रिटेन में 55 न्यायालय।
घटती सजा दर बढ़ते अपराध के मामले
एक ओर न्याय व्यवस्था अपनी समस्याओं से जूझ रही है तो दूसरी ओर अपराध के स्तर में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। कुछ समय पूर्व जारी एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार बलात्कार के मामलों में देश में सजा की दर अब भी मात्र 27.2 प्रतिशत है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2018 में बलात्कार के 1,56,327 मामलों में मुकदमे की सुनवाई हुई। इनमें से 17,313 मामलों में सुनवाई पूरी हुई और सिर्फ 4,708 मामलों में दोषियों को सजा हुई। आंकड़ों के मुताबिक 11,133 मामलों में आरोपी बरी किए गए जबकि 1,472 मामलों में आरोपियों को आरोपमुक्त किया गया। किसी मामले में आरोपमुक्त तब किया जाता है जब आरोप तय नहीं किए गए हो। वहीं मामले में आरोपियों को बरी तब किया जाता है जब मुकदमे की सुनवाई पूरी हो जाती है। खास बात यह है कि 2018 में बलात्कार के 1,38,642 मामले लंबित थे। बलात्कार के मामलों में सजा की दर 2018 में पिछले साल के मुकाबले घटी है। 2017 में सजा की दर 32.2 प्रतिशत थी। उस वर्ष बलात्कार के 18,099 मामलों में मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई और इनमें से 5,822 मामलों में दोषियों को सजा हुई थी। बलात्कार के खिलाफ कानून को 2012 में निर्भया कांड के बाद सख्त किए जाने के बावजूद सजा की दर कम ही रही है। यह तथ्य इस बात की ओर इशारा करता है कि सिर्फ कानून के निर्माण से अपराध पर अंकुश नहीं लगेगा। अपराध मुक्त समाज के लिए कानून का प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है। इस राह में आ रहे तमाम गतिरोधों को दूर किये जाने के प्रयास किये जाने चाहिए।