जिस तरह जन्म एक शाश्वत सत्य है, वैसे ही मृत्यु भी! जन्म लेते ही पहली साँस के साथ हमें एक नाम मिलता है, पहचान मिलती है. और जैसे ही साँसों की ये डोर थमती है, वह पहचान खो जाती है. हमारा नाम अब किसी शव में बदलकर अपना अस्तित्व खो चुका होता है. वह शरीर जिसे सर से लेकर पाँव तक सजाने में हमने एक उम्र बिता दी, वह किसी सजावट का मोहताज नहीं होता! उसे मौसमों का फ़र्क़ नहीं पड़ता! लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति ऐसी है कि जब तक साँसें हैं, तब तक वह जीवन को बचाए रखने का संघर्ष जारी रखता है. तमाम सपने साथ लेकर जीता है. दुख यह है कि जिस अभिशप्त दौर में जी रहे हैं, वहाँ ये जीवन ही सबसे आसानी से खो जाने वाली शय है.
अब यह तथ्य तो जगजाहिर है कि कोरोना काल में गंगा में बहती हुई, या अपने अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा ढोती हुई लाशें यहाँ-वहाँ पड़ी मिल रही हैं. लेकिन बात केवल महामारी के इस दौर से ही जुड़ी नहीं है, बीते समय को खंगालकर देखें तो ऐसे सैकड़ों चेहरे सामने आ जाएंगे. क्या हमने कभी इस विषय पर विचार किया है कि आखिर हम भारतीयों की जान की कीमत क्या है?
व्यक्तिगत तौर पर हम स्वयं की कितनी परवाह करते हैं?
कहते हैं मानव जन्म हजार योनियों के बाद मिलता है. संभवतः इसलिए ही इसकी महत्ता सर्वाधिक है. यूं भी जीवन सभी को प्यारा होता है. हर कोई चाहता है कि वह शतायु हो. मनुष्य इसके लिए तरह-तरह के जतन करता है. स्वस्थ, संतुलित खानपान, ध्यान, योगाभ्यास, मल्टी-विटामिन का उपयोग, समय-समय पर अपने स्वास्थ्य की जाँच इत्यादि हमारी इसी जद्दोजहद का हिस्सा हैं. लेकिन इन्हीं के बीच में एक वर्ग ऐसा भी है जो जान हथेली पर लिए घूमता है.
*कोरोना काल में मास्क न पहनने वाले और वैक्सीन न लगवाने को लेकर कुतर्क करने वालों की भी कोई कमी नहीं! ये न केवल अपनी जान को जोखिम में डाल रहे हैं बल्कि अपने आसपास के लोगों को संक्रमित करने का भय भी उत्पन्न कर रहे हैं.
* हेलमेट न पहनने वाले इसमें सबसे ऊपर हैं. दुपहिया वाहनों की सड़क दुर्घटनाओं में अधिकांश ऐसी होती हैं कि यदि वाहन चालक ने हेलमेट पहना होता, तो उसकी मृत्यु नहीं होती! कुछ लोग गर्मी के कारण इसे न लगाने का बहाना बनाते हैं, तो किसी को अपने केश विन्यास के बिगड़ने का भय सताता है. कोई बस इसलिए नहीं लगाता कि यहीं पास में ही तो जाना है. लेकिन दुर्घटना कभी कहकर या आपके गंतव्य को देखकर नहीं होती!
* सड़कों पर सर्पाकार अंदाज़ में बाइक लहराते, तमाम कलाबाज़ियाँ दिखाते युवाओं की तस्वीरें आए दिन खबरों में दिखाई देती हैं.
* खतरनाक तरीके से सेल्फ़ी लेने के कारण अपनी जान गंवा बैठने की घटनाओं की भी कोई कमी नहीं! यहाँ जान की क़ीमत सोशल मीडिया पर मिले लाइक की संख्या के सामने बौनी आंक ली जाती है.
* प्रेम, नौकरी, व्यापार, परीक्षा में असफलता के कारण आत्महत्या करने वालों की भी बहुत बड़ी संख्या है. यहाँ रिश्ता टूटने, उम्मीद के अनुसार पैसा न कमा पाने, उधारी न चुका पाने या किसी की उम्मीदों पर खरे न उतर पाने का दुख इतना गहरा हो जाता है कि मनुष्य घनघोर निराशा और अवसाद में डूब, अपना जीवन समाप्त करने को ही समस्या का समाधान मान लेता है. वह यह भूल जाता है कि जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है. वह यह भी नहीं सोच पाता कि उसके जाने के बाद उस पर आश्रित लोगों का क्या होगा!
* इन सारे तथ्यों के अलावा आम आदमी का अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होना भी बहुधा जानलेवा साबित होता है. किसी भी बीमारी के प्रारंभिक लक्षणों को हम प्रायः गंभीरता से नहीं लेते! हम यह मानकर चलते हैं कि हमें तो कुछ हो ही नहीं सकता! कुछ ऐसे भी लोग हैं जो देसी उपाय या टोने टोटके से खुद ही इलाज़ करने लगते हैं. होश तब आता है, जब बीमारी जब पूरे शरीर में अपने पाँव पसार लेती है. लेकिन उस समय सिवाय अफ़सोस के कुछ हाथ नहीं बचता!
समाज के लिए हमारी क़ीमत क्या है?
