अनिश्चितता से भरे जीवन में दुख क्यों बांटू?
वसीयत इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि कोरोना की दूसरी लहर का क़हर थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. ये कोई डरने या डराने का प्रयोजन नहीं है. हालात सबके सामने हैं. कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब किसी के निधन का समाचार न मिलता हो. शायद ही कोई ऐसा घर होगा, जहाँ कोविड ने किसी को चपेट में न लिया हो. मेरे आसपास, परिवार, मित्र सभी की यही कहानी है. किसी का कोई अपना जूझ रहा है तो कहीं, कोई अलविदा कहे बिना चला गया. हर दिन एक आशंका में बीतता है कि वो जो अपनी साँसों के लिए लड़ रहा है, वो घर तो आ जाएगा न! उसे समय पर सही उपचार मिल जाएगा न! कहीं आज भी तंत्र की बलि तो न चढ़ जाएगा कोई! स्वयं को इतना लाचार और विवश पहले कभी भी न महसूस किया था.
ये भय इतना गहरा है कि सोशल मीडिया पर भी यूं लगने लगा है जैसे किसी अंतहीन शोक सभा में विराजमान हूँ. किसी की तस्वीर दिखते ही लपककर ‘बहुत सुंदर’ या ‘नाइस पिक’ नहीं लिखती हूँ बल्कि धडकनें इस हद तक बढ़ जाती हैं कि क्या कहूँ! अत्यधिक घबराहट से भर, धड़कते हृदय से पहले पोस्ट पढ़ती हूँ, कि कहीं… ! कोई नियमित पोस्ट डालने वाला व्यक्ति अचानक गायब हो जाए, तब भी मन संशय से भर उठता है. कुछ को तो मैंने संदेश भी भेजे हैं. जिनके प्रत्युत्तर नहीं मिले हैं उन्हें लेकर बहुत चिंतित हूँ. अब फोन पर बातों में ‘और सब ठीक ठाक है?’ पूछने का एक ही प्रयोजन होता है कि ‘किसी को कोरोना तो नहीं हुआ है न!’ एक अजीब सी बेचैनी मस्तिष्क को घेरे रहती है. होंठ मंत्रोच्चार कर तमाम प्रार्थनाएं बुदबुदाने लगे हैं.
देखा जाए तो इन दिनों अधिकांश देशवासियों की तरह, जीवित बने रहने के सारे उपक्रम, मेरी भी दिनचर्या में जुड़ चुके हैं. साँसों की गति न थमे, इसके लिए योग किया जा रहा, साथ ही प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के समस्त उपाय भी अपना रही हूँ. फिर चाहे वो काढ़ा हो या मल्टी विटामिन. फलों एवं वनस्पतियों का सेवन भी बढ़ा दिया है. कुल मिलाकर इस अदृश्य विषाणु से स्वयं को छुपाने और बचाने के जितने तरीक़े हैं, वो सब अपना रही हूँ. लेकिन साथ ही डर भी है कि न जाने कब, किस दिशा से वो आ धर दबोचे, तो सुरक्षा हेतु मैंने तो इस लड़ाई में अपनी पूरी शक्ति झोंक दी है. बहुत से लोग कहते हैं कि ‘अरे, जीवन से इतना मोह किसलिए! ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’. मैं इस बात पर आंशिक सहमति प्रदर्शित करते हुए इतना ही कहती हूँ कि अभी बहुत कुछ शेष है जो जिया जाना है, कुछ स्वप्न भी हैं जिन्हें पूरा करना है. जीवन को मैंने सदैव ही अमूल्य माना है और इसे ऐसे ही अपनी किसी ग़लती के चलते नहीं हारना चाहती. इसलिए वैक्सीन भी लगवाई है और सुरक्षा को लेकर पूर्णतः सतर्क भी रहती हूँ.
सचमुच यह अत्यंत विकट स्थिति है कि एक अति-सूक्ष्म जीव के आगे पूरा विश्व नतमस्तक है. अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो चुकी, मानव जीवन नष्ट हो रहे, सामाजिक व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हैं और हम अपने ही घर के किसी कोने में दुबककर रहने को विवश है. सभी प्राथमिकताओं को ताक पर रखकर, जीवन सुरक्षित रखना ही एकमात्र ध्येय बन चुका है. शेष रहेंगे, तब ही तो स्वप्न साकार कर सकेंगे.