स्कूल के दिनों में पढ़ी गई पुस्तकों ने समझाया कि समाज, ऐसे लोगों का समूह है जो मानव जाति की स्थिरता के लिए परस्पर मिल कर रहते हैं तथा सामाजिक कल्याण के उद्देश्यों की पूर्ति का समर्थन अथवा उस हेतु कार्य करते हैं. यद्यपि कोरोना काल में व्यक्तिगत तौर पर एवं कई समाजसेवी संस्थाओं के सराहनीय कार्यों को देखते हुए इस परिभाषा को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता परंतु देश-विदेश की बदलती हुई परिस्थितियों पर दृष्टि डालें तो तमाम विध्वंसकारी गतिविधियों को देखते हुए, यह परिभाषा अत्यंत खोखली ही नज़र आती है.
* कोई, किसी का उधार चुकाए बिना परलोक सिधार गया हो तो उस पैसे के डूबने के अफ़सोस में आँसू ज्यादा निकलते हैं.
* किसी प्रिय प्रसिद्ध व्यक्ति के देहावसान का दुख अवश्य होता है पर उससे निजी जीवन तनिक भी प्रभावित नहीं होता.
कुल मिलाकर समाज के लिए हमारी कीमत, एक वस्तु की तरह है; जिसकी उपयोगिता उसकी उपलब्धता और निहित स्वार्थ से तय होती है. जीते जी जिसे पलटकर भी नहीं देखते, मरने के बाद उसे अपनी आँख का तारा बनाकर पेश करना, समाज के दोगलेपन का सबसे अश्लील रूप है.
सरकार के लिए हम कितने महत्वपूर्ण हैं?
सरकार के लिए हमारी क़ीमत, एक वोट के बराबर है, जिसे कभी भी औने-पौने दामों में खरीदा जा सकता है. चाहे किसी की भी सरकार रही हो, जनता उनके लिए उपभोग किये जाने वाला जीव ही रही है. जिसकी आवश्यकता, केवल चुनाव के समय महसूस होती है. यहाँ तमाम प्रलोभनों से बरगलाकर हमारी संवेदनाओं से खेला जाता है और उसके बाद कोई सुध लेने वाला नहीं होता.
* हम संख्याओं में गिने जाते हैं. धर्म के तराजू पर तौले जाते हैं.
* सरकारें शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को दरकिनार कर, हमारी धार्मिक भावनाओं को भुना अपना उल्लू सीधा करती रहीं. इस प्रक्रिया में आप मरें या जियें, किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता! मुआवजे की घोषणा अवश्य हो जाती है, जिसे पाने में परिजनों का ये जन्म तो निकल ही जाता है.
* महामारी के इस समय में, इलाज़ के लिए भटकते उन लाखों लोगों से पूछिए कि उनको अस्पताल पहुँचाने, दवाई उपलब्ध कराने में किसका योगदान अधिक रहा?
* सरकारें चाहती रही हैं कि हम किसी गुलाम की तरह उनकी वाहवाही करते रहें लेकिन कभी, कोई प्रश्न करने का दुस्साहस न करें! उनकी नज़रों में अपनी क़ीमत का अनुमान, हमें स्वतः ही हो जाना चाहिए.
* सरकार के लिए केवल और केवल चाटुकारों की महत्ता है. हालाँकि उनकी मृत्यु से भी वह विचलित नहीं होती. शेष सभी मात्र आँकड़ा भर हैं जिसके कम हो जाने से उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस छवि चमचमाती रहे!
* जरूरत पड़ने पर, जब-जब सरकार ने देशवासियों को कहा, सबने खुलकर साथ दिया. दिल से सहायता भी करते हैं. लेकिन जब हमारी सहायता का समय आता है तो हमें तिल-तिलकर मरने को छोड़ दिया जाता है और फिर केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा, मौत का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ने का तमाशा जारी रहता है. इस सब में हम कौन से पायदान पर हैं, और नेताओं की रुचि किसमें ज्यादा है, खुद ही समझ जाइए.
* वे सरकारी नेता, जिनके दर्शन भर से आम आदमी धन्य महसूस करता है और उनके कदमों में बिछा जाता है. एक दिन वही उसे आसानी से कुचल आगे बढ़ जाते हैं.
साफ़ बात यह है कि हमें अपने-आपको स्वयं ही सुरक्षित रखना होगा क्योंकि सरकार के लिए आम आदमी की क़ीमत सदैव ही दो कौड़ी की रही है!
विडंबना यह है कि भय या मजबूरी से, हम बहुत सी चीजों के आदी होते जा रहे हैं. इसके अलावा और कोई सरल विकल्प भी नहीं नज़र आता! जान सबको प्यारी है. हमारा सारा जीवन इसे बचाने में ही बीत जाता है और फिर एक दिन किसी आपदा के चलते अनायास ही इससे भी हाथ धो बैठते हैं.
लेकिन क्या हमारी क़ीमत क्या सचमुच इतनी कम है? क्या हमें सबसे पहले इसे तय करने पर विचार नहीं करना चाहिए? आत्मरक्षा के लिए नहीं सोचना चाहिए? हम किसके लिए जी रहे हैं? हमारा उद्देश्य क्या है? सरकार और समाज हमारे साथ कब और कहाँ खड़ा हुआ है? हम अपने लिए कब जियेंगे? कब ये समझेंगे कि दूसरों का मुँह ताकने से कुछ नहीं होगा! हमारी अपनी खुशी का मोल बस हमारे ही हाथ में है! हमारी ज़िंदगी की सुरक्षा की जिम्मेदारी हमें स्वयं ही लेनी होगी क्योंकि किसी पर दोषारोपण करने से जाने वाला लौटकर नहीं आ सकता!