इस समय एक भविष्यवाणी याद आ रही है जिसे मैंने (संभवतः आपने भी) बचपन से लेकर अब तक अनगिनत बार सुना है कि फलाने वर्ष में प्रलय आएगा. जनता त्राहिमाम कर उठेगी. हर तरफ लाशों के ढेर होंगे और धरती पर जीवन समाप्त हो जाएगा. मैं सदैव इसे हास्य की दृष्टि से ही देखती रही हूँ. आपकी भी स्मृति में होगा कि कैसे सब हँसा करते थे कि ‘अरे! प्रलय आया नहीं अभी तक! उसकी तारीख़ तो निकल गई!”
हमने कल्पना भी न की थी कि सचमुच एक समय ऐसा आएगा, जब नित शोक समाचार ही प्राप्त होते रहेंगे, आँखें अनवरत भीगी रहेंगीं और हाथ श्रद्धांजलि के लिए जुड़े ही रह जाएंगे. मैं मानने लगी हूँ कि कोविड महामारी ही वो प्रलय है जिसके बारे में हमें वर्षों से सचेत किया जाता रहा है.
लोग कहते हैं कि इस कठिन समय में नकारात्मक बातें नहीं होनी चाहिए. किसको अच्छी लगती हैं? लेकिन चिताओं के बीच में बैठ चेहरे पर मुस्कान बनाए रखना इतना सरल नहीं होता. दुखी मन से आशा की किरणें नहीं फूट पातीं. वह इंसान जिसने अपनों को खोया है, इलाज़ के लिए दर-दर भटकते, दम तोड़ते लोग देखे हैं. आखिर कब तक सकारात्मक बना रहे? जो सच है, उसे स्वीकार कर लेने में क्या आपत्ति है? डर इसलिए भी आवश्यक है कि हम निश्चिन्त होकर न बैठ जाएँ एवं अतिरिक्त सावधानी बरतें.
अब तो फेसबुक ने भी पूछना शुरू कर दिया कि आपके जाने के बाद आपके अकाउंट का क्या करें! पता नहीं, फ़ेसबुक में ये सेटिंग कब से है लेकिन मेरी नज़र इस पर हाल ही में पड़ी. इसमें यह विकल्प भी है कि मैं पहले से ही बता दूँ कि मेरे गुज़र जाने के बाद मेरे अकाउंट को कौन देखेगा और वह श्रद्धांजलि की पोस्ट को कैसे मैनेज करेगा! यदि मैं अपनी मृत्यु के बाद अकाउंट समाप्त करवाना चाहती हूँ तो वह सेवा भी उपलब्ध है. उसे देखती हूँ तो लगता है कि जैसे सोशल मीडिया खाते का ‘जीवन बीमा’ करा रही हूँ.
…तो अब काम की बात
जीवन की क्षणभंगुरता से ऐसे कभी भी साक्षात्कार न हुआ जो इस बार है. इसलिए जो सबसे जरूरी है वो यह कि अपनी उम्मीदों की वसीयत कर ली जाए. यदि सचमुच सकारात्मकता लानी है, तो सर्वप्रथम तो राजनीति से दूर रहा जाए क्योंकि सर्वाधिक ज़हर इसी का बोया हुआ है. यदि जाने-अनजाने में किसी का दिल दुखाया हो तो यही समय है कि उससे क्षमा मांग ली जाए. मन में किसी के प्रति दुर्भावना हो तो उसे सद्भावना में बदल दें. झगड़े के कारण किसी से बोलचाल बंद है तो उसकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ा लिया जाए. किसी को उसकी गलती के लिए हृदय से क्षमा कर दिया जाए. और जिससे प्रेम हो, उसे जता दिया जाए. न तो हमारे मन पर कोई बोझ रहे और न किसी के मन में हम कोई क़सक छोड़कर जाएं. कौन जाने, कल हममें से कोई हो न हो!
आप भी प्रसन्न मन से कीजिए न, एक ऐसी ही वसीयत. क्या पता! ज़िंदगी पर भरोसा और हौसले, दोनों लौट आएं.